विशेष रिपोर्ट: बिहार चुनावों में असद्दुदीन ओवैसी की एआईएमआईएम के पांच सीटें जीतने के बाद से सत्ता पाने से वंचित रह गए महागठबंधन के घटक दलों के नेता लगातार ओवैसी पर निशाना साधते हुए उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम क़रार दे रहे हैं. हालांकि आंकड़े जो तस्वीर दिखा रहे हैं, वो इन नेताओं के दावों से उलट है.
बिहार विधानसभा चुनावों में असद्दुदीन ओवैसी की ऑल इंडिया मज़लिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमिन (एआईएमआईएम) पार्टी ने पांच विधानसभा सीट जीतकर चुनावों में अपनी गहरी छाप छोड़ी है.
बता दें कि एआईएमआईएम ने विधानसभा की कुल 243 सीटों में से 20 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. हालांकि, ओवैसी और एआईएमआईएम की यह उपलब्धि चुनाव में उतरे दूसरे दलों को खल रही है.
खासकर कि सत्ता से इस बार फिर वंचित रह गए महाठबंधन के घटक दल राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस लगातार ओवैसी पर हमलावर बने हुए हैं और उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम करार दे रहे हैं, जो उनके वोट काटकर ‘वोटकटवा’ की भूमिका निभा रही थी.
उनका तर्क है कि एआईएमआईएम ने महागठबंधन के वोट काट कर उसे सत्ता से दूर कर दिया. जिसके चलते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सत्ता में वापसी हो सकी है.
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तारिक अनवर ने तो यहां तक कह दिया कि एनडीए को ओवैसी की आरती उतारनी चाहिए, जिनकी वजह से एक बार फिर बिहार में उनकी सरकार बनने जा रही है.
ऐसा पहली बार नहीं है कि कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल की ओर से ओवैसी और उनकी पार्टी पर भाजपा की ‘बी’ टीम बताकर निशाना साधा गया हो. राहुल गांधी तक कांग्रेस अध्यक्ष रहने के दौरान ओवैसी पर ऐसे हमले कर चुके हैं.
इसलिए सवाल उठता है कि क्या वास्तव में ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की सत्ता वापसी की संभावनाओं पर ‘वोटकटवा’ बनकर ग्रहण लगाया है?
अगर आंकड़ों की बात करें तो तस्वीर जुदा नजर आती है. वर्तमान विधानसभा चुनावों में जिन 20 सीटों पर एआईएमआईएम ने अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, 2015 के विधानसभा चुनावों में उनमें से 11 सीट पर महागठबंधन के घटक दलों, कांग्रेस (6) और राजद (5), का कब्जा रहा था.
बाकी बचीं 9 सीट एनडीए के घटक दलों, जदयू (7) और भाजपा (2), के पास थीं. (2015 में जदयू ओर राजद गठबंधन में चुनाव लड़े थे.)
लेकिन एआईएमआईएम के उभार के बाद इन 20 सीटों पर नये समीकरण यह हैं कि अब महागठबंधन का 9 सीट पर कब्जा है (कांग्रेस 4, राजद 3, भाकपा माले 2) जबकि एनडीए 6 सीट पर सिमट गया है. (भाजपा 3, जदयू 2, वीआईपी 1)
इस नजरिये से देखें, तो इन बीस सीटों पर एआईएमआईएम के उभार के बाद एनडीए ने अपनी तीन सीटें गंवाई हैं जबकि महागठबंधन को बस दो सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है.
खास बात यह है कि एआईएमआईएम ने एनडीए के कब्जे वाली दो ऐसी सीटें, कोचाधामन और जोकीहाट, जीती हैं जिन पर कि क्रमश: दो और चार चुनावों से जदयू जीत दर्ज कर रही थी और महागठबंधन को लगातार असफलता हाथ लग रही थी.
सवाल है कि जिन सीटों को महागठबंधन न जीत पा रहा हो, उन सीटों को अगर एआईएमआईएम ने जीत लिया तो वह कैसे महागठबंधन के लिए ‘वोटकटवा’ हुई?
