सिगरेट-शराब पीने और सेक्स को आज़ादी का प्रतीक मानने के पुराने, बार-बार आजमाए जा चुके नुस्खे के साथ यह फिल्म इस पितृसत्तात्मक समझ का ही प्रसार करती है कि औरतें झूठी और बेवफा होती हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि लिपस्टिक अंडर माय बुरक़ा भारत के हिसाब से एक बोल्ड फिल्म है. इसमें औरतों को सेक्स की ख्वाहिशमंद, इसका आनंद लेते हुए, शोषण से आज़ादी की तलबगार, बेहिचक कश खींचने और शराब पीने की आज़ादी की तलाश करते हुए, नौकरी के मौके खोजते और उसमें बेहतर करने की तमन्ना पाले हुए दिखाया है. इसमें ऐसा क्या है जिसकी आलोचना की जाए?
इस फिल्म को लेकर फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड की बेहद अजीब टिप्पणियों को छोड़ कर, जिन्हें अनगिनत बार दोहराया जा चुका है, फिर भी जिन्हें वाकई बार-बार दोहराए जाने की ज़रूरत है ताकि उनकी पहाड़ जैसी मूर्खता हमें याद आती रहे, इस फिल्म की खूब तारीफ हुई है और इसे कई पुरस्कारों से नवाजा भी जा चुका है.
फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड का नेतृत्व कर रहे मुंहजोर पुरुषवादी पहलाज निहलानी ने इस साल जनवरी महीने में फिल्म की रिलीज की इजाज़त देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि ‘इस फिल्म की कहानी स्त्री से जुड़ी और जीवन के परे वासना (फेंटैसी) को लेकर है. इस फिल्म में सेक्स के संक्रामक दृश्य, गाली-गलौज वाली भाषा, पोर्नोग्राफी ऑडियो और समाज के एक खास तबके का संवेदनशील चित्रण है.’
समीक्षकों ने इसे ‘ज़रूर देखने लायक फिल्म’, ‘समाज को आईना दिखानेवाली’, ‘स्त्री का सशक्तीकरण’, ‘बेखौफ स्त्रीवादी’ आदि विशेषणों से नवाजा है. निश्चित तौर पर इनमें काफी कुछ से इत्तेफाक रखना होगा. इसमें अभिनय बढ़िया है, बल्कि कुछ मौकों पर तो यह बेहद शानदार है. अलंकृता श्रीवास्तव (जो इस फिल्म की लेखिका भी हैं) अपने निर्देशन से दर्शकों को चौंकाने की जगह हास्यबोध के साथ ही करुणा भी जगाती हैं.
लेकिन निडर स्त्रीवादी और पूरी तरह से स्त्री सशक्तीकरण की बात करनेवाली कहानी, खुद क्या कहती है?
एक स्त्रीवादी बयान के तौर पर देखें, तो यह एक त्रासदी की तरह है. इस फिल्म की चारों औरतें सबसे छिपाकर अपने-अपने सपनों का, चाहे यह सपना कुछ भी हो, पीछा करती हैं. चाहे वह उषा बुआजी (रत्ना पाठक शाह, जो अपने कुशल अभिनय के कारण इस फिल्म में अलग से जगमगाती हैं) और 55 साल की उम्र में उनकी काम-जागृति हो या अपने अभिभावकों द्वारा लादे गए बुर्के से बाहर निकलकर कॉलेज की ज़िंदगी जीने की इच्छा रखनेवाली जवान रेहाना (प्लबिता बोरठाकुर) हो या अपने तानाशाह, बदज़बान, धोखेबाज पति से सेल्सवुमन की अपनी नौकरी छिपानेवाली शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा ) हो या लीला (आहना कुमरा) हो, जिसका एक बॉयफ्रेंड है और जिसके सपनों में अरेंज्ड मैरिज शामिल नहीं है- खुद को पाने की ये सारी कोशिशें बुर्के के रूपक के भीतर होती हैं.
ये औरतें भले अपनी गोपनीय जिंदगियों में मजबूत और खिलंदड़ हों, लेकिन अपनी घुटनभरी वास्तविक जिंदगियों में आज़ादी और सशक्तीकरण के लिए ये लगभग कोई कोशिश नहीं करती हैं. ऐसा लगता है कि मर्दों और इस समाज द्वारा नियंत्रित और बंधी हुईं इन औरतों के पास थोड़ा सा भी साहस नहीं है: वे पितृसत्ता की बेड़ियों को चुनौती देने के लिए अपनी ज़बान से एक शब्द भी नहीं निकालतीं.
इस तरह से देखें, तो यह फिल्म भारत की महिलाओं के लिए निराशा का प्रकाशस्तंभ है. अगर 21वीं सदी के दूसरे दशक में भोपाल में एक ही मकान में रहनेवाली इन चार औरतों में से एक भी अपने परिवार या दोस्तों के सामने भी अपने गुस्से, आक्रोश या हताशा का खुल कर इज़हार नहीं कर सकती, तो फिर इस देश की औरतों के लिए नाउम्मीदी के अलावा और क्या बचता है?
