जब कुछ ख़ास व्यापारिक प्रतिष्ठानों का एकाधिकार स्थापित हो जाएगा, तब क़ीमतें सरकार और किसान नहीं, बड़ी कंपनियां तय करेंगी.
भारत, भारत के बाजार और भारत के लोगों के लिए 10 से 13 दिसंबर 2017 की तारीखें बहुत मायने रखती हैं. आपको लग रहा होगा कि इन तारीखों में तो क्रिकेट विश्वकप भी नहीं है, न ही चुनावों के कोई परिणाम आने वाले हैं.
वास्तव में ये तारीखें अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में होने वाली विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की ग्यारहवीं मंत्रिस्तरीय बैठक की हैं. जहां यह तय होने वाला है कि क़तर की राजधानी दोहा से वर्ष 2001 में शुरू हुए दोहा विकास दौर में तय एजेंडे के मुताबिक खाद्य सुरक्षा और किसानों के हितों को संरक्षित करने की नीतियां लागू करने की आज़ादी बची रहेगी या खत्म कर दी जाएगी.
जिस तेजी से वैश्विक व्यापार को खोलने की तैयारी हो रही है, उससे भारत की दालों, दूध और दूध उत्पाद, अनाज, फलों और खाने के तेल पर सबसे ज्यादा असर होगा. वैश्विक स्तर पर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय (बायलैटरल और मल्टीलैटरल एग्रीमेंट्स) व्यापार के लिए व्यापार शुल्कों (मुख्यतः आयात शुल्क) को न्यूनतम करने का भारत पर बहुत दबाव है.
यदि कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क और कम किया गया, तो भारतीय किसानों के सामने और गहरा संकट खड़ा हो जाएगा. हमें यह समझना होगा कि नीति बनाने वाले विशेषज्ञ किसान और उपभोक्ता को एक-दूसरे का दुश्मन बना रहे हैं.
यह प्रचार किया जा रहा है कि विश्व व्यापार संगठन और क्षेत्रीय व्यापार अनुबंधों से खुला आयात होने पर खाने का तेल, दालें, दूध और इससे बने उत्पाद सस्ते मिलेंगे; जबकि यह पूरा सच नहीं है. जब कुछ खास व्यापारिक प्रतिष्ठानों का एकाधिकार स्थापित हो जाएगा, तब कीमतें सरकार और किसान नहीं, बड़ी कंपनियां तय करेंगी.
इसके दूसरी तरफ विकसित देशों और बड़े अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों ने कृषि उत्पादों के लिए गुणवत्ता के मानक इतने ऊंचे तय किये हैं कि वहां भारतीय उत्पादों को खड़े होने के लिए स्थान भी नहीं मिलेगा. और भारत में कृषि के लिए राज सहायता कम होने के कारण उत्पादन की लागत भी ज्यादा होती है, इसलिए भारत के उत्पादक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपनी ऊंची कीमत के कारण व्यापार नहीं कर पाएंगे. एक तरह से भारत बाज़ारवाद का उपनिवेश बनने की तरफ अग्रसर है.
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि 3 से 6 दिसंबर 2013 को बाली (इंडोनेशिया) में सभी देशों को यह तय करना था कि कृषि और खाद्य सुरक्षा रियायतों का स्वरूप और आकार सीमित किया जाए; परन्तु इसका सीधा असर किसानों और समाज के गरीब-वंचित तबकों पर पड़ने वाला था; अतः भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने डब्ल्यूटीओ के इस समझौता प्रस्ताव को नहीं माना.
बहरहाल यह तय हुआ कि इस पर संवाद-चर्चा जारी रहेगी; अब यह मसला बहुत गंभीर हो चुका है. अब तक इस विषय पर समझौता न होने के कारण अमेरिका और अन्य अमीर-औद्योगिक देश भारत को ‘बाधक इकाई’ के रूप में प्रचारित करने लगे हैं. सच तो यह है कि भारत को अपने कृषि और समाज के हितों को सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण है.
बाली की बैठक में यह तय होना था कि जो भी देश डब्ल्यूटीओ में तय होने वाले सब्सिडी ताने-बाने के अनुरूप लोक भंडारण और खाद्य सुरक्षा के लिए राज सहायता में कमी नहीं लाएंगे, उनके खिलाफ प्रतिबंधात्मक कार्यवाही की जाएगी.
