गांधी हिंदू थे, गीता, उपनिषद, वेद आदि के लिए भी उनके मन में ऊंचा स्थान था, पर उनका साफ कहना था कि अगर ये पवित्र ग्रंथ अस्पृश्यता का समर्थन करते हों, तो वे उन्हें भी ठुकरा देंगे. गांधी का एक जीवन दर्शन था जिसकी कसौटी पर महान से महान व्यक्ति, ग्रंथ या विचार को कसा ही जाना था.
गांधी हिंदू थे. गांधी हिंदू धर्म को श्रेष्ठ धर्म मानते थे. गांधी ने हिंदू की तरह जीना और हिंदू की तरह ही मरना चुना. क्या इन बातों को लेकर कोई शंका रही है?
लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंत और तीसरे दशक के आरंभ में अगर कोई इन सबकी घोषणा यों करे मानो उसने गांधी का कोई नया पहलू खोज निकाला हो तो उसे यही कहना पड़ेगा कि उसने गांधी को देर से पढ़ना शुरू किया.
फिर भी देर से ही सही, अगर कोई पुरानी लेकिन सही बात दुहरा रहा हो तो उसकी भर्त्सना नहीं करनी चाहिए. संभव है, वह गांधी का नया ईमानदार अध्येता हो.
सवाल अध्येता के ईमानदार होने का है. अध्ययन गांधी का हो या मार्क्स का. क्या आप उन्हें समझने उनके करीब जाते हैं या अपने किसी विचार का समर्थन उनसे हासिल करने के लिए उनका दरवाजा खटखटाते हैं?
आप क्या गांधी को निर्द्वंद्व व्यक्तित्व के रूप में चित्रित करना चाहते हैं और उनकी हर बात को वैध ठहराने के लिए तर्क खोजते हैं या उन्हें आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ते हैं?
रिचर्ड एटनबरो जब गांधी पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव लेकर भारत आए थे और नेहरू से मिले थे तो उनसे चर्चा के बाद उन्हें विदा करते समय नेहरू ने तब के युवा फिल्मकार को कहा कि गांधी को ईश्वर की तरह नहीं, मनुष्य की तरह चित्रित करना. ऐसा व्यक्ति नहीं, जिससे आप असहमत न हो सकें बल्कि वह जिससे आप बहस करना चाहें.
वह व्यक्ति उतना ही बड़ा है जिसे तमाम, हर तरह के लोग बहस के लायक मानें. गांधी से तो उनके तकरीबन सारे मित्र और सहयोगी अपनी असहमति जाहिर करते रहे थे.
गांधी के सबसे प्रिय नेहरू से तो उनका विवाद कभी खत्म ही नहीं हुआ. गांधी को महात्मा मानने वाले गुरुदेव ने जब उन्हें जरूरी लगा, खुलकर उनसे अपनी असहमति व्यक्त की.
एक दूसरा तरीका गांधी जैसे व्यक्तित्व के अध्ययन का यह है कि आप उनके माध्यम से अपनी धारणाओं को वैध ठहराने का प्रयास करें. यानी वे एक तरह के चरित्र प्रमाणपत्र जारी करने वाले या आपके विचार को अभिप्रमाणित करने वाले अधिकारी हैं.
‘जैसा कि गांधी ने कहा था…’, इससे बात शुरू करना एक अबौद्धिक तरीका है. क्या आपके पास खुद अपनी कोई नैतिक कसौटी है? क्या आप वर्णव्यवस्था संबंधी गांधी के नजरिये का समर्थन कर सकते हैं?
क्या आप उनकी तरह बौद्ध मत को हिंदू धर्म की ही एक वृद्धि मानेंगे? या सिख धर्म और हिंदू धर्म के बीच के संबंध के बारे में उनके नजरिये से सहमत होंगे? क्या आप उनकी हर धारणा को जायज ठहराने के लिए तर्क खोजने निकल पड़ते हैं?
किसी दार्शनिक व्यवस्था या व्यक्ति से संबंध बनाने का तरीका खुद गांधी ने सुझाया था. वे हिंदू थे. गीता, उपनिषद, वेद आदि ग्रंथ जिन्हें हिंदू अपने स्रोत ग्रंथ मानते हैं, गांधी के लिए भी ऊंचा स्थान रखते थे. लेकिन गांधी ने साफ शब्दों में कहा था कि अगर ये पवित्र और महान ग्रंथ अस्पृश्यता का समर्थन करते हों तो वे उन्हें भी ठुकरा देंगे.
गांधी का एक मूल्य था, एक जीवन दर्शन था जिसकी कसौटी पर महान से महान व्यक्ति या ग्रंथ या विचार को कसा ही जाना था.
क्या यह आश्चर्य की बात है कि गांधी न तो तोलस्तोयवादी हैं, न गोखलेवादी? उनकी अपनी नैतिकता है जिसे वे किसी की महानता के हवाले करने को तैयार नहीं.
