उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाया गया ‘लव जिहाद’ कानून और कुछ नहीं मनुस्मृति का ही नया रूप है, जो महिलाओं को समुदाय की संपत्ति मानकर ग़ुलाम बनाता है और संघर्षों से हासिल किए हुए अधिकारों को फिर छीन लेना चाहता है. यह जितना मुस्लिम विरोधी है, उतना ही हिंदू महिलाओं और दलितों का विरोधी भी है.
हाल ही में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020‘ को मंजूरी दी गई है. इस अध्यादेश के द्वारा दूसरे धर्म में अपनी मर्जी से प्यार और शादी करने वालों को अपराध के श्रेणी में ला दिया गया.
इस नियम के तहत धर्म परिवर्तन करके शादी करने वाले जोड़े को 5-10 वर्ष तक की सजा मिल सकती है. उम्मीद है कि जल्द ही अध्यादेश कानून का रूप ले लेगा.
इसी के साथ कई और राज्य भी जैसे कर्नाटक और मध्य प्रदेश इस बिल को जल्द ही विधानसभा से पास करने के लिए आतुर है.
इस कानून में एक बात जो गौर करने वाली है वो ये है कि इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति से आने वाले लोगों, खासकर महिलाओं के लिए प्रेम और अपनी मर्जी से साथी चुनने का रास्ता और भी कठिन होने वाला है.
क्योंकि इन जातियों से आने वाला कोई अगर शादी के समय धर्म परिवर्तन करता है, तो उसके साथी और शादी में मदद करने वाले अन्य लोगों के लिए सजा का प्रावधान और भी कठोर है.
इस कानून के तहत महिला के माता, पिता, बहन, भाई या कोई भी रिश्तेदार भी तथाकथित रूप से उसे जबरन धर्म परिवर्तन यानी ‘लव जिहाद’ से बचाने के लिए प्राथमिकी दर्ज करा सकते हैं.
यहां सवाल यह उठता है की यदि आप महिला को सशक्त बनाना चाहते हैं तो सिर्फ महिला को ही यह अधिकार क्यों नहीं दे देते?
‘मिशन शक्ति’ (उत्तर प्रदेश में महिलाओं के सुरक्षा के लिए योगी द्वारा चलाया गया अभियान) तो महिलाओं को सशक्त करने के लिए बना था न? तब फिर एफआईआर दर्ज करने की शक्ति महिला को ही दे देते!
महिला के साथ अगर जबरन धर्म परिवर्तन हो रहा है, तो आखिर महिला खुद ही तो एफआईआर दर्ज कर सकती है. अगर वह अपने मर्जी से ये सब कर रही है, तो वह एफआईआर दर्ज नहीं करेगी.
पर मसला तो यही है कि यह अधिनियम महिला की मर्जी के खिलाफ हथियार ही तो है! महिला के रिश्तेदारों को एफआईआर दर्ज करने का अधिकार देने का मतलब है कि महिला को परिवार और समुदाय की संपत्ति मानना.
और महिला अपनी मर्जी से धर्म बदलती है या जीवनसाथी चुनती है, तो इसे संपत्ति की चोरी यानी ‘लव जिहाद’ मानना.
तभी तो देखा जा रहा है कि यूपी पुलिस ने नए कानून के तहत जितने केस दर्ज किए हैं, अधिकतर में बालिग महिलाएं चीख-चीखकर कह रही हैं कि हमने मर्जी से प्रेम और शादी की है. हिंसा तो महिलाओं की मर्जी पर ही हो रही है इस कानून के तहत.
महिला को समुदाय की संपत्ति मानना, उसे स्वायत्तता के लायक न समझना- आखिर इस संस्कृति की जड़ें कहां हैं? जवाब है मनुस्मृति और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में.
बाबा साहेब आंबेडकर ने भारत के संविधान में महिलाओं के बराबरी और आज़ादी को स्वीकार किया. हिंदू कोड बिल पारित करवाकर हिंदू महिलाओं को मनुस्मृति से कानूनी मुक्ति दिलवाई. पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग मनु के कानून यानी मनुस्मृति को ही अपना असली संविधान मानते हैं.
