भारत सरकार अब इस बात से सहमत है कि खाद्य सब्सिडी को कम से कम किया जाना होगा, इस कारण से पूरी संभावना है कि भारत में रोज़गार, खाद्य सुरक्षा और आर्थिक गैर-बराबरी का दर्द अब और ज़्यादा बढ़ेगा.
15 जनवरी 2001 को विश्व व्यापार संगठन में भारत ने अपना प्रस्ताव रख कर कहा था,
‘ज्यादातर विकाशील कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं में कृषि जीवन का माध्यम है. यहां खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और गरीबी हटाने के लिए कृषि क्षेत्र में तीव्र विकास की ज़रूरत है. ज़्यादातर किसान अपने जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खेती करते हैं. यहां जोतें छोटी हैं, असिंचित हैं. विकाशसील देश कृषि क्षेत्र को बहुत कम घरेलू सब्सिडी (राज सहायता) देते हैं. निर्यात के लिए तो वस्तुतः कोई रियायत है ही नहीं. ऐसे में स्पष्ट है कि विकासशील देश कृषि के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वाणिज्य व्यवस्था को विकृत करने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं.’
‘हमें यह महसूस करना होगा कि खाद्य सुरक्षा का केवल आर्थिक महत्व नहीं है, बल्कि यह भारत जैसे विकासशील कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं में बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक विषय भी है. अतः डब्ल्यूटीओ में चल रही समझौता वार्ताओं में इस नज़रिये को सामने रखा जाना चाहिए.’
‘भारत का प्रस्ताव था कि खेती के आजीविका और खाद्य सुरक्षा पहलुओं को ध्यान में रखते हुए विकासशील देशों के लिए डब्ल्यूटीओ के समझौता तंत्र में एक खाद्य सुरक्षा बॉक्स बनाया जाना चाहिए. इसके साथ ही गरीबी हटाने, ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोज़गार, कृषि के विविधिकरण के लिए ख़र्च की जाने वाली राज सहायता (सब्सिडी) को सब्सिडी कम करने की शर्त से बाहर रखा जाना चाहिए.’
ज़रूरत थी कि भारत अपने इस पक्ष पर अडिग रहे, किंतु अब ऐसा लग रहा है भारत अपने पक्ष से हट रहा है.
दिसंबर 2013 में बाली (इंडोनेशिया) और फिर दिसंबर 2015 में नैरोबी (केन्या) में खाद्य सुरक्षा और कृषि के संरक्षण के लिए राज सहायता (सब्सिडी) को सीमित किए जाने के लिए समझौतों पर अंतिम निर्णय किया जाना था, किंतु भारत समेत कुछ विकासशील देश सब्सिडी को कम किए जाने (विकासशील देशों के लिए कुल कृषि उत्पादन का दस प्रतिशत तक सब्सिडी सीमित करना) के प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे.
इसके बाद ताजा घटनाक्रमों से लगता है कि भारत भी कृषि और खाद्य सुरक्षा सब्सिडी को कम करने के लिए तैयार हो रहा है.
वास्तव में विकसित देश चाहते हैं कि भारत किसानों से अनाज खरीदना बंद करे और राशन के दुकान की व्यवस्था भी हटाए. इसके एवज में वह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के हक धारकों को हर महीने ‘निश्चित नकद राशि हस्तांतरित’ करे. जिसे लेकर लोग खुले बाज़ार में जाकर अनाज या अपनी ज़रूरत का सामान खरीदें.
इस व्यवस्था का सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि लोग नकद राशि का उपयोग गैर-खाद्य ज़रूरतों के लिए ज़्यादा कर सकते हैं. जिसका नकारात्मक असर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ेगा. यह भी तय है कि फिर खाद्य सामग्रियों की कीमतों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रह जाएगा.
भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को कम करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बंद करने की शुरुआत हो चुकी है.
उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के 25 जुलाई 2017 को लोकसभा में दिए गए वक्तव्य के मुताबिक देश के दो केंद्र शासित प्रदेशों – चंडीगढ़ और पुदुचेरी में राशन की सभी दुकानें बंद कर दी गई हैं.
इन दो राज्यों में 8.57 लाख हितग्राहियों को वितरित करने के लिए कुल 91.584 हज़ार टन खाद्यान्न आवंटित किया जाता था. वर्ष 2017-18 से यह बंद हो गया है, वहां नकद हस्तांतरण किया जा रहा है, ताकि ‘नकद राशि’ लेकर लोग खुले बाज़ार से जो चाहें वह सामग्री खरीदें.
अगर व्यापक स्तर पर यह नीति पूरे देश पर लागू होती है तो निजी क्षेत्र-खुले बाजार का कृषि पर सीधा नियंत्रण हो जाएगा.
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भारत सरकार किसानों से लोक भंडारण (जिसका मकसद सभी को खाद्य सुरक्षा का हक उपलब्ध करवाना, महंगाई को नियंत्रित रखना, किसानों को पूरा संरक्षण प्रदान करना और आपातकालीन स्थितियों के लिए सुरक्षा खाद्य भंडार रखना है) के लिए अनाज खरीदना और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये वितरित करना बंद कर दे, तो भारत में खाद्य सुरक्षा पूरी तरह से कंपनीराज के कब्ज़े में आ जाएगी. जो चाहते हैं कि खेत और लोगों के बीच मुनाफे का बड़ा व्यापार आ जाए, लोग पैकेट बंद और प्रसंस्कृत भोजन का उपभोग करें. इससे ही बाज़ार को फायदा होता है.
डब्ल्यूटीओ में लोक भंडारण और कृषि रियायतों पर भले ही समझौता न हुआ हो, किंतु भारत ने तो पूंजीवाद के अनुशासित और उदार सेवक का रूप दिखाते हुए सब्सिडी कम करना शुरू कर ही दिया है.
हाल ही में (13 जुलाई 2017 को) विश्व व्यापार संगठन में भारत ने अपना सब्सिडी खाता जमा करके खुशी-खुशी बताया कि उसने कृषि सब्सिडी की तयशुदा सीमा को नहीं लांघा है. वर्ष 2014 में उर्वरक, सिंचाई और बिजली पर दी जा रही सब्सिडी 22.8 बिलियन डॉलर पर आ गई, जो कि वर्ष 2011 में 29.1 बिलियन डॉलर थी.
इसके साथ ही जो सब्सिडी बाज़ार को नुकसान नहीं पंहुचाती हैं (जिन्हें डब्ल्यूटीओ में ग्रीन बॉक्स सब्सिडी कहा जाता है) उसमें भी बहुत कमी की गई. यह वर्ष 2011 में 24.5 बिलियन डॉलर थी और 2014 में घटाकर 18.3 बिलियन डॉलर पर ला दी गई.
बहरहाल खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण पर सब्सिडी में वृद्धि हुई, यह इन तीन सालों में 13.8 बिलियन डॉलर से बढ़कर 14.4 बिलियन डॉलर हो गई. भारत वर्ष 2014 में कुल 41.1 बिलियन डॉलर की कृषि सब्सिडी दे रहा था. कुल मिलाकर भारत ने प्रसन्नता के साथ व्यापार संगठन को बताया कि हम कुल कृषि उत्पादन के बाज़ार मूल्य के दस प्रतिशत हिस्से से कम सब्सिडी दे रहे हैं.
वर्ष 2014-15 में कुल उर्वरक सब्सिडी 75,067 करोड़ रुपये थी, जो वर्ष 2016-17 में घट कर 70,100 करोड़ रुपये कर दी गई.
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून डब्ल्यूटीओ में चल रहे व्यापारिक समझौतों के निशाने पर है. यह कानून 80.55 करोड़ लोगों की थाली का बड़ा हिस्सा भरने में भूमिका निभाता है.
उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2014-15 में भारत में खाद्य सब्सिडी 1.13 लाख करोड़ रुपये थी. उस साल में खाद्य सुरक्षा क़ानून का पूरे देश में क्रियान्वयन शुरू नहीं हुआ था.
वर्ष 2015-16 में जब यह क़ानून विस्तार से लागू हुआ, तब सब्सिडी 1.35 लाख करोड़ रुपये हो गई, किन्तु वर्ष 2016-17 में इसमें भारी कमी की गई और यह 1.05 लाख करोड़ रुपये रह गई.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत सरकार ने निर्णय लिया कि भारतीय खाद्य निगम को मिलने वाली सब्सिडी में से 45 हज़ार करोड़ रुपये को क़र्ज़ में बदल दिया जाए. 31 मार्च 2017 को निगम को मिलने वाले 25 हज़ार करोड़ रुपये राष्ट्रीय लघु बचत कोष से लिए गए क़र्ज़ में बदल दिए गए. खाद्य सब्सिडी को खाद्य क़र्ज़े में बदला जा रहा है.
इस सीधे उदाहरण को भी देखिए. वर्ष 2010-11 में डीएपी (डाई अमोनियम फास्फेट) पर 16,268 रुपये प्रति मीट्रिक टन की सब्सिडी थी, जो वर्ष 2015-16 में घटाकर 12,350 रुपये कर दी गई. मोनो अमोनियम फास्फेट पर सब्सिडी 16,219 रुपये प्रति मीट्रिक टन से घटाकर 12,009 रुपये कर दी गई.
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ट्रिपल सुपर फास्फेट पर सब्सिडी 12,087 रुपये से घटाकर 8,592 रुपये और पोटैशियम क्लोराइड पर 14,692 रुपये से घटाकर 9,300 रुपये कर दी गई. यही बात सिंगल सुपर फास्फेट (4,400 रुपये से 3,173 रुपये) पर भी लागू होती है.
भारत और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों में इतना अंतर उस स्थिति में है, जबकि कृषि रियायत जारी है, जब डब्ल्यूटीओ में किसानों और खाद्य सुरक्षा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को ख़त्म करके, नकद हस्तांतरण के माध्यम से खुले बाज़ार को सब्सिडी दी जाने लगेगी, तब भारत में ये कीमतें और ज़्यादा बढ़ती जाएंगी क्योंकि उस स्थिति में खाद्यान्न, दलहन, तिलहन और अन्य कृषि जिंसों की कीमतें तय करने का अधिकार कंपनियों/खुले बाज़ार को होगा; ठीक उसी तरह, जैसे पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें सरकार नहीं बाज़ार तय करता है.
भारत सरकार अब स्वयं इस बात से सहमत है कि खाद्य सब्सिडी को कम से कम किया जाना होगा, इस कारण से पूरी संभावना है कि भारत में रोज़गार, खाद्य सुरक्षा और आर्थिक गैर-बराबरी का दर्द अब और ज़्यादा बढ़ेगा.
इतना ही नहीं, जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से सस्ता अनाज, दालें और तेल खूब आने लगेगा, तब क्या भारत का किसान जिंदा रह पाएगा? एक उपभोक्ता के रूप में आपको लगेगा कि यदि अपने किसान से सस्ता सामान किसी दूसरे देश से मिले तो बुराई क्या है?
वास्तव में होगा यह कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार और बड़ी कंपनियां पहले किसान को कमज़ोर करके, यहां विकल्प ख़त्म करेंगी और फिर मुनाफा कमाएंगी. तब आपके पास अपना किसान नहीं होगा. अतः आपको यह भ्रम तोड़ देना चाहिए कि डब्ल्यूटीओ, किसान, समर्थन मूल्य और कृषि सब्सिडी से हमारा कोई लेना देना नहीं है!
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)