दिल्ली पुलिस ने लिखा है कि उमर ख़ालिद सेकुलरिज्म का चोला ओढ़कर चरमपंथ को बढ़ावा देता है. आपको भी यही लगता है तो कम से कम यह मांग तो कर ही सकते हैं कि दिल्ली पुलिस के अफसरों को फिल्म निर्देशक बन जाना चाहिए क्योंकि वे लोगों के अंदर छिपे अभिनेता को पहचान लेते हैं.
23 दिसंबर को उमर खालिद की गिरफ़्तारी के 100 दिन पूरे हो गए.
अपनी गिरफ़्तारी से 10 दिन पहले उमर ने मुझसे कहा था कि वो कुछ ऐसे युवाओं को एक साथ जोड़ना चाहता है जो सोशल मीडिया पर नफ़रत की राजनीति पर लगाम लगा सकें और जनता के ज़रूरी मुद्दों पर बात कर सकें.
जो जनता आज उमर को आतंकवादी कह रही है, उमर उसी जनता के लिए काम करना चाहता था. ईमानदारी से बताऊं तो कभी-कभी मुझे उसकी इस उम्मीद पर हंसी आती है, मगर गर्व भी होता है.
वैसे आज मैं उमर के राजनीतिक विचारों के बारे में बात करने वाला हूं और इसके लिए मैंने उमर से हुई निजी बातचीत और उसके कुछ सार्वजनिक लेखों का सहारा लिया है.
उमर से मेरी पहली मुलाकात किसी सरकार विरोधी प्रदर्शन में नहीं हुई थी, बल्कि आतंकवाद विरोधी प्रदर्शन में हुई थी. अप्रैल 2019 में श्रीलंका में चर्च पर आतंकी हमला हुआ था, जिसमें 250 से ज़्यादा लोग मारे गए थे.
हमले के एक दिन बाद ‘यूनाइटेड अगेंस्ट हेट’ नाम की संस्था ने दिल्ली के ‘सेक्रेड हार्ट कैथेड्रल’ चर्च के बाहर श्रीलंका के ईसाइयों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए मानव श्रृंखला बनाने का आह्वान किया था. उमर भी उस मानव श्रृंखला में आए थे.
मगर दिल्ली पुलिस ने अपनी चार्जशीट में उमर को ‘इस्लामिक चरमपंथी’ कहा है. मुझे नहीं पता कि कौन-सा चरमपंथी संगठन आतंकवाद के ख़िलाफ़ मानव श्रृंखला बनाने की ट्रेनिंग देता है.
शायद इसी के जवाब में दिल्ली पुलिस ने आगे यह भी लिखा है कि उमर सेकुलरिज्म का चोला ओढ़कर चरमपंथ को बढ़ावा देता था. यह मुमकिन है कि उमर यहां भी सेकुलर और मानवतावादी होने का अभिनय करने आया हो.
उमर अपने इस किरदार में इस क़दर डूब चुका था कि उसने कश्मीर में कश्मीरी पंडित अजय पंडिता की हत्या के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाई और ट्वीट कर कहा कि दुनिया भर में अल्पसंख्यकों पर हमले बंद होने चाहिए.
दिल्ली पुलिस के चश्मे से इसे न देखें, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि उमर किसी धर्म के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है.
उमर का ‘लेफ्ट चरमपंथ’
दिल्ली पुलिस ने अपनी चार्जशीट में उमर को ‘लेफ्ट विचारधारा का चरमपंथी’ भी बताया है. मैंने पहला चरमपंथी लेफ्टिस्ट देखा है जो सार्वजनिक रूप से अपने कई भाषणों में लोगों को महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने के लिए कहता है!
उमर के जिस भाषण को दिल्ली पुलिस ने अपनी चार्जशीट में भड़काऊ बताया है उस भाषण में भी उमर ने सत्याग्रह और अहिंसा के रास्ते पर चलने की अपील की है.
