पंकज त्रिपाठी बिहार के छोटे से गांव से जब पटना पहुंचे तो उन्हें डॉक्टर बनना था, लेकिन वह छात्र राजनीति में कूद पड़े. एक छोटी सी जेल यात्रा के बाद वह रंगमंत्र की ओर मुड़े और अब उनका सफर मायानगरी तक पहुंच गया है. उनसे बातचीत.
(यह साक्षात्कार पहली बार 4 अगस्त 2017 को प्रकाशित हुआ था)
बिहार के एक छोटे से गांव से निकलकर अभिनय के क्षेत्र में कैसे आना हुआ?
मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था कि मुझे एक्टर बनना है, न ही कोई प्लानिंग थी, न ही आसपास कोई इंस्पीरेशन. उस वक़्त न टीवी सेट थे और न ही सिनेमा हॉल मौजूद थे कि फिल्मों का प्रभाव हो.
मैं पढ़ाई करने के लिए पटना आया था. मां-बाप ने भेजा था कि डॉक्टर बनाना है. पटना आकर मैं एक छात्र संगठन से जुड़ गया. छात्र आंदोलनों में भाग लेने लगा. एक आंदोलन के दौरान छोटी सी जेल यात्रा भी हुई.
जेल में सात दिन रहना था तो उन लोगों ने हमें लाइब्रेरी की सुविधा दे रखी थी कि जाइए पढ़िए. हमारे साथ कई संगठनों के छात्र जेल गए थे. कॉम्युनिस्ट पार्टी के भी लोग थे.
इस दौरान उनसे दोस्ती हो गई. जेल से निकलने के बाद वाम दल के सदस्यों ने बोला कि एक नाटक होने वाला है, आओ देखने. मैं कालीदास रंगालय नाटक देखने चला गया. फिर लगातार एक साल तक नाटक देखा और एक गंभीर दर्शक बन गया.
मुझे अच्छा लगने लगा. मैं राजनीति में था. राजनीति में आपकी बातें ट्रुथफुल (सच्ची) हो न हों ब्यूटीफुल (खूबसूरत) होनी चाहिए, जिससे लोग प्रभाव में आ जाएं. खूबसूरत बातें करो. कला के क्षेत्र में ब्यूटीफुल हो न हो ट्रुथफुल होना ज़रूरी है.
मुझे लगा कि झूठ का काम तो दोनों (राजनीति और रंगमंच) ही हैं. पर झूठ का ये काम (रंगमंच) ज़्यादा सच्चाई से किया जाता है.
तो मैं धीरे-धीरे नाटक करने लगा. छोटे-मोटे रोल मिलने लगे. अलग-अलग थियेटर ग्रुप के लोग पहचान गए थे. फिर दिल्ली में ड्रामा स्कूल के बारे में पता चला, जहां पढ़ने के लिए ज़्यादा पैसे नहीं लगते हैं.
हम किसान परिवार से हैं तो ऐसा नहीं था कि घरवाले मुझे एक्टर बनाने के लिए पैसे देते. इसलिए दिल्ली आने के बारे में सोचा. मैं पटना से थियेटर करके जब से बाहर निकला घर से एक रुपया भी नहीं लिया है.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का इम्तिहान दिया और तीसरी बार में सेलेक्ट हो गया. फिर ट्रेनिंग हुई. उसके बाद कुछ विकल्प थे. बतौर अभिनेता हिंदी रंगमंच में बिल्कुल पैसे नहीं हैं. इसे अभी भी शौकिया लोग चलाते हैं या फिर ये सरकारी अनुदान से चलता है.
सरकारी अनुदान के लिए आपको बहुत सारे लोग के सामने अपनी रीढ़ झुकानी होती है और मेरी रीढ़ की हड्डी तनी हुई है, मैं झुक नहीं सकता. मैं विनम्र हूं और ये गुरूर की बात नहीं हैं लेकिन मुझे चमचई पसंद नहीं.
तो एक ही विकल्प बचता है कि मुंबई जाओ. मुंबई में छोटे-छोटे, एक-एक सीन का दौर चालू हुआ. वो करते-करते आठ-दस साल गुज़र गए. फिर गैंग्स आॅफ वासेपुर आई और उसने थोड़ी सी पहचान बनाई. उसके बाद आप सब आप लोग देख ही रहे हैं.