जब बाली में भारत समेत कुछ देशों ने उस समझौते को स्वीकार नहीं किया, तब एक सुलह वाक्यांश (पीस क्लॉज़) पर सहमति बनी कि जब तक कृषि और खाद्य सुरक्षा से संबंधित समझौते पर अंतिम निर्णय नहीं हो जाता है, तब तक कोई भी देश, खाद्य सुरक्षा के लिए दी जा रही सब्सिडी के सन्दर्भ में किसी अन्य देश पर कानूनी या प्रतिबंधात्मक कार्यवाही नहीं करेंगे.
इसी तरह केन्या की राजधानी नैरोबी (दिसंबर 2015) की बैठक में विशेष सुरक्षा तंत्र (स्पेशल सेफगार्ड मैकेनिज़्म) पर प्रतिबद्धता जताई गई कि कीमतों की उथल-पुथल या शुल्कों में कमी के कारण आयात बढ़ने की स्थिति में घरेलू उद्योगों और खेती को बचाने पहलकदमी का विकल्प मौजूद रहेगा.
यह निर्णय ब्यूनस आयर्स में हो ही जाए, इस पर भारत की तरफ से भी अब बहुत जद्दोजहद हो रही है, क्योंकि भारत ने स्थानीय हितों को ताक पर रखते हुए कृषि और खाद्य सुरक्षा सब्सिडी में बहुत कटौती कर कर दी है और वह एक रणनीति के रूप में विकसित-बड़े बाजार वाले देशों को सब्सिडी कम करने के लिए बाध्य करना चाहता है.
18 जुलाई, 2017 को इसी कूटनीतिक प्रक्रिया के तहत भारत की वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन जिनेवा (स्विटज़रलैंड) गईं, वहां डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक रोबर्टो अजेवेदो के साथ बैठक कर उन्होंने कृषि और खाद्य सुरक्षा पर विकृत रियायत के अनसुलझे मसले पर अंतिम निर्णय किए जाने की बात कही.
जिनेवा में भारत की वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमन (जो डब्ल्यूटीओ की बैठक के लिए वहां थीं) ने कहा कि हमें 2015 की नैरोबी की बैठक से सबक लेते हुए निर्णय लेने की अपारदर्शी प्रक्रिया को बदलना चाहिए ताकि ज्यादातर सदस्य देश निर्णय प्रक्रिया से बहिष्कृत न हो जाएं.
इस मर्तबा मंत्रिस्तरीय बैठक के पहले ही तैयारी बैठक में मारकेश में सभी पहलुओं पर बात होगी ताकि मसौदे को ब्यूनस आयर्स में सहमति के लिए ही सामने रखा जाए, न कि वहां बुनियादी मुद्दों पर बहस की जमीन तलाशी जाए.
महत्वपूर्ण बात यह है कि सीमारेखा पर गहरे तनाव के बावजूद डब्ल्यूटीओ में खेती और खाद्य सुरक्षा के मसले पर भारत और चीन एकजुट हैं. इनके बीच व्यापार और सब्सिडी पर एक साझा परचा लाने के बारे में चर्चा जारी है.
17 जुलाई 2017 को भारत और चीन ने एक साझा पर्चे में एग्रीगेट मेजरमेंट सपोर्ट (जिसमें कहा गया है कि विकृत सब्सिडी में खाद, बिजली, सिंचाई, कृषि क़र्ज़ और न्यूनतम समर्थन मूल्य से गुणित विश्व बाज़ार की कीमतों, घरेलू बाज़ार की कीमतों को शामिल किया जाएगा) को हटाने की बात को ब्यूनस आयर्स में कृषि-खाद्य सुरक्षा सब्सिडी पर अंतिम निर्णय की शर्त न माना जाए.
महत्वपूर्ण बात यह है कि विकसित और औद्योगिक देश अब आक्रामक रूप से कोशिश कर रहे हैं कि इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्य, छोटे और मझौले व्यापारिक उद्यमों को नियंत्रित करने और निवेश सुविधा से सम्बंधित शर्ते लागू की जाएं; भारत अभी इन शर्तों से सहमत नहीं है.
मतलब साफ़ है कि ये शर्तें देश में विनिर्माण और घरेलू उत्पादन (मेक इन इंडिया) सरीखे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों को तहस-नहस कर देंगी. इससे खुदरा स्थानीय बाज़ार भी गहरे तक प्रभावित होगा.
डब्ल्यूटीओ की सैद्धांतिक मान्यता यह है कि दुनिया के कई देश कृषि बाज़ार को विकृत करने वाली रियायत (राज सहायता) देते हैं, जिससे बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के लिए समतल मैदान नहीं बन पाता है. किन्तु वास्तविकता यह है कि खेती के हर चरण, प्रक्रिया और व्यापार को कुछ खास देशों, लोगों और समूहों के हाथ में केंद्रित करवा देना इसका बड़ा मकसद है.