इसका यह मतलब नहीं है कि उमर गांधीवादी है या गांधी का अंधभक्त है. उमर सार्वजनिक रूप से खुद को लेफ्टिस्ट बताता रहा है. मगर उमर की खासियत ही यही है कि उसके अंदर किसी भी विचार को लेकर कट्टरता नहीं है और न ही वो टेक्स्टबुक राजनीति करता है.
इसका यह भी मतलब नहीं है कि वह गांधी की कमियों को बढ़ावा देता है. इसका सिर्फ़ इतना मतलब है कि उमर उन वामपंथियों में से नहीं है जो इस सच्चाई से मुंह मोड़ ले कि आज़ादी के बाद अगर किसी ने ज़मीन पर उतरकर हिंदुओं से कहा था कि यह देश सिर्फ़ उनका नहीं, बल्कि मुसलमानों का भी है तो वह गांधी थे.
उमर ने अपने एक भाषण में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि बंटवारे के बाद गांधी दंगा प्रभावित इलाकों में जाकर दंगे शांत कराते थे और उन्होंने अपना आखिरी सत्याग्रह भी दिल्ली में आरएसएस जैसी चरमपंथी संगठन के ख़िलाफ़ खड़े होकर हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए किया था.
इसी सत्याग्रह के कुछ दिनों बाद आरएसएस के नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी थी.
उमर की धार्मिक पहचान
उमर की गिरफ़्तारी के बाद उसके बारे में एक धारणा जो प्रमुखता से उभरकर आई, वह यह थी कि उमर नास्तिक है और अपनी मुस्लिम पहचान को उतना ज़ाहिर नहीं करता है जितना करना चाहिए.
मुझे लगता है उमर के विचारों के साथ इससे बड़ा अन्याय कुछ नहीं हो सकता. शायद ये लोग यह भूल रहे हैं कि उमर ने #ProphetOfCompassion ट्विटर ट्रेंड में हिस्सा लिया था.
उस वक्त मैंने उमर से कहा भी था कि उसके लेफ्टिस्ट दोस्त उसकी बहुत आलोचना कर रहे हैं. तब उमर ने मुझे जवाब दिया था कि उसे यह पता था कि कौन लोग उसकी आलोचना करेंगे, फिर भी उसने यह किया क्योंकि उसे यह सही लगा.
भगवान या अल्लाह पर यकीन रखना किसी का निजी फैसला है. मगर अल्लाह पर यकीन करने वालों पर ज़ुल्म हो रहा है यह समझने के लिए अल्लाह पर यकीन रखना ज़रूरी नहीं है. मुझे भी नास्तिक होते हुए यह बात समझ में आती है.
उमर ने अपने एक लेख में यही समझाने की कोशिश की है कि उसने एक लेफ्टिस्ट होते हुए भी उस ट्विटर ट्रेंड में हिस्सा क्यों लिया.
उमर ने लिखा कि जब राइट विंग #मुस्लिमों_का_सम्पूर्ण_बहिष्कार जैसा ट्रेंड चला रहे थे तो उसके जवाब में उसे यही सही लगा कि इस्लाम का शांति का संदेश दिया जाए.
धार्मिक पहचान के आधार पर होने वाली प्रताड़ना पर प्रकाश डालते हुए उमर ने लिखा कि 2016 में एक साथ तीन लोगों की गिरफ़्तारी हुई मगर फर्जी तरीके से पाकिस्तान से सिर्फ़ उसे जोड़ा गया. उसकी लेफ्टिस्ट पहचान भी उसे इस धार्मिक प्रताड़ना से बचा नहीं सकी.
इसी बात पर ज़ोर देते हुए उमर ने लिखा कि इस वक्त हिंदुस्तान में कोई मुसलमान धार्मिक हो या नास्तिक मगर उस पर हमला उसके धार्मिक पहचान के आधार पर ही होता है.
आपको लगता है कि यह बात कोई ऐसा इंसान लिख सकता है जिसे अपनी धार्मिक पहचान और उससे जुड़ी प्रताड़ना का एहसास ना हो?
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नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में होने वाले आंदोलन के दौरान भी यह सवाल उठा था कि क्या आंदोलन का चरित्र धार्मिक होना चाहिए.