वैसे, एआईएमआईएम ने तीन सीटें (आमौर, बायसी और बहादुरगंज) महागठबंधन के कब्जे से भी छीनी हैं.
आमौर सीट 1980 से कांग्रेस का गढ़ बनी हुई थी. 1980 से 2015 के बीच हुए आठ चुनावों में से सात में वर्तमान कांग्रेसी उम्मीदवार अब्दुल ज़लील मस्तान ही जीते थे. (इसमें से एक बार वे निर्दलीय जीते थे.) एनडीए को केवल 2010 में ही इस सीट पर सफलता मिली थी.
इसी तरह बहादुरगंज सीट भी कांग्रेसी गढ़ थी. सन 2000 से यहां उसका कब्जा था और उसके उम्मीदवार तौसीफ आलम लगातार चार बार से जीत रहे थे (एक बार फरवरी 2005 के विधानसभा चुनावों में वे निर्दलीय जीते थे.)
बायसी सीट एआईएमआईएम ने राजद के कब्जे से छीनी.
एआईएमआईएम से कांग्रेस, विपक्षी दलों या उनके समर्थकों की चिढ़न का एक कारण यह भी हो सकता है कि उसने कांग्रेस के इन दो गढ़ों समेत महागठबंधन की तीन सीटों पर सेंध लगा दी.
लेकिन, यहां सवाल उठता है कि यदि एआईएमआईएम इन तीन सीटों पर चुनाव नहीं लड़ता और महागठबंधन इन्हें जीत भी जाता तो क्या सिर्फ इन तीन सीटों के सहारे वह बहुमत के जादुई आंकड़े तक पहुंच जाता?
एनडीए के 125 सीट के मुकाबले 110 सीट पर जीता महागठबंधन इन सीट को जीतकर भी बहुमत से बहुत दूर 113 तक ही पहुंच पाता.
इसका कारण यह है कि इन तीन के अलावा बाकी जिन 17 सीटों पर एआईएमआईएम ने चुनाव लड़ा, वहां उसने महागठबंधन को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया. उल्टा दो सीटें उसने एनडीए की छीनीं.
बहरहाल, एआईएमआईएम की जीती सीटें हटाने के बाद बाकी बची 15 सीट में से 9 पर महागठबंधन के उम्मीदवार जीते, तो जाहिर सी बात है कि इन सीटों पर एआईएमआईएम को महागठबंधन के खिलाफ खड़ा ‘वोटकटवा’ ठहराया ही नहीं जा सकता है क्योंकि ‘वोटकटवा’ की सामान्य परिभाषा यह है कि वह किसी दल विशेष के वोट काटकर उसके विरोधी दल की जीत सुनिश्चित करे और स्वयं हार-जीत के अंतर से अधिक वोट पा ले.
इसलिए इन 9 सीटों पर महागठबंधन की जीत और एनडीए की हार एआईएमआईएम को ‘वोटकटवा’ की परिधि से स्वत: ही बाहर कर देती है.
अब सिर्फ छह सीट ऐसी बचती हैं जिन पर एनडीए जीता है. वे सीट हैं, ‘बरारी, छातापुर, नरपतगंज, प्राणपुर, रानीगंज और साहेबगंज’. बरारी में जदयू को 10, 438 वोट से जीत मिली जबकि एआईएमआईएम को महज 6,598 वोट मिले.
छातापुर में भाजपा को 20, 635 वोट से जीत मिली जबकि एआईएमआईएम को महज 1,990 वोट मिले. नरपतगंज में भाजपा को 28,610 वोट से जीत मिली और एआईएमआईएम को महज 5,495 वोट मिले.
प्राणपुर में भाजपा को 2,972 वोट से जीत मिली जबकि एआईएमआईएम को केवल 508 वोट मिले. साहेबगंज में एनडीए के घटक दल वीआईपी को 15,333 वोटों से जीत मिली जबकि एआईएमआईएम को 4,055 वोट प्राप्त कर सकी.
