सूचना के अधिकार कानून के तहत चुनावी बॉन्ड बेचने के लिए निर्धारित भारतीय स्टेट बैंक की शाखाओं के बहीखातों से इन बॉन्ड को ख़रीदने वालों और इन्हें प्राप्त करने वालों की जानकारी मांगी गई थी. एसबीआई द्वारा जानकारी दिए जाने से इनकार करने के बाद केंद्रीय सूचना आयोग का रुख़ किया गया था.
नई दिल्ली: केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने कहा है कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों के विवरण का खुलासा करने में कोई जनहित नहीं है. इसके साथ ही उसने विवरण सार्वजनिक करने की मांग संबंधी एक याचिका को खारिज कर दिया.
आयोग ने भारतीय स्टेट बैंक की उस दलील को बरकरार रखा कि पुणे के आरटीआई कार्यकर्ता विहार धुर्वे द्वारा मांगी गई जानकारी व्यक्तिगत प्रकृति की है.
धुर्वे ने चुनावी बॉन्ड बेचने के लिए निर्धारित भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की शाखाओं के बहीखातों से इन बॉन्ड को खरीदने वालों और इन्हें प्राप्त करने वालों की जानकारी का विवरण मांगा था.
एसबीआई द्वारा जानकारी दिए जाने से इनकार करने के बाद धुर्वे ने आयोग का रुख किया, जहां उन्होंने दलील दी कि एसबीआई को जनहित को आगे रखना चाहिए न कि राजनीतिक दलों के हितों को.
उन्होंने कहा कि एसबीआई किसी राजनीतिक दल की प्रत्ययी क्षमता में नहीं थी, इसलिए उसका कोई वैधानिक दायित्व नहीं है कि वह किसी सार्वजनिक या निजी क्षेत्र के बैंक के लाभ को अधिकतम करे, इसलिए उनके बीच ‘विश्वास’ का कोई रिश्ता नहीं है.
धुर्वे ने कहा था पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए इस जानकारी का खुलासा किया जाना चाहिए.
एसबीआई ने चुनावी बॉन्ड योजना, 2018 का हवाला देते हुए कहा कि बॉन्ड के खरीदारों की जानकारी गोपनीय रहनी चाहिए और किसी भी प्राधिकार से किसी भी उद्देश्य के लिए साझा नहीं की जाएगी.
धुर्वे की दलील को खारिज करते हुए सूचना आयुक्त सुरेश चंद्र ने कहा, ‘यहां दानदाता और दान प्राप्त करने वाले की निजता के अधिकार के संबंध में कोई व्यापक जनहित नहीं नजर आता.’
आयोग ने एसबीआई की दलील को बरकरार रखा.
धुर्वे ने कहा कि यह सीआईसी का ‘अतार्किक आदेश’ है, क्योंकि इसमें चुनाव आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक और विधि मंत्रालय की आपत्तियों का उल्लेख नहीं है. उन्होंने कहा कि छह राष्ट्रीय दलों को सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे में लाने वाला सीआईसी ही था.
चुनाव नियमों के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति या संस्थान 2000 रुपये या इससे अधिक का चंदा किसी पार्टी को देता है तो राजनीतिक दल को दानकर्ता के बारे में पूरी जानकारी देनी पड़ती है.
हालांकि चुनावी बॉन्ड ने इस बाधा को समाप्त कर दिया है. अब कोई भी एक हजार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बॉन्ड के जरिये पार्टियों को चंदा दे सकता है और उसकी पहचान बिल्कुल गोपनीय रहेगी. इस माध्यम से चंदा लेने पर राजनीतिक दलों को सिर्फ ये बताना होता है कि चुनावी बॉन्ड के जरिये उन्हें कितना चंदा प्राप्त हुआ.
इसलिए चुनावी बॉन्ड को पारदर्शिता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा माना जा रहा है. इस योजना के आने के बाद से बड़े राजनीतिक दलों को अन्य माध्यमों (जैसे चेक इत्यादि) से मिलने वाले चंदे में गिरावट आई है और चुनावी बॉन्ड के जरिये मिल रहे चंदे में बढ़ोतरी हो रही है.
चुनावी बॉन्ड योजना को लागू करने के लिए मोदी सरकार ने साल 2017 में विभिन्न कानूनों में संशोधन किया था. चुनाव सुधार की दिशा में काम कर रहे गैर सरकारी संगठन एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) इन्हीं संशोधनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. हालांकि कई बार से इस सुनवाई को लगातार टाला जाता रहा है.
याचिका में कहा गया है कि इन संशोधनों की वजह से विदेशी कंपनियों से असीमित राजनीतिक चंदे के दरवाजे खुल गए हैं और बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैधता प्राप्त हो गई है. साथ ही इस तरह के राजनीतिक चंदे में पूरी तरह अपारदर्शिता है.
पिछले साल चुनावी बॉन्ड के संबंध में कई सारे खुलासे हुए थे, जिसमें ये पता चला कि आरबीआई, चुनाव आयोग, कानून मंत्रालय, आरबीआई गवर्नर, मुख्य चुनाव आयुक्त और कई राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस योजना पर आपत्ति जताई थी.
हालांकि वित्त मंत्रालय ने इन सभी आपत्तियों को खारिज करते हुए चुनावी बॉन्ड योजना को पारित किया.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)