इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एनएसए से संबंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि जहां क़ानून ने सत्ता को अत्यधिक शक्ति प्रदान की है कि वे किसी भी व्यक्ति को सामान्य क़ानून के तहत मिले संरक्षण और कोर्ट के ट्रायल के बिना गिरफ़्तार कर सकते हैं, ऐसे क़ानून को इस्तेमाल करते वक़्त बेहद सावधानी बरती जानी चाहिए.
नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बीते सोमवार को कड़े राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत जावेद सिद्दीकी के हिरासत आदेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि अधिकारियों ने समय पर सलाहकार बोर्ड के समक्ष उनकी याचिका रिपोर्ट पेश नहीं की.
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस प्रदीप कुमार श्रीवास्तव और जस्टिस प्रीतिंकर दिवाकर की खंडपीठ ने जावेद सिद्दीकी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर हिरासत आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि एनएसए जैसे कानून को प्रशासन द्वारा ‘अत्यधिक सावधानी’ के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए.
न्यायालय ने कहा, ‘जहां कानून ने सत्ता को अत्यधिक शक्ति प्रदान की है कि वे किसी भी व्यक्ति को सामान्य कानून के तहत मिले संरक्षण और कोर्ट के ट्रायल के बिना गिरफ्तार कर सकते हैं, ऐसे कानून को इस्तेमाल करते वक्त बेहद सावधानी बरती जानी चाहिए.’
अदालत ने कहा कि प्रशासन का ये दायित्व था कि वे कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हिरासत आदेश पारित करते.
इसके बाद कोर्ट ने कहा कि यदि जावेद सिद्दीकी किसी अन्य मामले में आरोपी नहीं हैं तो उन्हें तत्काल रिहा किया जाए.
हाईकोर्ट ने कहा, ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता का इतिहास काफी हद तक प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के निरीक्षण पर जोर देने का इतिहास है. नजरबंदी का कानून, हालांकि दंडात्मक नहीं है, लेकिन केवल निवारक है. यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निर्दिष्ट व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करता है इसलिए, प्राधिकरण कानून के तहत स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हिरासत आदेश पारित करने के लिए बाध्य है. यह सुनिश्चित करेगा कि संवैधानिक सुरक्षा उपायों का पालन किया गया है.’
जौनपुर के सराय ख्वाजा इलाके में भदेथी गांव में दलित और मुस्लिम समुदाय के बीच हुई झड़प के बाद जावेद सिद्दीकी को इस साल जून में गिरफ्तार किया गया था. इसके बाद जौनपुर के जिला मजिस्ट्रेट ने बाद में 10 जुलाई को उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की धारा 3(2) के तहत हिरासत आदेश जारी किया था.
अदालत के आदेश के अनुसार सिद्दीकी के खिलाफ हिरासत आदेश 10 जुलाई को पारित किया गया था और याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका 20 जुलाई को दी थी. सिद्दीकी के लिए हिरासत आदेश को 21 जुलाई, 2020 को मंजूरी दी गई थी.
कोर्ट ने कहा कि सिद्दीकी की याचिका को 14 अगस्त, 2020 को अस्वीकार किया गया, क्योंकि सलाहकार बोर्ड ने पहले ही 12 अगस्त को हिरासत आदेश के अनुमोदन के लिए सिफारिश की थी.
हाईकोर्ट ने कहा, ‘रिकॉर्ड से पता चलता है कि याचिकाकर्ता की याचिका को 12 अगस्त 2020 को एडवाइजरी बोर्ड के सामने नहीं रखा गया था, जबकि यह 20 जुलाई 2020 को ही फाइल कर दिया गया था. यह राज्य सरकार के पास ही लंबित रही और एडवाइजरी बोर्ड की सिफारिश के दो दिन बाद इसे खारिज कर दिया गया.’
कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्य प्रशासन ने इस संबंध में कोई उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया है कि उन्होंने याचिकाकर्ता की दलीलों को आगे क्यों नहीं बढ़ाया और इसे एडवाइजरी बोर्ड के सामने क्यों नहीं रखा गया.
पीठ ने कहा, ‘यह रिकॉर्ड से स्पष्ट है कि जहां एक तरफ याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्रवाई करने में असाधारण जल्दबाजी दिखाई गई, वहीं विचाराधीन कैदी की याचिका को आगे बढ़ाने में अधिकारियों द्वारा पूरी तरह से निष्क्रियता बरती गई और देरी की गई.’
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा, ‘प्रशासन द्वारा इस तरह की निष्क्रियता बरतने से याचिकाकर्ता के सुनवाई के उचित अवसर को प्रभावित किया है और कानून के तहत प्रदान किए गए याचिकाकर्ता को निष्पक्ष सुनवाई के अवसर से वंचित कर दिया गया. यह स्वीकार्य नहीं है और स्थापित कानूनी एवं प्रक्रियात्मक मानदंडों तथा कानूनी एवं संवैधानिक संरक्षण का घोर उल्लंघन है.’
हाईकोर्ट ने एडवाइजरी बोर्ड के सामने याचिकाकर्ता की दलीलों को पेश नहीं कर पाने के प्रशासन के सभी कारणों को खारिज कर दिया और कहा कि कोर्ट ने इस देरी के लिए कोई उचित कारण नहीं पाया है.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर अपनी याचिका में सिद्दीकी ने तर्क दिया कि उन्हें हिरासत आदेश को चुनौती देने के लिए यूपी सलाहकार बोर्ड, लखनऊ के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने का उचित अवसर नहीं दिया गया.
उन्होंने आरोप लगाया कि सलाहकार बोर्ड में न तो उनकी याचिका को समय से पहले रखा गया और न ही उन्हें एनएसए के तहत हिरासत में लिए जाने के बारे में प्रासंगिक दस्तावेज उपलब्ध कराए गए थे.
इस वर्ष की शुरुआत में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कथित गोहत्या के मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एसएसए) की धाराएं लगाए जाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चिंता जताई थी कि निर्दोष लोगों को निशाना बनाने के लिए कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है.