इन पांच सीटों पर एनडीए की जीत का अंतर एआईएमआईएम को मिले कुल वोट से कई गुना अधिक रहा. इसलिए इस दावे का कोई आधार ही नहीं बनता कि अगर एआईएमआईएम को मिले वोट महागठबंधन को मिलते तो वह जीत जाता.
क्योंकि, अगर एआईएमआईएम को मिला वोट महागठबंधन को मिल भी जाता, तब भी वह इन पांच सीटों पर एनडीए को हरा नहीं पाता.
केवल एक सीट, रानीगंज ऐसी रही जहां जदयू और राजद के बीच के हार-जीत के अंतर से अधिक वोट एआईएमआईएम को मिले. यहां जदयू ने राजद को 2,304 वोट से हराया, जबकि एआईएमआईएम को 2412 वोट मिले.
इस तरह यह सीट ‘वोटकटवा’ होने का पैमाना पूरा करती है, लेकिन यहां भी गौर करने वाली बात यह है कि इस सीट पर एआईएमआईएम के उम्मीदवार से अधिक वोट नोटा एवं तीन अन्य उम्मीदवारों को मिले हैं. एआईएमआईएम का उम्मीदवार सातवें पायदान पर रहा.
तो फिर एआईएमआई के बजाय उन अन्य तीन उम्मीदवारों को ‘वोटकटवा’ क्यों न कहा जाए? इनमें पप्पू यादव की ‘जाप’ पार्टी भी शामिल है जिसका जनाधार भी वही है जो महागठबंधन का है.
वहीं, इस सीट पर हार-जीत के अंतर से अधिक वोट नोटा (5,577) को मिले हैं तो क्यों न ये कहा जाए कि महागठबंधन ने ही ऐसा उम्मीदवार दिया जिस पर जनता को विश्वास नहीं था?
इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि एआईएमआईएम पर ‘वोटकटवा’ होने के जो आरोप लगाए जा रहे हैं, वे तथ्यों से कोसों दूर हैं.
यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि छातापुर सीट मौजूदा महागठबंधन का कोई दल 2005 से नहीं जीता, प्राणपुर 2010 से नहीं जीता, रानीगंज 2005 से नहीं जीता, बरारी 2000 से नहीं जीता, तब तो एआईएमआईएम भी चुनाव नहीं लड़ रहा था.
इसलिए महागठबंधन के दलों का यह तर्क मान भी लें कि एआईएमआईएम ने हमारे वोट काटे (जो कि नहीं काटे हैं) हैं, तो सवाल उठता है कि इस चुनाव से पहले जब एआईएमआईएम नहीं था, तब क्यों महागठबंधन इन सीटों पर नहीं जीत सका था?
हकीकत तो यह है कि इन 20 सीटों में से महागठबंधन, एनडीए का गढ़ बन चुकी किसी भी सीट पर उसे हरा नहीं पाया. जबकि एआईएमआईएम ने कोचाधामन और जोकीहाट में ऐसा कर दिखाया.
दो बार से जदयू के कब्जे वाली शेरघाटी सीट जरूर महागठबंधन ने जीती, लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि 2015 में इस सीट पर जदयू, राजद के साथ गठबंधन में ही जीता था. इसलिए इस सीट को एनडीए का गढ़ नहीं माना जा सकता है.
वहीं, तस्वीर का एक दूसरा पहलू यह भी है कि एआईएमआईएम पर ‘वोटकटवा’ का आरोप लगाने वाला महागठबंधन जिन 9 सीटों पर जीता है, उनमें से पांच पर वह वोटकटवा उम्मीदवारों के कारण ही जीत पाया है.
मनिहारी, साहेबपुर कमाल और कस्बा में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने एऩडीए उम्मीदवार को हराने का काम किया और हार-जीत के अंतर से अधिक वोट पाए.
तो वहीं, ठाकुरगंज और सिकटा में यह काम दो निर्दलीय प्रत्याशियों ने किया. दोनों दूसरे पायदान पर रहे. नतीजतन जदयू इन सीटों पर अपना कब्जा बरकरार नहीं रख पाई.