गांधी से हम सबको ऐसा ही रिश्ता बनाना चाहिए. गांधी हिंदू थे, इसका अर्थ यह नहीं हर कोई उनकी तरह का हिंदू हो. असल बात है कि उन्होंने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के लिए किस प्रकार की नैतिकता प्रस्तावित की या निर्मित की?
गांधी हिंदू थे, सिर्फ यह कहना काफ़ी नहीं है. कहना चाहिए कि कई मायनों में वे हिंदू धर्म की नई परिभाषा या कल्पना कर रहे थे.
वे जिस हिंदू धर्म की चर्चा कर रहे थे, वह गांधी की कल्पना का हिंदू धर्म था. दूसरी धार्मिक व्यवस्थाओं से उसका संबंध कैसा होगा? वे एक समावेशी, सहिष्णु, विविधतापरक हिंदू धर्म की आकांक्षा करते हैं. इतने बौद्धिक रूप से सजग वे हैं कि यह कहना गलत होगा कि उन्हें मालूम न था कि हिंदू धर्म में यह सब कुछ नहीं है.
गांधी ने जब यह कहा कि अगर गीता की एक भी प्रति न रह जाए और वे गीता भूल जाएं लेकिन अगर उन्हें ‘सर्मन ऑन द माउंट’ याद हो तो भी उससे उन्हें उतनी ही आध्यात्मिक शांति या प्रसाद मिलेगा जितना गीता से मिलता तो वे एक नई धार्मिक संवेदना की संभावना का द्वार खोल रहे हैं.
गांधी हिंदू धर्म को श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन उसे अपर्याप्त भी मानते हैं. दूसरी धार्मिक व्यवस्थाओं से उसे आदान–प्रदान का संबंध और उनके अनुभवों के प्रति खुलापन रखना चाहिए. यही बात वे अन्य धर्मों के बारे में कहते हैं.
धर्म को हम जितना ग्रंथ से समझते हैं, उतना ही उसे मानने वालों के आचरण से भी. एक ही गीता है. लेकिन गीता का जो अर्थ तिलक ने किया, वही अर्थ न गांधी का था और न विनोबा का.
गीता से अहिंसा का सिद्धांत गांधी ग्रहण करते हैं और दूसरे उसे अन्य लोगों की हत्या को वैध ठहराने वाले शास्त्र के रूप में देखते हैं.
एक ही राम हैं लेकिन गांधी के लिए वे एक नैतिक मूल्यव्यवस्था के काव्यात्मक मूर्तिमान रूप हैं जिनके नाम से करुणा और सहानुभूति के अलावा और कुछ ध्वनित नहीं होता, तो दूसरों के लिए वे एक आक्रामक हिंसक सामुदायिक नेता मात्र हैं.
गांधी राम को ऐतिहासिकता से सीमित करने को तैयार नहीं. लेकिन दूसरे उन्हें इंसानी जन्म–मरण के बंधन से आगे देख नहीं पाते.
गांधी हिंदू थे और देशभक्त थे. यह वक्तव्य गांधी को ओछा कर देता है. गांधी का पहला सार्वजनिक हस्तक्षेप भारत से बहुत दूर दक्षिण अफ्रीका में हुआ था. कारण था असमानता का एहसास जो उन्हीं, उनके लोगों को कराया गया था.
दूर देश में भी गैर बराबरी की नाइंसाफ़ी को मानने से इनकार से ही गांधी पैदा हुआ. तो गांधी को प्राथमिक तौर पर जो चीज परिभाषित करती है, वह है बराबरी और इंसाफ़ के प्रति उनका आग्रह.
अंग्रेज़ हुकूमत से उन्होंने यही कहा कि भारतीयों के साथ उसका बर्ताव वह नहीं है जो इंग्लैंड में अंग्रेज़ों के साथ है. जबकि दोनों ही उसी की रियाया हैं.
इसलिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उनकी जंग इसलिए शुरू हुई कि भारतवासियों को हीन स्तर पर रखकर देखती थी और उनके साथ उसका रवैया भेदभावपूर्ण था.
भेदभाव जितना गांधी के वक्त का सच था उतना ही आज के लिए भी है. जिस राष्ट्र के निर्माण के लिए गांधी का खून गिरा, उसमें आज देश की कुछ आबादियों के साथ गैर बराबरी का सलूक किया जा रहा है. बल्कि वे हर प्रकार की असमानता की हिंसा झेल रहे हैं.
और राज्य की हर संस्था उन पर हिंसा कर रही है. ऐसी स्थिति में गांधी का हिंदूपन उन्हें इन आबादियों के साथ खड़ा करता. वे यह कहते कि मैं हिंदू हूं इसलिए या इसीलिए मैं इन सबके साथ खड़ा हूं.
गांधी यह कह सकते थे कि उनका हिंदूपन उन्हें प्रत्येक अन्याय और प्रत्येक अन्यायी के विरुद्ध आवाज़ उठाने का आह्वान करता है. क्या गांधी के इस हिंदूपन की चुनौती को स्वीकार करने का साहस किसी में है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)