बिहार के अपने गांव में भी आप नाटक किया करते थे. उसकी क्या कहानी है?
छठ के दिनों में हमारे गांव में नाटक की परंपरा थी. उस समय मैंने दो-तीन साल गांव में नाटक किया था. मैं लड़की बनता था क्योंकि लड़की बनने के लिए कोई तैयार नहीं होता था. जो लड़की का रोल करता था लोग चिढ़ाते थे.
नाटकों में जो लड़की बनते थे वे बाह्मण नहीं होते थे. वे या तो ओबीसी होते थे या दलित परिवार से आते थे. मैं शायद अपने गांव का पहला ब्राह्मण था जो स्त्री बना. डायरेक्टर बोला भी था कि अपने बाप से पहले पूछ लो. मैंने कहा, मैं बन रहा हूं उनसे क्या पूछना है.
मैंने लड़की का किरदार निभाया और लोगों ने उसे खूब पसंद किया. लोगों ने चिढ़ाया लेकिन मैं नहीं चिढ़ा और लोग एक-दो दिन में थक गए.
ये एक पड़ाव था लेकिन एक बहुत ही शौकिया स्तर पर था. हां, इसे बीजारोपण ज़रूर कह सकते हैं. ये वैसा बीजारोपण था कि आप एक बीज किसी बंजर ज़मीन पर फेंक दें जिसके जमने की उम्मीद न के बराबर होती है. हमारे यहां का जो थियेटर था वो बंजर ज़मीन ही था.
ब्राह्मण परिवार के बच्चे लड़की का किरदार नहीं निभाते थे तो जब आपने ये रोल निभाया तो घरवालों ने आपत्ति नहीं जताई?
लड़की का किरदार करने पर घरवालों ने कोई नाराज़गी नहीं जताई. मैंने उन्हें समझाया कि मैं कलाकार हूं और स्त्री को रोल निभा देने से स्त्री बन थोड़े न जाऊंगा. मेरे बाबूजी बड़े सिंपल व्यक्ति हैं किसान हैं. कोई विरोध नहीं हुआ.
गांव से पटना आप डॉक्टर बनने के लिए पटना आए थे फिर रंगमंच की तरफ कैसे मुड़ गए?
मैंने बायोलॉजी से इंटर किया है और कुछ सालों तक डॉक्टरी की कोचिंग भी की है. दो दफे इम्तिहान भी दिया लेकिन डॉक्टरी के लिए जितने नंबर चाहिए होते थे उतने नहीं आ पाए. पढ़ने में मैं बुरा नहीं था, ठीक था बट मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता था.
और फिर नाटक-वाटक से जुड़ने के बाद जो साहित्य में रुचि बढ़ गई. कहानी-कविता पढ़ने लगा और 1996 के बाद से पूरी तरह से रंगकर्मी बन गया था.
आपका परिवार अभी गांव में ही रहता है. अपने गांव के बारे में कुछ बताइए?
मैं बिहार के गोपालगंज ज़िले के बेलसंड गांव का रहने वाला हूं. पिताजी किसान हैं और पंडिताई करते हैं. दो भाई और दो बहनें हैं. घर में किसी का कला के क्षेत्र से कुछ लेना-देना नहीं है. बिजली अभी तीन-चार साल पहले ही हमारे गांव पहुंची है. गांव के कुछ ही घरों में टीवी है.
पटना आने पर आप छात्र आंदोलन में कूद पड़े थे. उस दौरान आप जेल भी गए थे. इसकी क्या वजह थी?
1993 में मधुबनी गोलीकांड में दो छात्र मारे गए थे. लालू जी की सरकार थी तो उसके विरोध में सारे छात्र संगठनों ने मिलकर दिसंबर महीने में एक आंदोलन किया था. तब मैं विद्यार्थी परिषद में था. जेल में हमारे साथ वामपंथी संगठनों के छात्र भी थे. जेल में देखा कि उन लोगों में से कोई मुक्तिबोध पढ़ रहा है कोई नागार्जुन. उस समय तक हम इन लोगों को जानते भी नहीं थे.
