ग्राउंड रिपोर्ट: यूपी में बुंदेलखंड के सात ज़िलों में किसानों को कृषि बाज़ार मुहैया करवाने के उद्देश्य से 625.33 करोड़ रुपये ख़र्च कर ज़िला, तहसील और ब्लॉक स्तर पर कुल 138 मंडियां बनाई गई थीं. पर आज अधिकतर मंडियों में कोई ख़रीद-बिक्री नहीं होती, परिसरों में जंग लगे ताले लटक रहे हैं और स्थानीय किसान परेशान हैं.
नई दिल्ली: पानी की भीषण समस्या से जुझ रहे बुंदेलखंड में बांदा जिले से करीब 40 किलोमीटर दूर अरसौंड़ा गांव में राम सनेही चौधरी 20-22 बीघा जमीन पर खेती करते हैं. लेकिन सिंचाई की उचित व्यवस्था नह होने के चलते साल-दर-साल उनकी काफी फसल बर्बाद हो जाती है. नतीजन पिछले साल बेचने लायक करीब 10 कुंटल ही गेहूं की पैदावार हुई.
हालांकि जब वे इसे सरकारी खरीद केंद्र पर बेचने पहुंचे, तो वहां उनका नंबर लगने नहीं दिया गया. 70 वर्षीय चौधरी कहते हैं, ‘इन जगहों पर बड़े किसानों की ही चलती है, दलाल लोग कुछ पैसे लेकर इनका नंबर लगा देते हैं. चूंकि जहां पर खरीददारी होती है, वो स्थान बहुत छोटा है और धीरे-धीरे काम होता है, इसलिए हम जैसों का नंबर हफ्तों इंतजार के बाद भी नहीं आता है.’
अंतत: राम सनेही चौधरी वहां से लौट आए और प्राइवेट खरीददारों के यहां 1,600 रुपये प्रति क्विंटल की रेट पर अपना गेहूं बेच दिया, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1,925 रुपये था.
वे विनती भरे लहजे में कहते हैं, ‘अगर सरकार यहां मंडी बनवा दे और ये कर दे कि कोई भी सरकारी रेट से कम में नहीं खरीदेगा, या बहुत ज्यादा हो तो 10-50 रुपये कम रेट पर खरीद सकते हैं, तो हमारी बहुत मदद हो जाएगी.’
दिलचस्प बात ये है कि किसानों को अच्छा कृषि बाजार मुहैया कराने के लिए बुंदेलखंड पैकेज के तहत कई करोड़ रुपये खर्च कर बांदा समेत उत्तर प्रदेश के सभी सात जिलों में कई मंडियां बनाई गईं हैं.
हालांकि इनकी स्थिति ये है कि आज तक इनमें से अधिकतर मंडियों के ताले खुले नहीं है, इनके परिसर में जगह-जगह झाड़ियां उठ आई हैं, सड़कें टूट चुकी हैं, टिन के छज्जों में जंग लग चुकी है और मंडियों की दीवारें काली हो रही हैं.
यही वजह है कि चौधरी को इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि उनके गांव से करीब सात किलोमीटर दूरी पर सिमौनी में एक मंडी बनाई गई है.
उन्होंने कहा, ‘आज जब आप लोग आकर बताए हैं, तब हमें पता चला कि यहां कोई गल्ला मंडी भी है. हमें घाटा तो हो ही रहा है, लेकिन क्या करें, मर जाएं क्या? बच्चों के लिए कपड़ा, दवा इन सबके लिए सस्ते में भी बेचना ही पड़ेगा.‘
चौधरी के गांव से करीब 150 किलोमीटर दूर चित्रकूट जिले में खंडेहा गांव के युवा किसान पवन सिंह विद्यार्थी भी अपने गांव में खरीद की दयनीय स्थिति बयां करते हैं.
साल 2015 में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यहां एक मंडी का उद्घाटन किया था, लेकिन आज इसमें सिर्फ गोबर का ढेर और कंटीली झाड़ियां ही दिखते हैं. गोदामों में अनाज रखने के बजाय भूसा भरा हुआ है, लाइटें लगी हुई हैं लेकिन वो जलती नहीं हैं और सड़कें खत्म होकर दोबारा से मिट्टी में मिल चुकी हैं.
आलम ये है कि मंडी में कृषि उपज की खरीद-बिक्री शुरू करने के बजाय सरकार ने इसे अस्थाई गौशाला घोषित कर दिया है.