इससे भी ख़राब ये है कि वे जो करना चाहती हैं, वह (फिल्म के अनुसार) सिर्फ झूठ के सहारे ही किया जा सकता है. सिगरेट पीने, शराब पीने और सेक्स को आज़ादी का प्रतीक मानने के पुराने पड़ चुके, बार-बार आजमाए जा चुके नुस्खे के साथ यह फिल्म इस पितृसत्तात्मक समझ का ही प्रसार करती हैं कि औरतें झूठी और बेवफा होती हैं.
निश्चित तौर पर फिल्मकार के रचनात्मक विजन पर बहस करना सही नहीं है, जिस पर सिर्फ उसका अधिकार है, लेकिन इस बात की गुंजाइश ज़रूर है कि हम इस फिल्म को स्त्रीवादी मास्टरपीस करार देनेवाले निष्कर्षों पर सवाल उठाएं.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में आज भी पितृसत्ता काफी मजबूत है. शायद यह बात भी समझ में आनेवाली है कि छोटे शहरों में रहने वाला भारत बड़े शहरों में रहने वाले भारत से कुछ दशक पीछे है. लेकिन पहले से तय कैद और बोरियत से छुटकारा पाने के लिए चार महिलाओं की कोशिशें जानी-पहचानी और घिसी-पिटी हैं.
ये सच है कि जवान लड़कियों में सिगरेट पीने का चलन बढ़ा है. लेकिन, अगर बहुत पहले आनेवाले वर्जिनिया स्लिम्स के विज्ञापन की तर्ज पर कहें तो ‘क्या हमने सचमुच लंबी दूरी तय की है?’ (वर्जिनिया स्लिम्स सिगरेट को 1968 में कामकाजी महिलाओं को ‘यू हैव कम अ लॉन्ग वे बेबी’ नारे के साथ बेचा गया था.)
और सवाल यह भी है कि आखिर हम कहां पहुंचे हैं? प्रतिभाशाली औरतों का वापस वहां जाना वास्तव में दुखद है, लेकिन इससे भी ख़राब है कि वे इसके अंजामों से अनजान हैं. शायद ऐसा जानबूझ कर नहीं किया गया है, लेकिन बुर्क़ा, जिसे यहां शोषण और गोपनीयता के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, वह झूठ बोलने और चोरी करने का जरिया भी बन जाता है.
तरक्की से बस एक कदम दूर एक कामयाब सेल्सवुमन शिरीन को जब यह एहसास होता है कि उसका बदज़बान पति उसे धोखा दे रहा है, तो वह ‘दूसरी औरत’ का पीछा करती है, लेकिन अपने पति से कुछ नहीं कहती. अपने स्त्रीवाद में वह पितृसत्ता के सामने घुटने टेक देती है. जहां तक स्त्रीवाद का सवाल है, तो उसकी लाज उषा बुआजी बचाती हैं, जो बिल्डिंग की मालकिन है और एक कामयाब कारोबारी हैं. लेकिन उन्हें भी वह नौजवान सबके सामने बेइज्ज़त करता है, जिसे वे पसंद करती हैं.
मानवीय दृष्टि से और भी ख़राब बात यह है कि ये औरतें जिन मर्दों से घिरी हैं, वे सब पूर्वाग्रह की जंजीरों से बंधे हुए हैं. इन चार औरतों को एक भी ऐसा इंसान नहीं मिलता, जो उनके साथ खड़ा हो सके. हां, उनके चारों ओर ज़्यादा आज़ाद लोगों की झलक ज़रूर मिलती है. लेकिन बस झलक ही मिलती है. शायद वे स्त्रीवाद की आइकॉन हैं, हालांकि, इनमें से भी कुछ सिगरेट-शराब-प्रेगनेंसी-अबॉर्शन के स्त्री सशक्तीकरण के रास्ते की शिकार हो जाती हैं.
शोषक समाजों में भी मजबूत औरतें और पुरुष सामने आते हैं. अगर ऐसा नहीं होता, तो औरतें उस मुकाम पर नहीं होतीं, जहां वे आज हैं.
एक उम्रदराज होती स्त्रीवादी होने के नाते मेरे लिए यह दुखद बात थी कि लिपस्टिक अंडर माय बुरक़ा ने मुझे कुछ दशक पीछे पहुंचा दिया क्योंकि इसने ऐसी औरतों के अस्तित्व का कोई संकेत नहीं दिया. बजाय इसके (फिल्म की) औरतों का व्यवहार वैसा ही था, जैसा व्यवहार करने के लिए उन्हें पुरुष सदियों से कहता आया है. यानी बगैर साहस और सम्मान के. मेरी नजर से यह पितृसत्ता को सबसे ख़राब तरीके से संरक्षण देने के समान है.
रंजोना बनर्जी स्वतंत्र पत्रकार हैं.
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