गांव में गोरखपुर से कल्याण नाम की एक धार्मिक पत्रिका आती थी वहीं देखे थे. या कभी-कभी आरएसएस का पाञ्चजन्य देखा था. कल्याण और पाञ्चजन्य से बाहर का एक्सपोजर नहीं था. जेल में पता चला कि कोई नागार्जुन हैं, कवि हैं. उनको पढ़ा फिर जाकर नाटक देखने लगा. फिर धीरे-धीरे रुझान बढ़ने लगा और फिर रंगमंच के ही होकर रह गए.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से ट्रेनिंग लेने के बाद आप पटना वापस चले गए. वहां आप अभिनय भी करने लगे थे तो फिर मुंबई जाने का ख्याल कैसे आया?
2001 में मेरा सेलेक्शन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हो गया था. 2001 से 2004 तक मैंने यहां ट्रेनिंग की. फिर पटना आ गया. चार महीने तक पटना में रंगमंच किया तो महसूस हुआ कि हिंदी रंगमंच में गुज़ारा करना मुश्किल है, इसलिए मुंबई जाना पड़ा और 16 अक्टूबर 2004 को मैंने पत्नी के साथ मुंबई पहुंच गया.
दिल्ली से पटना और पटना से फिर मुंबई जाने के बाद आपका संघर्ष कैसा रहा?
उस समय पैसों की बहुत ताना-तानी होती थी तो पत्नी ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. हमारे ख़र्चे बहुत कम थे तो परिवार चल जाता था. मैं बंबई सिर्फ गुज़ारा करने आया था स्टार बनने नहीं. मुझे वो भूख नहीं थी कौन मुझे बतौर हीरो या बतौर विलेन लॉन्च करेगा.
जैसे खुदरा किसान होता है जिसके खेत में दो किलो भिंडी होती है तो वह ख़ुद ही बाज़ार बेच के चला आता है. मैं वैसे ही खुदरा एक्टर था जो एक किलो भिंडी लेकर बंबई आया था.
10 से 12 साल के संघर्ष के दौरान मैं सब कुछ कर लेता था. टीवी शो, कॉरपोरेट फिल्में या ऐड मिल गया तो वो कर लिया. पत्नी पढ़ाने लगी थीं तो घर चलाने में कोई ख़ास दिक्कत नहीं होती थी.
बिहारियों में संघर्ष की क्षमता होती है. हमारा 10वीं तक का जीवन तो अंधेरे में गुज़रा है. बल्ब और ट्यूबलाइट की ज़रूरत नहीं थी हमें. फ्रिज का खाना हमें आज भी अच्छा नहीं लगता.
बस यही ख्याल था कि बंबई में किसी तरह टिक जाना है. हां, लेकिन इस दौरान मैं एक्टिंग के बारे में सोचता रहता था कि कैसे दूसरों से अलग करना है ताकि लोग मुझ पर ध्यान दें कि ये कौन है. रोल को इतनी ईमानदारी से करो कि लोगों को नज़र आ जाए.
अभिषेक बच्चन की फिल्म रन में आपकी शुरुआती फिल्मों में से है. ये फिल्म कैसे मिली?
मैंने रन से पहले कोई फिल्म नहीं की थी. वो बहुत छोटा रोल था उसे मैं काउंट नहीं करता था. एक दिन अचानक ऐसे ही ये मिल गई. मैंने कोई प्रयास नहीं किया था. दो सीन था, पता चला कि प्रति सीन चार हज़ार रुपये मिलेंगे तो मैंने कर लिया. उसमें मेरी आवाज़ भी नहीं थी. डबिंग किसी और ने की है.
उस समय दिल्ली में रहता था तो मैंने कर लिया और जब आठ हज़ार रुपये का चेक आया तो उस पर श्रीदेवी जी का हस्ताक्षर था. पता चला कि वो फिल्म की प्रोड्यूसर हैं तो मैं ऐसे ही प्रसन्न हो गया. श्रीदेवी के दीवाने थे और उन्होंने चेक भेज दिया मेरे पास.
फिल्म रन को आप काउंट नहीं करते हैं तो आपको पहला ब्रेक क्या गैंग्स आॅफ वासेपुर से मिला?
नहीं, ऐसा नहीं है. गैंग्स आॅफ वासेपुर ने थोड़ा पॉपुलर बना दिया. लोग खोजने लगे कि अरे यार वो एक्टर कौन है, जो सुल्तान बना है. गैंग्स आॅफ वासेपुर में मुझे प्रमोट नहीं किया गया था.