सिंह ने कहा, ‘यहां आस-पास करीब 35 गांव हैं, जहां के किसान मंडी चालू नहीं होने के चलते बहुत परेशान हैं. इस संबंध में कई बार शिकायत किया गया है, लेकिन प्रशासन सुनता ही नहीं है. सरकार नए कृषि कानून लाकर किसान को एक नया बाजार देने की बात कर रही है, लेकिन ये कितना हास्यास्पद है कि बुंदेलखंड में सरकार द्वारा बनाई गईं मंडिया शुरू होने के इंतजार में बर्बाद हो रही हैं.’
मालूम हो कि केंद्र सरकार के तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन चल रहा है. इसमें से एक कानून ‘किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020’ हैं, जिसके तहत एपीएमसी मंडियों (कृषि उत्पाद विपणन समिति) के बाहर प्राइवेट ट्रेडर्स द्वारा कृषि उपज के खरीद-बिक्री की नई व्यवस्था तैयार करने का प्रावधान किया गया है.
किसानों का कहना है कि ये कदम उन्हें को पूरी तरह से निजी व्यापारियों के रहम पर छोड़ देगा, जहां किसानों को इनकी शर्तों को ही मानना पड़ेगा.
वहीं बुंदेलखंड क्षेत्र के किसानों का कहना है कि सरकारी खरीद व्यवस्था नहीं होने के चलते वे पहले से ही प्राइवेट व्यक्तियों को ही अपनी उपज बेचने पर मजबूर होते रहे हैं, इसलिए मंडियों को शुरू किया जाना चाहिए ताकि उनके पास बेचने के कई सारे विकल्प मिले और उन्हें उचित दाम मिल सके.
सिंह ने कहा, ‘ये कोई नई बात नहीं है कि अब किसान मंडियों से बाहर बेच पाएगा. यहां का किसान पहले से ही कम रेट पर बाहर बेचता आया है. हमें कोई नया कानून नहीं चाहिए, ये मंडियां शुरू हो जाएं, हमारे लिए यही काफी है.’
पवन सिंह उत्तर प्रदेश की सरकारी खरीद एजेंसी पीसीएफ के धान क्रय केंद्र के बाहर पिछले एक हफ्ते से भी अधिक समय से इंतजार कर रहे हैं, लेकिन उनका नंबर अभी तक नहीं आया है.
यह केंद्र को गांव के बाहर सरकारी स्कूल के बगल में एक छोटे से कमरे में खोला गया है और 30-35 गांवों के बीच में एकमात्र खरीद केंद्र है.
वहीं, सिंह के गांव से करीब 125 किलोमीटर की दूरी पर बड़ोखर में बुंदेलखंड पैकेज के तहत ही निर्मित एक अन्य मंडी में राज्य के खाद्य एवं रसद विभाग द्वारा धान की खरीदी की जा रही थी. हालांकि यहां पर दस किसान भी मौजूद नहीं थे.
वजह यह है कि ये मंडी भी चालू नहीं हुई, इसका अधिकतर निर्मित क्षेत्र खाली पड़ा हुआ है, मंडी में खरीददार नहीं आते और सिर्फ एक कोने में महज पांच कर्मचारियों के साथ राज्य सरकार खरीदी कर रही थी.
चौकीदार अशोक तिवारी ने शिकायत करते हुए बताया कि यहां न तो बिजली है और न पानी, रात-दिन अकेले ही डर के साये में रखवाली करनी पड़ती है.
धान बेचने आए पड़ुई गांव के निवासी नवल किशोर ने बताया, ‘यहां खरीद इतनी धीमी गति से हो रहा है कि एक दिन में दो या तीन किसानों से ही खरीदी हो पाती है. अब बताइए ये रफ्तार रहेगी तो कितने किसान अपनी उपज बेच पाएंगे. मंडी तो बंद पड़ी हुई है, यहां खरीददार आते नहीं है. सरकार ने इतना पैसा खर्चा किया, लेकिन इसका कोई लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है.’
बुंदेलखंड पैकेज के तहत निर्मित मंडियां
सूखा ग्रसित बुंदेलखंड क्षेत्र की समस्याओं का समग्र समाधान निकालने के लिए साल 2009 में योजना आयोग (अब नीति आयोग) की अगुवाई में बहुप्रचारित बुंदेलखंड पैकेज की घोषणा की गई थी.