इससे तो यह भी कहा जा सकता है कि महागठबंधन के ही उम्मीदवार इन 20 सीटों पर कमजोर थे और उन्हें जीतने के लिए किसी ‘वोटकटवा’ की जरूरत थी.
बहरहाल, आंकड़े यही गवाही देते हैं कि एआईएमआईएम ने महागठबंधन के वोट काटने का काम नहीं किया है, बल्कि मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में वह स्वयं एक तीसरी ताकत के रूप में उभरा है जिसने एनडीए और महागठबंधन दोनों की ही सीट छीनकर दोनों को बराबर नुकसान पहुंचाया है.
इस बात को इससे भी बल मिलता है कि एआईएमआईएम ने जो पांच सीट जीती हैं, उनमें से चार एनडीए और महागठबंधन के दलों का गढ़ यानी पारंपरिक सीट रही हैं. वहीं, इन पांच सीटों के अलावा किशनगंज, ठाकुरगंज और शेरघाटी में वह जीत तो नहीं पाई लेकिन खासा अच्छा प्रदर्शन किया और क्रमश: 41,904, 18,925 व 14,987 वोट पाए.
यह साबित करता है कि मतदाताओं का मौजूदा दलों से विश्वास उठ गया था और विकल्प मिलते ही वे एआईएमआईएम की ओर शिफ्ट हो गए.
वहीं, एक तथ्य यह भी है कि इन 20 सीटों पर एआईएमआईएम सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है जिसने 5 सीट जीतीं.
इस संबंध मे बिहार के वरिष्ठ पत्रकार निराला कहते हैं, ‘चुनाव प्रचार के दौरान ओवैसी ने जो सवाल उठाए थे, वो भाजपा के बोल नहीं थे. अपने भाषणों में मुस्लिम हिस्सेदारी की बात करते थे और मुसलमानों से पूछते थे कि आपकी आबादी कितनी और आपके विधायक कितने? ऐसी ही बातों ने मुस्लिम मतदाता को आकर्षित किया कि दूसरे दल हमारी बात पुरजोर तरीके से नहीं उठा रहे हैं जबकि ओवैसी उठा रहे हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘नीतीश ने पसमांदा मुसलमान की बात करके मुसलमानों में राजनीतिक आकांक्षाएं जगा दी थीं. अब उनकी हिस्सेदारी तय होनी थी और इसकी बात करने ओवैसी आ गए. किसी भी वर्ग में जब राजनीतिक आकांक्षाएं जाग जाएंगी तो उसे हिस्सेदारी चाहिए होती है. ओवैसी ने इसी सबसे कमजोर नस को पकड़ा.’
निराला आगे कहते हैं, ‘ये तथ्य भी हर कोई जानता है कि ओवैसी जीतकर भी भाजपा की सरकार नहीं बनवाते. वे महागठबंधन की ओर ही जाते. इसलिए उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम या ‘वोटकटवा’ कहना फिजूल बात है. और महागठबंधन ने भी तो मुस्लिम-यादव कार्ड खेला ही था न, फिर भी मुसलमानों को खुद से जोड़कर नहीं रख पाए तो ये उनकी विफलता है.’
राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी भी ओवैसी को भाजपा की ‘बी’ टीम या ‘वोटकटवा’ बताने वाली बात को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘हकीकत यही है कि मुसलमानों के मुद्दे पर जितना मुखर यहां ओवैसी हो पाए, उतना महागठबंधन के दल नहीं हो पाए. इसलिए एक हैदराबाद का दल आकर यहां जगह बनाने में कामयाब हो सका.’
वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा का कहना है, ‘पहली बात तो कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों की चिंताओं का समाधान करने में विफल रहे. उन्होंने उनके विकास के लिए कोई काम नहीं किया. उनकी 16 फीसदी आबादी है, उन्हें इस मुताबिक हिस्सेदारी नहीं दी. कुल मिलाकर वे मुसलमानों की लड़ाई ठीक से नहीं लड़े जिससे ओवैसी के लिए जगह बनी. ये कांग्रेस व अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों की विफलता रही.’