हमें ब्रेक किसी ने नहीं दिया है. हर किसी ने ‘ब्रेक’ ही दिया है कि रुकते जाओ… तुम कहा जा रहे हो रुको. तो हमारा ‘ब्रेक’ वैसा वाला था. जैसे नल ढीला हो तो एक-एक बूंद पानी टपकता रहता है. वैसे ही हम एक-एक सीन टपकते-टपकते इकट्ठा हो गए.
आपने कॉमेडी के अलावा विलेन का किरदार भी बखूबी निभाया है. कौन सा रोल निभाने में आपको ज़्यादा मज़ा आता है?
पसंद तो मुझे कॉमेडी ही आती है. मैं थियेटर में कॉमेडी करता था. अगर कॉमेडी पर आपकी पकड़ है न तो ये बहुत आसान काम है. अगर आपकी पकड़ नहीं है तो दुनिया का सबसे कठिन काम है किसी को हंसाना.
रुलाने वाले सीन में अगर आपने दर्द भरी धुन चला दी तो सामने वाला आॅडिएंस भावुक हो सकता है. कॉमेडी में कोई धुन काम नहीं करती है. अगर आप में वो बात नहीं है तो फिर नहीं है.
नकारात्मक रोल काफी कठिन होता है. मुझे उसमें काफी प्रयास करना पड़ता है.
गैंग्स आॅफ वासेपुर में सुल्तान के किरदार के समय तक मैंने कसाईखाना देखा नहीं था. मैं हिंसक व्यक्ति नहीं हूं. मैं इतना ध्यान रखता हूं कि मेरी बातों से कोई आहत न हो जाए. सुल्तान लोगों को सरेआम काट रहा है, गोलियां मार रहा है. उसे अच्छी तरीके से करना ताकी दर्शकों पर प्रभाव हो.
ऐसे किरदारों में मुझे अपने विचारों और भावनाओं के विपरीत जाकर काम करना होता है इसलिए इसमें ज़्यादा मेहनत और प्रयास करना होता है.
सुल्तान मेरी कल्पना और लेखक की सोच की उपज है. फिल्म में एक वॉयस ओवर आता है कि सुल्तान 12 साल की उमर में पूरा भइंसा अकेले काटता था… और आज भी दिन का 60 भइंसा खुद्दे काटता है… इसलिए सब उससे डरते हैं… ये वॉयस ओवर उस किरदार को स्थापित कर देता है. सिनेमा कलेक्टिव आर्ट है एक आदमी का काम नहीं है.
कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर का भी उतना ही बड़ा योगदान होता है जितना योगदान कैमरामैन का और राइटर का होता है. सब मिलकर बनाते हैं, अकेले के बस की बात नहीं है.
एक इंटरव्यू के दौरान आपने कहा था कि आपके द्वारा निभाए गए नकारात्मक किरदारों को जो दर्शक पसंद करते हैं वे आपको नहीं भाते. ऐसा क्यों?
नहीं-नहीं… ऐसा नहीं है. उन्होंने गलत लिख दिया था. हम कोई भी भूमिका करें अगर दर्शक पसंद करते हैं तो वो हमारे कौशल की तारीफ है. मेरी तारीफ होना मतलब मेरे कला की तारीफ है. मैंने उनसे ये बोला था कि व्यक्तिगत तौर पर मुझे नकारात्मक भूमिकाएं करना पसंद नहीं है. क्योंकि उसमें मुझे काफी कठिनाई होती है.
मैंने ऐसी कई फिल्में मना कर दीं. हॉलीवुड अभिनेत्री लूसी ल्यू 20 मिनट की एक फिल्म बना रही थीं. उसमें छोटी बच्चियों के साथ रेप सीन थे तो मैंने मना कर दिया. बोला गया कि ये फिल्म बाल वेश्यावृत्ति के ख़िलाफ़ है. लूसी भारत आई थीं मुझसे मिलीं लेकिन मैंने बोला मेरे से नहीं हो पाएगा.
मैंने कहा, मेरी कुछ सीमाएं हैं. मैं कला के नाम पर कुछ भी नहीं कर सकता. वो सीन प्रोफेशनल कलाकारों के साथ नहीं बच्चियों के साथ करना था. उन पर क्या असर होता? उन्होंने मुझे समझाया लेकिन मुझे क्रूरता पसंद नहीं है.