जब इस बारे में मेरी उमर से बात हुई तब उसने यह कहा कि आंदोलन उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए जो दिशा शाहीन बाग की महिलाएं दिखाएं और उनका जो भी फैसला हो वह हमें स्वीकार करना चाहिए. इस आंदोलन को लेकर उमर क्या समझ रखता है यह जानने के लिए आपको शाहीन बाग पर उमर के लेख को पढ़ना चाहिए.
उमर ने इस लेख में लिखा कि शाहीन बाग के माध्यम से मुसलमान तथाकथित सेकुलर पार्टियों के वोट बैंक के चंगुल से आज़ाद होकर अपना नेतृत्व खुद स्थापित करने में कामयाब हुए हैं.
इस आंदोलन के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए उमर ने लिखा कि इस आंदोलन के माध्यम से मुसलमान सिर्फ़ सेकुलरिज्म ही नहीं बचा रहे हैं, बल्कि यह भी ज़ाहिर कर रहे हैं कि वे मुसलमान होते हुए भी इस देश में बराबर के नागरिक हैं.
धारणाओं को तोड़ने वाला
शायद उमर की आलोचना का कारण यह भी हो सकता है कि उमर अपनी पहचान से ऊपर उठते हुए उन मसलों पर भी अपनी राय रखता है जिन पर राय रखने की अपेक्षा यह समाज मुसलमानों से नहीं करता है.
मुझे याद है एक बार बातचीत के दौरान उमर ने यह कहा था कि बहुसंख्यक समाज ने मुसलमानों को एक बंधन में बांध दिया है कि मुसलमान इन मुद्दों पर बोल सकता है और इन पर नहीं.
उमर ने आगे मुझसे पूछा कि वह एक मुसलमान होकर शिक्षा पर, स्वास्थ्य पर, रोज़गार पर क्यों नहीं बोल सकता. क्या ये मुसलमानों के मसले नहीं हैं?
उमर का यह मानना है कि मुसलमान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ सकते हैं और सेकुलर पार्टियों का यह दायित्व है कि वे मुसलमानों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार भी सुनिश्चित करे.
इसी संदर्भ में 2019 में उमर ने पूर्वी दिल्ली से आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी आतिशी से उनकी पार्टी के दोहरे चरित्र पर सवाल उठाते हुए एक लेख में यह पूछा था कि आखिर क्या कारण है कि यह पार्टी दूसरे इलाकों में तो शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर वोट मांगती है मगर मुस्लिम बहुल इलाकों में सिर्फ़ यह प्रचार करती है कि भाजपा को हराना है तो उन्हें वोट दें.
उमर ने यह भी पूछा कि क्या आम आदमी पार्टी को यह पता है कि ओखला में मोहल्ला क्लीनिक की हालत दयनीय है, एक स्कूल तक नहीं है, यहां तक कि कई घरों में पीने के पानी की सप्लाई भी नहीं है.
उमर की इस सोच का निजी तौर पर मुझे एहसास तब हुआ जब लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में प्रतिरोध को जारी रखने के मुद्दे पर उमर से बात हुई.
मेरा यह मानना था कि नागरिकता संशोधन कानून और प्रस्तावित एनआरसी के ख़िलाफ़ उसी प्रमुखता से सोशल मीडिया के माध्यम से विरोध जारी रखना चाहिए.
तब उमर ने जवाब दिया कि भाजपा के इन विभाजनकारी कानूनों का विरोध तो हम जारी रखेंगे ही लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोरोना के दौर में देश की जनता के सामने सबसे बड़ा मुद्दा स्वास्थ्य सेवाओं का है.
इसी को ध्यान में रखते हुए उमर ने पूरे लॉकडाउन के दौरान डॉक्टरों के लिए पीपीई किट और आम लोगों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की मांग करते हुए आवाज़ उठाई.
साथ खड़े लोगों से असहमति जताने वाला
असहमति जताना और सवाल पूछना उमर की राजनीति के जड़ में है. उमर ने अपने लेफ्टिस्ट दोस्तों की नाराज़गी का खतरा उठाते हुए प्रोफेट मोहम्मद के भाईचारे का संदेश लोगों तक पहुंचाया.