इसमें जल, वन, सिंचाई, पशुपालन, ग्रामीण विकास, कृषि क्षेत्र के साथ-साथ कृषि बाजार को भी शामिल किया गया और किसानों को उनकी उपज का उचित दाम देने के उद्देश्य से जगह-जगह पर मंडियां (विशिष्ट मंडी स्थल एवं ग्रामीण अवस्थापना केंद्र) बनाने का प्रस्ताव रखा गया था.
द वायर द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से पता चलता है कि मई, 2019 तक उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड के सात जिलों में 625.33 करोड़ रुपये खर्च कर 138 मंडियां बनाई गईं थी.
इसमें से छह विशिष्ट मंडी स्थल हैं, जो जिला स्तर पर बनाए गए हैं और 132 ग्रामीण अवस्थापना केंद्र हैं जो तहसील एवं ब्लॉक स्तर पर बनाए गए हैं.
हालांकि इतनी भारी-भरकम राशि खर्च करने के बावजूद इन मंडियों के काम न करने को लेकर स्थानीय लोगों में काफी गुस्सा है. इसके बारे में पूछने पर एक जैसा जवाब मिलता है, ‘बुंदेलखंड पैकेज से बनीं मंडिया? इससे किसानों को लाभ नहीं, वो तो ऐसे ही सड़ रही हैं, इसके पैसे नेता, अधिकारी और कॉन्ट्रैक्टर डकार गए.’
बांदा जिले में 63.47 करोड़ रुपये खर्च कर शहर से करीब 10 किलोमीटर बाहर महोबा रोड पर विशिष्ट मंडी स्थल बनाया गया है, लेकिन इसकी मौजूदा हालत ये है कि मंडी की टूटी दीवारों के रास्ते आए दिन आवारा पशु इसके परिसर में घुस आते हैं, जिसके चलते यहां पर चारों तरफ गोबर फैला हुआ दिखाई देता है.
मंडी इतनी बड़ी है कि यदि इसे पैदल पूरा घूमना पड़े तो व्यक्ति हांफकर एक जगह बैठ जाएगा, लेकिन यहां कोई किसान या कृषि व्यापारी देखने को नहीं मिलता.
गोदामों में लगे तालों में जंग लग चुकी है, खरीद स्थल गंदगी से भरा हुआ है, रोड की गिट्टियां उखड़ने से रास्ताों में गड्ढे बन गए हैं, कुछ टूटी-फूटी गाड़ियां खड़ी हैं और अब प्रशासन ओवरलोडिंग के आरोप में पकड़े गए ट्रकों को यहां बंद करता है.
इसी तरह जिले से करीब 50 किलोमीटर दूर रसिन गांव में स्थित अनाज मंडी (ग्रामीण अवस्थापना केंद्र) का भी यह हाल है. यहां के खाली पड़े गोदामों में वन विभाग बीड़ी बनाने में इस्तेमाल होने वाले तेंदू पत्ते रखने का कार्य करता है.
रखवाली के लिए विभाग की ओर से नियुक्त कर्मचारी मदन गोपाल तिवारी बताते हैं कि यहां पर किसी भी तरह के कृषि उपज की खरीद-बिक्री का काम नहीं होता है.
उन्होंने कहा, ‘गोदामें खाली पड़ी रहने के कारण वन विभाग ने इसे किराये पर लिया है. पिछले कई सालों से ये मंडी ऐसी ही खाली पड़ी हुई है. यहां पर किसानों से उनके उत्पाद नहीं खरीदे जाते हैं. बीच में इसका इस्तेमाल गौशाला के रूप में भी किया गया था.’
बांदा में 20 मंडियों के अलाबा महोबा जिले में ऐसी ही 11, चित्रकूट में 16, हमीरपुर में 24, जालौन में 20, ललितपुर में 24 और झांसी में 25 मंडियां बनाई गईं हैं.
इन मंडियों के शुरू न होने को लेकर बुंदेलखंड के सांसदों ने भी नीति आयोग की बैठकों में इस मुद्दे को उठाया था, जिसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया गया था कि इन्हें तत्काल शुरू किया जाए.
द वायर द्वारा प्राप्त किए गए मिनट्स ऑफ मीटिंग के मुताबिक नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत की अध्यक्षता में 02 जून 2016 और 17 अप्रैल 2017 को हुई बैठक में उत्तर प्रदेश सरकार से कहा गया था कि सांसदों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए पैकेज के तहत क्षेत्र में बनीं मंडियों को तत्काल शुरू किया जाए.