आप मेरे किसी निगेटिव किरदार को देखेंगे तो मैं कहीं न कहीं से उनमें पॉजिटिविटी लाता हूं. जैसे सुल्तान अगर आप देखेंगे तो वो कई बार आपको मानवीय लगेगा. फिल्म में जब वो रामाधीर सिंह के यहां जाता है तो एकदम बच्चा दिखेगा.
मैं हर नकारात्मक किरदार में सकारात्मकता लाना चाहता हूं. किसी भी प्रकार की एक्टिंग हो उसमें रस बना रहना चाहिए क्योंकि दर्शक उसी वजह से मुझे देखेंगे. नीरस हो जाऊंगा तो लोग सिनेमा हॉल में 200 रुपया का टिकट लेकर मेरा प्रवचन सुनने नहीं आएंगे.
आपकी फिल्म गुड़गांव रिलीज़ हो गई है. पहली बार आप लीड रोल में हैं. इसके बारे में कुछ बताइए?
जी, सही कहा आपने. मैं पहली बार लीड रोल में हूं और पोस्टर में दिख रहा हैं. ये एक थ्रिलर फिल्म हैं इसलिए इस बारे में बहुत ज़्यादा बता नहीं सकता. यह एक किसान के बिल्डर बनने की कहानी है. उसकी बच्ची किडनैप हो जाती है.
उसके किडनैप होने के बाद परत दर परत इस व्यक्ति की कहानी खुलती है कि वह कौन है और कैसे बना. आजकल लोग ये बात करते हैं कि फलाना 400 करोड़ रुपये का मालिक है लेकिन वह कैसे बन गया इस पर बात नहीं होती है. ये बहुत ही कठिन और जटिल रोल है. उस किरदार में कई सारी परतें हैं.
जब से पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने हैं तब से यह संस्था कुछ ज़्यादा ही विवादों में है. बोर्ड की कार्यप्रणाली को आप किस तरह से देखते हैं?
सेंसर बोर्ड वाले मोरल पुलिसिंग में लगे हैं. मुझे लगता है कि सेंसर बोर्ड का काम सर्टिफिकेट देना है. हमारा समाज इतना भी असंवेदनशील नहीं है कि किसी गलत काम को पचा लेगा. अगर वो ख़राब होगा तो लोग फिल्म देखेंगे ही नहीं. आप तो बस ये तय कर दो कि ये फिल्म किस आयु वर्ग की है.
आपत्ति छोटी फिल्मों में ज़्यादा होती है. बड़ी कॉमर्शियल फिल्मों में सेंसर बोर्ड को कम आपत्ति होती है. छोटी फिल्में जो मुश्किल से चल पाती हैं, अपनी लागत भी नहीं निकाल पातीं, उसमें वे लोग ज़्यादा ख़ामियां ढूंढते हैं.
छोटी फिल्में वैचारिक रूप से वे काफी उत्तेजक होती हैं. उनके पास बजट और स्टार नहीं होते हैं तो उनको लगता है कि ये तो वैचारिक बात है तो ये गलत है. जहां बड़े बजट की बात होती हैं तो वहां व्यवसाय का दबाव होता है तो उनमें विचार हो न हो मनोरंजन पर वे लोग ज़्यादा फोकस करते हैं.
आप अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं और पटना में तीन चार सालों तक छात्र राजनीति की हैं. वर्तमान में जो राजनीतिक हालत हैं जैसे- गोरक्षा के नाम पर हिंसा और बीफ़ विवाद, इसे आप कैसे देखते हैं?
ये सब तो गलत है. बेवकूफी है. घर में जो हमारे बुजुर्ग दादा-दादी हैं उनको रोज़ लतियाते हैं और गोरक्षा के नाम पर झूठ-मूठ का हंगामा कर रहे हैं लोग. मुझे नहीं लगता कि जो लोग गोरक्षक हैं वो घर में दादा-दादी की सेवा करते होंगे.
गांव के मेरे घर में छह गायें हैं. गाय पालना क्या है ये हम जानते हैं. ये सब जो चल रहा है सब बकवास है और जितना ग्राउंड पर चल रहा है उससे ज़्यादा सोशल मीडिया पर बवाल मचा हुआ है.
एक तो ये सोशल मीडिया बहुत ही वाहियात चीज़ आ गया है. हमारे एक्टर पगलाए हुए हैं. सबको लगता है कि सोशल मीडिया पर कितने लाइक मिल जाएं, कितने फॉलोवर बढ़ जाएं.