ठीक उसी तरह उमर ने अपने मुसलमान दोस्तों की नाराज़गी का खतरा उठाते हुए तुर्की में हेगिया सोफिया चर्च को मस्जिद में तब्दील करने के फैसले का विरोध किया.
कितनी दिलचस्प बात है कि एक मुसलमान चर्च को मस्जिद में बदले जाने का विरोध करने के बावजूद इस्लामिक चरमपंथी कहलाया जा रहा है मगर कुछ हिंदूवादी नेता खुलेआम एक मस्जिद गिराकर भी न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करार दिए गए!
बहरहाल, मैंने तब भी उमर से कहा कि कुछ मुसलमान उसकी बहुत आलोचना कर रहे हैं. तब भी उमर ने यही कहा कि उसे पता था कि ऐसा होने वाला है, फिर भी उसने ऐसा किया क्योंकि उसे यह सही लगा.
निजी तौर पर उमर से मेरी असहमति शुरुआती दिनों की दोस्ती में ही उभरकर सामने आ गई थी.
2019 आम चुनावों के बाद तमाम लोगों की तरह मेरी भी यही धारणा थी कि भाजपा को वोट देने का एकमात्र कारण नफ़रत है. इसके अलावा कोई और कारण मुमकिन ही नहीं है.
मैंने इसी संदर्भ में एक कविता लिखी, जिसमें मैंने जनता को जमकर निशाने पर लिया. आमतौर पर उमर मेरा लिखा हुआ सोशल मीडिया पर शेयर कर देता था, मगर वो कविता उमर ने शेयर नहीं की.
मैंने जब इसका कारण पूछा तब उमर ने यह साफ़ कर दिया कि वह मेरी कविता से सहमत नहीं है. उमर ने स्पष्ट कहा कि हम देश के अंदर नई जनता तो नहीं ला सकते, और कल तक यही जनता दूसरी पार्टियों को वोट दिया करती थी इसलिए विपक्ष को जनता को दोष देने की बजाय उनका विश्वास फिर से हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए.
हालांकि उमर ने यह भी कहा कि जनता में नफ़रत तो बढ़ी ही है मगर वोट देने का सिर्फ़ यही कारण नहीं होता है. तब मुझे एहसास हुआ कि उमर अपने साथ खड़े लोगों की धारणाओं से भी अलग होकर स्वतंत्र विचार रखने की क्षमता रखता है.
जिस तरह से उमर असहमतियां जताता है ऐसा लगता है मानो उमर अपने साथ खड़े लोगों को यह एहसास दिलाना चाहता है कि यह ज़रूरी नहीं है कि वे हर मुद्दे पर एक जैसा सोचें, मगर फिर भी फासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में एकजुट हो सकते हैं.
अंत में यही कहूंगा कि आपने देखा कि उमर के अंदर हर प्रगतिशील विचार का सामंजस्य है, मगर किसी विचार को लेकर कट्टरता नहीं है. यह कहना सही होगा कि उमर के अंदर वक्त की ज़रूरत के हिसाब से अपने विचारों को ढालकर एक प्रगतिशील राजनीतिक एकजुटता बनाने की व्यावहारिकता है.
इसके बाद भी आपको लगता है कि उमर अभिनय कर रहा था तो कम से कम आप यह मांग तो कर ही सकते हैं कि दिल्ली पुलिस में बैठे अफसरों को फिल्म निर्देशक बन जाना चाहिए क्योंकि वे लोगों के अंदर छिपे अभिनेता को पहचान लेते हैं.
उन्हें उमर को अपनी फिल्मों में मुख्य किरदार की भूमिका अदा करने का मौका भी देना चाहिए क्योंकि उमर अगर अभी तक अभिनय कर रहा था तो उससे बेहतरीन अभिनेता तो कोई हो नहीं सकता!
(लेखक दिल्ली में इंजीनियरिंग के विद्यार्थी और कवि हैं.)