लखनऊ के राजनीतिक गलियारों में इन दिनों मुलायम सिंह यादव पर चटखारेदार बहसें हो रही हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे कद्दावर नेताओं में शुमार ‘नेताजी’ के बोल वचन हर वक्त बदल ही जा रहे हैं. गत 20 जनवरी को एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘मेरा आशीर्वाद अखिलेश के साथ है, जितना बढ़िया कर सकता था, उसने किया. कहीं उसका कोई विरोध नहीं है.’ फिर 29 जनवरी कोे एक अखबार के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, ‘12 तारीख से अखिलेश के लिए प्रचार करूंगा. सब कुछ दे दिया उसे, आखिर बेटा है मेरा.’
हालांकि 29 जनवरी को ही वह एक प्रेस कांफ्रेंस में वह पलट गए. उन्होंने कहा, ‘गठबंधन का मैं विरोध करता हूं. पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी इसका विरोध करें. मैं प्रचार भी नहीं करूंगा.’ फिर एक फरवरी को उन्होंने कहा, ‘जब गठबंधन हुआ है तो प्रचार भी करूंगा.’ बाद में छह फरवरी को उन्होंने कहा, ‘वह पहले शिवपाल के लिए 11 फरवरी से प्रचार शुरू करेंगे और उसके बाद अखिलेश के लिए प्रचार करेंगे.’
14 फरवरी को जसवंतनगर में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘अपनी ही सरकार में कई बार जनहित के कार्यों को कराने के लिए दबाव बनाना पड़ा. ऐसे में वे क्या कर सकते हैं, सरकार भी अपनी है और बेटा भी अपना.’
हालात यह हो गई है कि मुलायम सिंह यादव के इस तरह बदलते बयानों को लेकर सोशल मीडिया पर तमाम तरह के फर्जी पोस्ट वायरल हो रहे है. तमाम तरह के जोक्स गढ़े जा रहे हैं. जिसे दिखा-सुनाकर विरोधियों के साथ-साथ पार्टी के नेता भी चुटकी ले रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘जहां तक मुलायम सिंह यादव के उल्टे-सीधे बयानों का मामला है तो उन्हें कुछ उम्र संबंधी रोग लग गए हैं. वो भूल जाते हैं कि सुबह उन्होंने क्या बोला था. शाम को वह दूसरा बयान दे देते हैं. तो इसलिए ऐसे बयान उनकी कमजोर हालात के चलते हैं. हालांकि कुछ लोग इसे षडयंत्र बताते हैं. वैसे मुलायम ऐसा कर सकते थे अगर वह स्वस्थ होते. वह ऐसे राजनेता थे जो किसी को भी गच्चा दे देते थे.’
मुलायम सिंह यादव के दौर को देख चुके विश्लेषक और पत्रकार इन दिनों नेताजी की हालत पर दुख जरूर जता रहे हैं. मुलायम सिंह यादव की जो स्थिति अभी है वह इस बात से समझी जा सकती है कि जिस आदमी की सांसों में राजनीति बसी हो वह अपनी पार्टी का कोई फैसला नहीं ले पा रहा है.
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘सिवाय शिवपाल के मुलायम सिंह यादव के साथ के सारे लोग अखिलेश के साथ हो गए हैं. ऐसा भी नहीं कि मुलायम सिंह यादव को इससे नाराजगी है. बोलने में उन्हें दिक्कत होती है वो कुछ का कुछ बोल जाते हैं शायद उनका दिमाग भी सही नहीं रहता है. शारीरिक रूप से वो कमजोर हो चुके हैं.’
कितने प्रासंगिक रह गए हैं मुलायम
राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि जब नेताजी मीडिया से बात करते हैं तो लिखित बयान होता है अक्सर वह अखिलेश के खिलाफ होता है लेकिन जब वह बिना पर्चे के बोलते हैं तो अखिलेश को अपना बेटा बताते हैं.
अब सवाल यह है कि आखिर मुलायम सिंह यादव जैसे अनुभवी और कद्दावर नेता की ऐसा क्या मजबूरी हो सकती है कि जो किसी के शब्दों को अपनी आवाज दें? इसके अलावा अब ऐसे दौर में मुलायम सिंह यादव कितने प्रासंगिक रहे गए हैं?