ये सब कुछ नहीं होता है. इतने बड़े-बड़े सुपरस्टार हैं जिनके करोड़ों में फॉलोवर होते हैं. उनकी फिल्म तो फ्लॉप ही नहीं होनी चाहिए. ख़ैर राजनीति का सवाल था मैं कहीं और चला गया.
जो कुछ भी चल रहा है सरासर गलत है. हमें नफरत की नहीं प्रेम की ज़रूरत है. हमें स्कूल, स्वास्थ्य और शिक्षा की ज़रूरत है. हमारा फोकस स्वास्थ्य और शिक्षा पर नहीं है, हमारा फोकस भटका हुआ है. जाहिलों की फौज खड़ी है इस मुल्क में और 90 परसेंट तो बेरोज़गार हैं जो गोरक्षक बनकर घूमते होंगे.
बेहतर इंसान बनने के लिए शिक्षा की बहुत ज़रूरत है. मैं भी गांव का गंवार लड़का था. मेरे पास विचार नहीं थे जो भी मेरे विचार बने, उसमें किताबों और पढ़ाई का बहुत बड़ा योगदान है. होता है ये सब. मुल्क में इस तरह की राजनीति चलती रहती है.
राजनीति और रंगमंत्र के बीच आप पटना के होटल मौर्या में शेफ भी रहे हैं. आप शेफ कैसे बन गए?
ये जीवन अद्भुत है, पता नहीं क्या-क्या कराए. घरवाले बोले कि यार थियेटर से तुम्हारा क्या भला होगा. कुछ टेक्निकल पढ़ाई पढ़नी चाहिए. तब मैं रंगमंच को लेकर बहुत गंभीर नहीं था.
मेरे चाचा ने कहा कि दो बार मेडिकल में तुम्हारा कुछ हुआ नहीं. कुछ कर नहीं रहे हो तो एफसीआई (फूड कॉरपोरेशन आॅफ इंडिया) का फॉर्म आया है. भर दो विदेश में कहीं कुक की नौकरी मिल जाएगी. विदेशों में भारतीय खाना बनाने वालों की बहुत डिमांड है.
तो मैंने फॉर्म भर दिया और दो साल बाद होटल मौर्या में नौकरी लग गई. वहां दो साल नौकरी की थी. हालांकि वो हुआ नहीं, मुझे खाना बनाना पसंद है लेकिन अपने लिए और दोस्तों के लिए.
जब आप अपने लिए रास्ता खोज रहे होते हो तो ऐसा होता है. मैं राजनीति में गया. कुकिंग में गया. पटना में कुछ दिन जूता भी बेचा हूं. ज़मीन की दलाली का भी सोचा था लेकिन वो हो नहीं पाया.
20 साल का युवा जो गांव से शहर आया हुआ हो वो विचलित रहता है. मैं भी रहा हूं लेकिन थियेटर मिलने के बाद सब कुछ साइड में हो गया.
होटल मौर्या में मनोज बाजपेयी से जुड़ा एक किस्सा है. उन्होंने कहा था कि जब वे वहां गए थे तो आपने उनकी चप्पल चुरा ली थी. क्या हुआ था?
दरअसल मैंने चुराई नहीं थी, उनकी चप्पल होटल में छूट गई थी. हाउस कीपिंग का एक लड़का था उसने फोन कर मुझे बताया कि मनोज बाजपेयी जी आए थे उनकी चप्पल छूट गई है. मैंने कहा, मुझे दे दो. पहले जैसे गुरुओं का खड़ाऊ चेले रखते थे, वैसे ही मैंने उसे रख लिया.
उस समय उनकी फिल्म सत्या आई थी मैं उन्हें पसंद करता था. तो मैंने कहा कि यार मुझे दे दो मैं कम से कम उसमें पैर तो डाल सकूंगा. जब वासेपुर में उनसे मिला तो मैंने उनसे ये बात बताई थी.
आपकी रजनीकांत के साथ उनकी फिल्म काला करीकलन में आ रहे हैं. दक्षिण की ये फिल्म कैसे मिल गई?
फिल्म के डायरेक्टर ने गैंग्स आॅफ वासेपुर और निल बटे सन्नाटा में मेरा काम देखा था. उन्होंने अप्रोच किया. मुझे मालूम चला कि रजनी सर के साथ काम करना है, उनको पास से देखना था तो फिल्म से जुड़ गया.