जानकार एआईएमआईएम की सफलता को देश में बढ़ते सांप्रदायिक गतिरोध का भी एक परिणाम मान रहे हैं.
नलिन कहते हैं, ‘एआईएमआईएम एक धर्मनिरपेक्ष दल नहीं है. संघ-भाजपा का जो हिंदू वोट संगठित करने का सांप्रदायिक तरीका है, मुस्लिम वोट के मामले में वही तरीका ओवैसी का है. हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता एक-दूसरे के पोषक हैं और एक-दूसरे को फायदा पहुंचाती हैं. भाजपा को ओवैसी का उभार जंचता है और ओवैसी को संघ का. ओवैसी पहले भी चुनाव लड़ते आए लेकिन जीतते नहीं थे. पर जहां भाजपा मजबूत होगी और हिंदू सांप्रदायिकता बढ़ेगी तो सबसे बड़ा पीड़ित मुसलमान ही होगा.’
वे आगे कहते हैं, ‘तब मुसलमानों की चिंताओं का समाधान करने में आप असफल होंगे तो फिर कोई ओवैसी जैसा नेता मुखर होकर मुस्लिम पहचान की राजनीति करेगा और उनका अल्लाह हू अकबर का नारा लोगों को आकर्षित करेगा.’
इसलिए नलिन मानते हैं कि एक धर्मनिरपेक्ष दल के तौर पर कांग्रेस की जिम्मेदारी बनती थी कि वह मुसलमानों के विकास, राजनीति में उनकी हिस्सेदारी, उनकी चिंताओं एवं अन्य मुद्दों को संरक्षण प्रदान करती क्योंकि संघ और भाजपा के उभार के चलते इनकी अनदेखी हो रही थी, लेकिन कांग्रेस इसमें फेल हुई तो ओवैसी को उभरने का मौका मिल गया.
नवल किशोर का भी ऐसा ही मानना है कि हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथ एक-दूसरे से ताकत लेकर बढ़ रहे हैं. वे कहते हैं, ‘जब सांप्रदायिक राजनीति होगी तो उसमें जो भी अधिक सांप्रदायिक होगा, मतदाता उसके साथ जाएगा. जो हिंदू कट्टरपंथी हैं वे बजरंग दल के पास जाते हैं, संघ के सदस्य हो जाते हैं. उसी तरह मुसलमान ओवैसी के पास जाने लगा है. ओवैसी जिन्ना का नया संस्करण हैं. वे शिक्षित और मुखर हैं. पूरे देश मे जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है, उसके बीच वे एकमात्र मुस्लिम सांप्रदायिक नेता के तौर पर उभर रहे हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘यहां कांग्रेस और दूसरे धर्मनिरपेक्ष दलों को ओवैसी को ‘वोटकटवा’ या भाजपा की ‘बी’ टीम बताने के बजाय इस बात पर विचार करना चाहिए कि मुसलमानों का उनसे मोह भंग हो रहा है क्योंकि इन दलों के विचारों में स्थायित्व नहीं रहा. राहुल खुद को जनेऊधारी हिंदू बताते हैं, कांग्रेसी इस पर गर्व करते नजर आते हैं कि राजीव गांधी ने राम मंदिर का दरवाजा खुलवाया. जब दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हों, तब कांग्रेस की सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति राहुल को मंदिरों की सैर कराने, रामभक्त और शिवभक्त बताने और जनेऊधारी हिंदू के तौर पर उनकी ब्रांडिंग करने में व्यस्त है.’
नवल कहते हैं, ‘धर्मनिरपेक्ष दलों की राजनीति वास्तविक धर्मनिरपेक्षता से हटकर यहां-वहां डांवाडोल होती रही है जिसका लाभ भाजपा ने उठाया. इन्होंने राष्ट्रवाद को छोड़ा, भाजपा ने लपका. इन्होंने विवेकानंद को छोड़ा, भाजपा ने लपका. जब इन्हें होश आया तो खुद राष्ट्रवाद और विवेकानंद की बात करने लगे. ऐसे ही वामपंथी एक समय नेताजी सुभाषचंद्र बोस को गाली देते थे, आज ममता बनर्जी ने लपक लिया तो नेताजी की जयंती को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने के समर्थन में आ गए. इसी तरह मुसलमान को ओवैसी ने लपक लिया तो पचा नहीं पा रहे हैं.’