राज्य सरकार को निर्देश देते हुए मिनट्स में कहा गया, ‘बुंदेलखंड पैकेज के तहत राज्य में बनाए गए कृषि मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर को तुरंत शुरू किया जाना चाहिए. इस संबंध में उत्तर प्रदेश के सांसदों की चिंताओं का समाधान करें.’
हालांकि इसके बावजूद अभी तक मंडियां शुरू नहीं हुई हैं. खास बात ये है कि उत्तर प्रदेश कृषि उत्पादन मंडी परिषद के अध्यक्ष खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं और इन मंडियों को चलाने का काम इसी विभाग की जिम्मेदारी है.
मंडी परिषद विभाग में उप निदेशक प्रशासन चंद्रपाल तिवारी, जो बुंदेलखंड में मंडियों के कार्य की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं, ने कहा कि चूंकि ये मंडियां ज्यादातर निर्जन स्थानों पर हैं, इसलिए व्यापारी यहां आना नहीं चाहते और व्यापार नहीं हो पा रहा है.
उन्होंने दावा किया कि प्रशासन ट्रेडर्स के साथ नियमित बैठक कर उन्हें खरीददारी करने के लिए प्रेरित कर रहा है.
तिवारी ने बताया, ‘इसका उद्देश्य ये था कि गांव-गांव में ही मंडी स्थापित हो जाए ताकि भंडारण की क्षमता बढ़े और किसान अपनी फसल आसानी से बेचकर लाभकारी मूल्य पा सके. लेकिन मंडी तब चलेगी जब वहां पर व्यापारी बैठेगा. लेकिन व्यापारी शहरों में है, जहां मंडियां विकसित हैं और अच्छी आबादी है. ये मंडियां ज्यादातर निर्जन स्थानों पर हैं. इसलिए व्यापारी यहां आना नहीं चाह रहा है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘जिला-स्तर की सात में से तीन मंडियों में दुकानें ट्रेडर्स को आवंटित हो चुकी है तथा खरीददारी हो रही है और तीन जिलों की मंडियों में आवंटन का कार्य चल रहा है. एक मंडी अभी निर्माणाधीन है. बांदा मंडी की दुकानों का आवंटन प्रक्रिया पिछले महीने शुरू हुआ था लेकिन कोई व्यापारी यहां नहीं आया. ये दुकानें व्यापारियों को दी जाती हैं, जिसके बाद किसान वहां अपनी उपज लेकर आता है.‘
चंद्रपाल तिवारी ने कहा कि सभी मंडियों के चालू होने में अभी काफी समय लगेगा और इस दिशा में सरकार कोशिश कर रही है. उन्होंने कहा कि इसके लिए ट्रेडर्स को बहुत कम कीमत (प्रीमियम) पर दुकानें देने का प्रावधान किया जा रहा है.
लेकिन मंडिया शुरू होने का ये इंतजार महिला किसान किरन श्रीवास्तव जैसों के लिए काफी भारी पड़ रहा है. कुछ साल पहले उनके पति की मौत हो गई थी, जिसके कारण खेती और अपने एक बेटे समेत घर का सारा कार्यभार उनके सिर आ गया है.
श्रीवास्तव कहती हैं कि बुंदेलखंड के किसानों के लिए पहले से ही चौतरफा समस्याएं है, मंडी बनाने के बाद इसे बंद रखना उनके जले पर नमक छिड़कने जैसा है. इसके चलते उन्हें हर साल अपनी उपज सरकारी रेट से करीब 500-600 रुपये कम पर बेचना पड़ता है.
उन्होंने कहा, ‘जो सरकारी रेट है, उसी रेट में हर जगह बिक्री नहीं होनी चाहिए. ऐसा न हो कि सरकारी रेट तो 2,000 रुपये है और किसान 12-1,500 में बेचे. मंडियां नहीं होने के कारण किसानों के साथ ऐसा हो रहा है. एक बार मैं भी यहां के सरकारी खरीद केंद्र पर बेचने गई थी, लेकिन आठ दिन बैठने के बाद वापस आना पड़ा.’
मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन विवादित कृषि कानूनों के संदर्भ में उन्होंने कहा कि इन कानूनों से लाभ हमें तभी होगा जब सरकार ये तय करेगी कि कोई भी सरकारी रेट से कम पर न खरीदे.
श्रीवास्तव ने कहा, ‘खेती में घाटा तो है ही, लेकिन यही जीविका का साधन है, किसान करे तो करे क्या.‘