रजनी सर बहुत ही अद्भुत व्यक्ति हैं, वो तो लेजेंड हैं. उतने बड़े स्टार होने के बावजूद इतना विनम्र और ग्राउंडेड. उनका एक स्टाइल है जिसे मैं नहीं कर सकता लेकिन उनके दर्शक वही पसंद करते हैं.
स्टाइल की बात हुई है तो बॉलीवुड में अब अभिनेताओं के पास कोई स्टाइल नहीं रह गया है. पहले आप उनकी आवाज़ सुनकर उन्हें पहचान जाते थे. उनके डॉयलॉग्स आज भी लोगों को याद है. आजकल के अभिनेताओं में ऐसी खूबी नहीं. इसके पीछे क्या वजह है?
समय बदल रहा है. शहरी दर्शक अब विश्व सिनेमा देख रहे हैं. आप एक शैली में एक फिल्म में कर लोगे लेकिन दूसरी फिल्म में वहीं नहीं चलेगा. लोग बहुत जल्दी बोर हो जाएंगे.
पहले सिनेमा जादू का काम करता था इसलिए अभिनेताओं को स्टार कहा जाता था. अब तो स्टार मैगी और पॉपकॉर्न बेच रहे हैं तो काहें का स्टार. दर्शक हमारे बहुत बदल गए हैं और परिपक्व हो गए हैं. आपका कोई स्टाइल एक बार चलेगा दोबारा दर्शक ख़ुद ही रिजेक्ट कर देंगे. इसलिए बड़े-बड़े स्टार भी अब प्रयोग करना चाह रहे हैं.
हाल ही में आइफा अवॉर्ड्स समारोह के दौरान एक विवाद के बाद अभिनेत्री कंगना रनौत ने भाई-भतीजावाद के ख़िलाफ़ स्टैंड लिया है. आप नॉन फिल्मी बैकग्राउंड से हैं क्या आप भी भाई-भतीजावाद के शिकार रहे हैं?
मैं सीधे तौर पर तो इसका विक्टिम नहीं हूं लेकिन ये ज़रूर है कि फिल्मी परिवार के जो बच्चे हैं वो एक्टिंग अच्छी करें या गंदी, फर्क नहीं पड़ता. इस इंडस्ट्री में टिकने के लिए आप में प्रतिभा होनी चाहिए.
मुझे लोगों तक अपना नाम पहुंचाने में 10 साल लगे हैं. फिल्म स्टार के बेटों को लॉन्च होने से पहले ही पूरा भारत जान जाता है. उसके लिए दर्शक तैयार रहते हैं. उसके बाद टिकने के लिए उनमें कुछ तो चाहिए ही होता है. भाई-भतीजावाद तो सिनेमा में भी है और राजनीति में भी. समरथ को नहीं दोष गोसाईं.
कंगना तो बहुत बढ़िया हैं वो तो इतनी स्टैंड लेने वाली लड़की है कि पूछिए मत. उसने अपनी एक जगह, एक मुकाम बनाया है तो वो बात कर रही है और उसे लोग सुन रहे हैं.
कंगना ने बहुत सही स्टैंड लिया है. क्या कहेंगे आप हिंदी सिनेमा में काम करने वाले लोग हैं और हिंदी की समझ ही नहीं हैं इन लोगों को. सिर्फ संवाद हिंदी में बोलते हैं उसके बाद उनका पूरा जीवन अंग्रेज़ीयत वाला है.
यही वजह कि आजकल छोटे शहर से फिल्ममेकर आ रहे हैं. अनुराग कश्यप छोटे शहर से आए हैं. अनुराग बसु, तिग्मांशु धुलिया, राजकुमार गुप्ता छोटे शहरों से हैं.
जो भी आ रहे हैं अब छोटे शहरों से आ रहे हैं, क्योंकि उनके पास समझ है छोटे शहरों की, हिंदी की कहानियों की. गर्मी की छुट्टियों में वे अपने नानी के यहां जाते होंगे. कोई बिजनौर जाता होगा कोई किसी दूसरे छोटे शहर जाते थे. पहले के फिल्ममेकर छुट्टियों में लंदन-पेरिस जाते थे. उनकी नानी वहां रहती थीं.
मैं कंगना से पूरी तरह से सहमत हूं. बहुत स्ट्रॉन्ग लेडी हैं और उनकी बातें सुनकर हम लोगों को बल मिलता है.