जानकारों के मुताबिक, भाजपा की उग्र हिंदू राजनीति के बीच विपक्षी दलों को अपने पक्ष में मुस्लिम वोट बैंक की एकजुटता का ही सहारा था, लेकिन ओवैसी के उभार ने उनसे यही वोट बैंक छीन लिया है जो उनकी चिढ़न का कारण बना है.
इसलिए मुस्लिम मतदाता के बीच वे ओवैसी की ऐसी छवि बनाने में प्रयासरत हैं कि ओवैसी भाजपा के पक्ष में ‘वोटकटवा’ का काम करते हैं.
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘कांग्रेस एक योजना के तहत ओवैसी पर लंबे समय से इस तरह के हमले कर रही है. कांग्रेस जानती है कि ओवैसी का उत्तर भारत में पांव जमाना उसके लिए खतरे की घंटी है. क्योंकि इससे पहले ओवैसी ने महाराष्ट्र में सफलता पाई. उत्तर प्रदेश और बंगाल में भी पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं. मतलब कि ओवैसी राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास कर रहे हैं और उनका जोर अब अपना दायरा बढ़ाने एवं अन्य वंचित तबकों को भी खुद से जोड़ने का है, जैसे कि उन्होंने महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर और दलित संगठनों के साथ गठबंधन किया और वोट भी लाए.’
वे आगे कहते हैं, ‘ये कांग्रेस जैसे धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए चुनौती है. ओवैसी के तथ्यों और तर्कों में अपील है जिनका खंडन करना किसी के लिए आसान नहीं है, नतीजतन उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम के तौर पर प्रचारित करके खारिज करवाने का प्रयास है. लेकिन ऐसा कहने भर से ओवैसी थमने वाले नहीं हैं.’
निराला कहते हैं कि ‘वोटकटवा’ वोट तब काटता है जब आपकी अपने वोट पर पकड़ कमजोर हो जाए और जो ‘वोटकटवा’ की भूमिका में होता है, उसके हाथ कुछ नहीं आता.
निराला कहते हैं, ‘वोटकटवा की भूमिका में तो उपेंद्र कुशवाहा भी थे. इस लिहाज से तो उनकी बहुत सीट आनी थीं. पप्पू यादव इतने लोकप्रिय हैं, उनकी सीट क्यों नहीं आईं और ओवैसी की आ गईं? कम से कम पप्पू यादव को कोसी में तो जीतना ही था. उपेंद्र कुशवाहा को कुशवाहा बहुल सीटों पर तो जीतना ही चाहिए था. क्यों नहीं जीते? अगर कोई अच्छे से चुनाव लड़ रहा था तो उसे वोटकटवा नहीं कह सकते. वोटकटवा तो चिराग पासवान थे. वोटकटवा की भूमिका में जो होते हैं, उनके हाथ अक्सर कुछ नहीं आता. इतिहास देख लीजिए.’
वे कहते हैं, ‘भागलपुर दंगों के बाद मुसलमानों के बीच कांग्रेस का जनाधार घट गया. राजद ने मुस्लिम नेताओं को उभारा नहीं, नये युवाओं को मौका नहीं दिया और पार्टी के मुस्लिम चेहरों में भी वंशवाद चलाते रहे. उनके पास कोई मुस्लिम नेतृत्व नहीं बचा था, बस मुस्लिम-यादव समीकरण बनाकर चल रहे थे. वहीं, मुसलमान नीतीश को तो पसंद करते हैं लेकिन वे उनके साथ नहीं जा सकते थे क्योंकि नीतीश भाजपा के साथ हैं और मुसलमानों का लक्ष्य किसी को जिताने से ज्यादा भाजपा को हराना है. इसलिए एक वैक्यूम तो था जिसे ओवैसी ने भर दिया.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)