नवंबर 30, 1949 में संघ के अंग्रेज़ी मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में बाबा साहेब के संविधान के खिलाफ संपादकीय छपा, यह कहते हुए कि ‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी चीज़ यही है कि उसमें भारतीय कुछ भी नहीं है. इस नए संविधान में प्राचीन भारत की अनोखी उपलब्धि (यानी मनुस्मृति) का कोई ज़िक्र नहीं है. मनुस्मृति के कानूनों को पूरी दुनिया में स्वतःस्फूर्त स्वीकृति और आज्ञाकारिता प्राप्त हुई है: पर हमारे संविधान के पंडितों के लिए यह सब कोई मायने नहीं रखता.’ इसे पढ़कर साफ हो जाता है कि
‘संविधान के पंडित’ कहकर बाबा साहेब पर ही कटाक्ष किया गया है: आखिर यह बाबा साहेब ही तो थे जिन्होंने मनुस्मृति को दलितों और महिलाओं के लिए गुलामी का दस्तावेज बताकर 25 दिसंबर 1927 को सार्वजनिक रूप से जलाया था.
आज मोदी राज में सत्ता पाकर संघ के लोग संविधान को खत्म करके मनुस्मृति को स्थापित करने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं.
‘लव जिहाद’ कानून और कुछ नहीं मनुस्मृति का ही नया संस्करण है, जो महिलाओं को समुदाय की संपत्ति मानकर गुलाम बनाता है और संघर्षों से हासिल किए हुए अधिकारों को फिर छीन लेना चाहता है. यह जितना मुस्लिम विरोधी है, उतना ही हिंदू महिलाओं और दलितों का विरोधी है.
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कुमकम संगारी अपने एक लेख में लिखती हैं कि पितृसत्ता एक ऐसा केंद्र बिंदु है जहां नस्लवाद, जातिवाद, फासीवाद और संप्रदायवाद का सहज मिलन होता है. ‘लव जिहाद’ कानून इस सच का साक्षात उदाहरण है.
उमा चक्रवर्ती अपनी पुस्तक ‘जेंडरिंग कास्ट थ्रू द फेमिनिस्ट लेंस’ में इस बात को लिखती हैं कि हिंदू धर्मशास्त्रों में जाति और वर्ण पर आधरित सामाजिक संरचना का विकास किया गया, जिसमे कुछ लोगों को ऊंचा कुछ को नीचा तथा कुछ को पवित्र और कुछ को अपवित्रता की श्रेणी में डाला गया.
इसी ऊंच-नीच की संरचना को बनाए रखने के लिए सजातीय (endogamy) विवाह का रिवाज़ शुरू किया और इस तरह से जातिगत भेद को बनाए रखने में उनको सहयोग मिला.
इस प्रकार अरेंज मैरिज एक औजार की तरह था, जिसके द्वारा जातिगत भेद और स्तरीकरण को कायम रखा जा सकता था. एक ही जाति में विवाह को बढ़ावा दिया गया ताकि वंश परंपरा को बनाए रखा जा सके और इस तरह से ऊंची जाति की समाज में ऊंची, मजबूत और प्रभुत्वशाली पहचान भी बनी रहे.
और इस तरह से सजातीय विवाह करके महिलाओं से ये उम्मीद कि गई कि वो पवित्रता और अपवित्रता के नियमों को बनाए रखें और अपने वंश परंपरा को आगे बढ़ाएं. इस पूरी कि पूरी व्यवस्था को ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ का नाम दिया गया.
इस तरह कि जातिवादी व्यवस्था और ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ ने जाति और वर्ण व्यवस्था के सबसे शीर्ष पर बैठे कुछ लोगों के लाभ के लिए काम किया.
यही कारण है कि ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ ने महिलाओं कि सेक्सुअलिटी (sexuality) को हमेशा से नियंत्रित करके रखा ताकि उनका शुद्ध ब्लड यानी जाति में उनका ऊंचा स्थान, पवित्रता और वर्चस्व बना रहे. एक तरह से उन्होंने ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ करके अपनी तथाकथित शुद्धता का आचरण बनाए रखा.