जरा सोचिए कि कुछ देश ऐसे हैं, जहां कौशल की कमी है, उर्जा की उपलब्धता नहीं है, सिंचाई कम है, सूचना प्रौद्योगिकी कमज़ोर है और आर्थिक पूंजी का भी अभाव है और वे पारंपरिक खेती करना चाहते हैं; वे देश अमेरिका या यूरोप या चीन से प्रतिस्पर्धा कैसे करेंगे, जहां ये सब साधन देने में सरकार पहले ही बहुत रियायत और सहायता देती रही है. भारत के किसान के सामने खड़ी चुनौती के उदाहरण देखिए-
भारत में वर्ष 2016 (दूसरी तिमाही) में चने का थोक मूल्य 5599 रुपये प्रति क्विंटल था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमत 5185 रुपये थी. मक्का का भारतीय बाजार मूल्य 1504 रुपये था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मूल्य 1145 रुपये था.
मसूर की भारतीय थोक कीमत 6690 रुपये क्विंटल थी, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में यह 6030 रुपये थी. सरसों तेल की भारतीय कीमत 8340 रुपये थी, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमत 5391 रुपये रही. मूंगफली की भारत में कीमत 4176 रुपये प्रति क्विंटल थी, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में यह 2789 रुपये थी. सोयाबीन का भारत में मूल्य 6924 रुपये था, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 5438 रुपये था.
स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों में यह अंतर सरकार द्वारा दी जाने वाली रियायत और संरक्षण से प्रभावित होने वाली उत्पादन की लागत के कारण आता है. भारत में अभी विकसित देशों की तुलना में कृषि सब्सिडी बहुत कम है.
जरा देखिए कि अमेरिका में वर्ष 2015 में कुल मिलकर 31.80 लाख लोग खेती कर रहे थे. इन्हें अमेरिकी सरकार ने 25000 मिलियन डालर की सब्सिडी दी. यानी एक किसान को औसतन 5.11 लाख रुपये (7860 डालर) की सब्सिडी मिली.
जबकि भारत सरकार ने वर्ष 2014 में 9.02 करोड़ किसानों के लिए सब मिलाकर (शोध, कीट उपचार, प्रशिक्षण, परामर्श सेवाएं, विपणन, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सरकारी खरीदी, सिंचाई, उर्वरक और बिजली) औसतन 27100 रुपये (417 डालर) प्रति कृषक की राज सहायता की है.
इसमें से शोध, विपणन इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर खर्च की गई राशि भी जोड़ दी जाए तो किसानों को 456 डालर (कुल 41189.61 मिलियन डालर) की राज सहायता मिली. जबकि ब्रिटेन ने 23.77 लाख रुपये (28300 पाउंड), जापान 9.19 लाख रुपये (14136 डालर), न्यूजीलैंड 1.71 लाख रुपये (2623 डालर) की सब्सिडी दे रहे हैं.
जरा सोचिए कि वर्ष 2015 में ब्रिटेन के किसान की कमाई 2100 पाउंड थी, इसमें सब्सिडी के जरिये 28300 पाउंड जोड़े गए.
वर्ष 2011-12 से 2013-14 के बीच भारत ने कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए रियायत में 18918 करोड़ रुपये की कमी की है. ऐसे में बिना राज सहायता के भारत का किसान अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कहां खड़ा होगा?
जब भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के मंच पर जाता है और समझौते करता है, तब उसे इस आर्थिक राजनीति को ध्यान में रखना चाहिए. बड़े औद्योगिक और संसाधन संपन्न देशों को आज अपने उत्पाद को खपाने के लिए बाज़ार चाहिए. यदि हम अपने बाज़ार यूं खोल देंगे तो अन्य देशों की सस्ती सामग्री भारत के बाज़ार को तहस-नहस कर देगी.
इससे न केवल हमारी खाद्य सुरक्षा के साथ समझौता होगा, बल्कि स्थानीय संसाधन भी हथिया लिए जाएंगे. बेरोज़गारी और सामाजिक असुरक्षा चरम पर पंहुच जाएगी. हमें वैश्विक अर्थव्यवस्था और ताक़तवर होने का मिथ्या भ्रम नहीं पालना चाहिए. यह भ्रम हमारे कृषि तंत्र से आत्मनिर्भरता के वजूद को मिटा देगा.
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)