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘जहां तक मुलायम की प्रासंगिकता का सवाल है तो समाजवादी पार्टी में ही उनकी प्रासंगिकता नहीं रह गई है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में बात ही करना बेकार है. राजनीति में हरेक का एक दौर होता है. बेहतर यह होता है कि राजनेता यह समझ जाएं कि उनका दौर बीत चुका है. जैसे आडवाणी नहीं हटे तो उन्हें हटा दिया गया. जो राजनेता वक्त के हिसाब से नहीं हटते उन्हें वक्त हटा देता है. यही सब कछ मुलायम सिंह यादव के साथ हो रहा है. उन्हें उनके बेटे ने ही हटा दिया.’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं, ‘कोई भी राजनेता तभी प्रासंगिक होता है जब उसके पास संगठन हो और उस संगठन के सहारे वह किसी मुद्दे को प्रासंगिक बनाए. मुलायम ने यह चीजें छोड़ दी है. यूपी की राजनीति में मुलायम सिंह यादव की प्रासंगिकता अभी शून्य है.’
त्रिपाठी आगे कहते हैं, ‘मुलायम धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी राजनीति केे लिए जाने जाते थे. यह दोनों उन्होंने छोड़ दिया है. परिवार के झगड़े में वह हार गए हैं. राजनीति में अभी विकास, भ्रष्टाचार और धर्मनिरपेक्षता संबंधी विमर्श चल रहा है. मुलायम सिंह यादव इसमें कही भी उपस्थित नहीं है.’
गौरतलब है कि मुलायम सिंह यादव एक माहिर राजनेता रहे हैं. राजनीति में आगे बढ़ने के लिए उन्हें पता था कि कब किसके साथ रहना है और किसे छोड़ देना है. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनका बेटा उनके साथ वही करेगा जो उन्होंने बहुतों के साथ किया था.
त्रिपाठी कहते हैं, ‘मुलायम सिंह यादव मंडल और मंदिर दौर के नेता रहे हैं. मंडल और मंदिर के बाद के दौर में उनके लिए खुद को प्रासंगिक रखना मुश्किल हो रहा है. आज न वो क्लीन इमेज वाली छवि पर खरे उतर पा रहे हैं और न ही विकास पुरुष केे रूप में खुद को स्थापित कर पा रहे हैं. उन्होंने सेकुलर राजनीति वाली जमीन को भी नष्ट कर दिया है. जब आप अपने सैद्धांतिक आधार को नष्ट कर चुके हैं तब आप खड़े कहां होंगे?’
सपा को मुलायम की कितनी ज़रूरत?
यूपी में समाजवादी पार्टी के चुनाव प्रचार अभियान की कमान अखिलेश ने अकेले अपने हाथ में ले रखी है. अभी तक उन्होंने नेताजी के साथ कहीं भी मंच नहीं शेयर किया है. मुलायम सिंह यादव ने भी सिर्फ जसवंतनगर में शिवपाल और लखनऊ कैंट में अपर्णा यादव के लिए प्रचार किया है. पार्टी से जुड़े लोगों का कहना है कि अभी मुलायम सिंह यादव की कोई खास रैली भी प्रस्तावित नहीं है.
अरुण त्रिपाठी कहते हैं, ‘मुलायम सिंह यादव अपने ईगो की लड़ाई में बेटे से सत्ता संघर्ष करने लगे और अपनी ही पार्टी के भीतर मुखिया बनने के लिए लड़ने लगे. अंजाम यह हुआ कि वो जसवंतनगर के चौधरी बनकर रह गए हैं. अब उनकी बात बस उनके गांव-जवार के लोग सुन रहे हैं.’
समाजवादी पार्टी के स्टार प्रचारकों की सूची में मुलायम का नाम तो है पर विधायक प्रत्याशी उन्हें बुलाने से परहेज कर रहे हैं. अखिलेश यादव इस समय उनकी प्राथमिकता में हैं.
सपा से लंबे समय से जुड़े पार्टी कार्यकर्ता रामजस यादव कहते हैं, ‘नेताजी गलत लोगों के चंगुल में फंस गए हैं. उन्होंने लंबा संघर्ष किया है लेकिन अब उनकी उम्र हो गई है. उन्हें शिवपाल, अमर सिंह और जया प्रदा जैसे नेताओं के चक्कर में नहीं फंसना चाहिए. उनकी विरासत अखिलेश अच्छे से संभाल रहे हैं. उन्हें इस बात का सुकून होना चाहिए.’
प्रधान कहते हैं, ‘मुलायम सिंह के लिए बेहतर यही होगा कि पार्टी में उन्हें जिस पद पर रखा गया है. वह उसकी जिम्मेदारी निभाएं. वह उल्टे-सीधे बयान देकर चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं.’