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उमा चक्रवर्ती कहती हैं कि वर्ग, जाति और जेंडर का सवाल आपस में जुड़ा हुआ है. ये तीनों ही आपस में अंतःक्रिया स्थापित करते हैं और एक दूसरे के स्वरूप का निर्धारण करते हैं.
विवाह संरचना, लैंगिगता और प्रजनन जाति व्यवस्था के मौलिक आधार हैं. यह मौलिक रूप से असमानता को बनाए रखने के तरीके हैं. विवाह संरचना वर्ग और जाति पर आधारित असमानता को न केवल बढ़ाती है बल्कि उत्पादन व्यवस्था को भी नियंत्रित करती है.
यही कारण है कि स्वतंत्र भारत में जब भी बाबा साहेब ने महिलाओं के उत्थान के लिए संविधान में बराबरी का अधिकार देने की बात की, तो बहुत से जातिवादी लोगों ने खुले और छुपे रूप में हमेशा विरोध किया.
बाबा साहेब ने जब हिंदू कोड बिल के द्वारा न केवल दलित महिलाओं को बल्कि पूरे महिला समाज के लिए समाज में बराबरी की बात की तो ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले लोगों ने पुरजोर कोशिश की कि लंबे समय से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था को कोई ठेस न पहुंचे.
बाबा साहेब को अंततः कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा.
जिस समय संघ का मुखपत्र कह रहा था कि हिंदू महिलाओं को अधिकार और आज़ादी देने वाले हिंदू कोड बिल से महिलाओं में ‘मानसिक बीमारी’ पैदा हो जाएगी (ऑर्गनाइज़र, फरवरी 6, 1950; पाओला बैचेटा, जेंडर इन थे हिंदू नेशन: आरएसएस विमन ऐज़ इडीयोलॉग्ज़, 2004) उसी समय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की ‘महिला आत्मरक्षा समितियां’ हिंदू कोड बिल के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाने सड़कों पर निकलीं और संघ के मनुवादी ताकतों का मुकाबला करती हुईं जन प्रदर्शनों का भी आयोजन किया. (रेणु चक्रवर्ती, ‘भारतीय महिला आंदोलन में कम्युनिस्टों की भूमिका’, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, 1983)
वेलेरियन रोड्रिग्स अपनी पुस्तक ‘दलित बहुजन डिस्कोर्स’ में इस बात को दर्शाते हैं कि स्वाभिमानयआत्मसम्मान दलित बहुजन डिस्कोर्स का अभिन्न और केंद्रीय सरोकार रहा है क्योंकि जाति विभाजित समाज में जाति पर आधारित पद्सोपान व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के आत्मसम्मान को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई गई है.
वास्तव में उनको उन सब स्रोतों से भी अलग रखा गया, जो उनके आत्मसम्मान के विकास में आवश्यक होते. अतः ये ब्राहमणवादी व्यवस्था व्यक्ति के आत्मसम्मान की सबसे बड़ा दुश्मन है क्योंकि इस व्यवस्था में ही निहित है कि कुछ लोगों को हीन और कुछ को श्रेष्ठ होने का भाव पैदा होगा.
वे आगे लिखते हैं कि केवल ब्राह्मण ही ब्राह्मणवाद को नहीं उत्पन्न करते बल्कि वे सब लोग जो ब्राहमणवादी नक्शेकदम पर चलते हैं, उसे जीते हैं, चाहे वो अछूत ही क्यों न हो ब्राह्मणवाद की सोच को बढ़ावा देते हैं.
महिलाओं के आज़ादी के प्रति दकियानूसी रवैया सभी जातियों में दिखलाई पड़ता है. इसी का फायदा उठाकर संघ परिवार और भाजपा दलितों को भी बहलाने की कोशिश करती है कि आपकी बेटियों को मुस्लिम लड़कों से प्यार हो जाने यानी ‘लव जिहाद’ से खतरा है.
4 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह ने पश्चिमी यूपी के बिजनौर में दलितों को संबोधित करते हुए इशारा किया था कि मायावती ने उस समुदाय के लोगों को 19 टिकट दिए हैं ‘जो बहन-बेटियों की आबरू पर हाथ डालता है.’
उस समय मायावती ने 19 मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए थे, इसलिए शाह साफ-साफ मुसलमानों को ही बलात्कारी बता रहे थे. इस भाषण में शाह 2019 में पश्चिमी यूपी के दंगों के तरफ इशारा कर रहे थे – इन मुस्लिम विरोधी दंगों का बहाना ‘लव जिहाद’ का हौवा ही था.
विडंबना यह है कि देश भर में दलित लड़कों और पुरुषों को गैर दलित लड़कियों महिलाओं से प्यार करने पर इसी तरह के नफरत और हिंसा का सामना करना पड़ता है.
और तथाकथित ‘जबरन धर्म परिवर्तन’ के खिलाफ बने सभी कानून भी ज़्यादातर दलितों आदिवासियों के खिलाफ ही होते हैं.
बाबा साहेब ने कहा था कि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ पर हिंदू धर्म में मारूंगा नहीं, और उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया. हिंदू धर्म और मनुवाद से कुछ हद तक मुक्ति की तलाश में इस्लाम, ईसाई या बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलितों आदिवसियों की मर्जी के खिलाफ ब्राह्मणवादी हथियार हैं ये कानून.
उसी तरह ‘लव जिहाद’ और ‘जबरन धर्म परिवर्तन’ की आड़ में यूपी का नया कानून महिलाओं की मर्जी के खिलाफ, अंतरजातीय, अंतरधार्मिक प्रेमी जुगलों की मर्जी के खिलाफ ब्राह्मणवादी हथियार है.
हर वर्ष हरियाणा, बिहार यूपी से लेकर तमिलनाडु तक न जाने कितने दलित पुरुषों की हत्या की जाती है, प्यार करने के ‘जुर्म’ में.
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ऐसे में जब यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भाषण में लव जिहाद कानून की घोषणा करते हुए कहते हैं कि ‘लव जिहाद करने वालों का राम नाम सत्य हो जाएगा,’ तो समझ लेना चाहिए कि यह धमकी मुसलमानों के लिए तो है ही, दलितों के लिए भी है और हिंदू महिलाओं के लिए भी.
मनुवादी पितृसत्ता के बर्बर नियमों को तोड़कर प्रेम करने वाले सभी लोगों को जान की धमकी दे रहे हैं योगी और उनका ‘लव जिहाद’ कानून.
प्यार करने की, जीवन साथी तय करने की आज़ादी, हमारी इंसानियत की पहचान है.
इस आज़ादी पर वार करने वाले मनुस्मृति के कानून, हिटलर के नस्लवादी ‘न्यूरेम्बर्ग कानून,’ अमेरिका के ‘जिम क्रो कानून’ और दक्षिणी अफ्रीका के अपारथाइड कानून (जो अलग-अलग जाति/धर्म/नस्ल/रंग के लोगों में प्रेम संबंध और विवाह पर रोक लगाने के लिए बने थे) पर आज दुनिया थू-थू करती है.
भाजपा आज ऐसे ही कानूनों को इक्कीसवीं सदी के भारत में अंजाम देना चाहती है. बाबा साहेब ने ठीक ही कहा था की ‘हिंदू राज’ अगर बना तो भारत के लिए सबसे बड़ा आपदा साबित होगा.
हिंदू राज, हिंदुओं के वर्चस्व वाला राज होगा- और धार्मिक वर्चस्व के आधार पर बना कोई भी राज हमेशा महिला विरोधी होता है.
भारत में हिंदू वर्चस्व का मतलब होगा मनुवाद का राज- और यह महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के खिलाफ तो होगा है, हर नागरिक की आज़ादी के खिलाफ होगा, तानाशाही राज होगा, जिसमें प्रेम करने और जीवनसाथी तय करने तक की आज़ादी नहीं होगी!
आज ज़रूरत है कि महिला और दलित-आदिवासी-बहुजन आंदोलन की सभी धाराएं, संविधान के पक्ष में खड़े सभी नागरिक आंदोलन, वाम लोकतांत्रिक आंदोलन की ताकतें एकजुट होकर ‘लव जिहाद’ के झूठ पर टूट पड़ें और इसके नाम पर बन रहे कानूनों को सिरे से खारिज करते हुए इन्हें मानने से इनकार करें.
(लेखक जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व महासचिव और वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)