विवादित तीन कृषि क़ानूनों की संवैधानिकता जांचे बिना सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर रोक लगाने के क़दम की आलोचना हो रही है. विशेषज्ञों ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय का ये काम नहीं है. इससे पहले ऐसे कई केस- जैसे कि आधार, चुनावी बॉन्ड, सीएए को लेकर मांग की गई थी कि इस पर रोक लगे, लेकिन शीर्ष अदालत ने ऐसा करने से मना कर दिया था.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने तीन विवादित कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को जांचे बिना बीते मंगलवार को इन पर अंतरिम रोक लगा दी.
कोर्ट के इस कदम की आलोचना हो रही है और विशेषज्ञों ने इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि न्यायालय का ये काम नहीं है. उसका मूल काम कानूनों की संवैधानिकता को जांचना है.
खास बात ये है कि जहां इस मामले में याचिकाकर्ताओं द्वारा कानूनों पर रोक लगाने की मांग नहीं की गई थी, इसके बावजूद कोर्ट ने इस पर रोक लगाई. वहीं दूसरी तरफ पूर्व में कोर्ट के सामने कई ऐसे केस- जैसे कि आधार, चुनावी बॉन्ड, सीएए- आए हैं जहां न्यायालय से मांग की गई थी कि कोर्ट इस पर रोक लगाए, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा करने से मना कर दिया था.
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने दलील दी कि किसी भी कानून पर उस समय तक रोक नहीं लगाई जा सकती, जब तक न्यायालय यह न महसूस करे कि इससे मौलिक अधिकारों या संविधान की योजना का हनन हो रहा है.
It is cynical for another reason. A host of laws have been challenged before the Supreme Court in recent times, where arguments were *actually* made for prima facie unconstitutionality. The Court refused to stay any of these laws, and refused to even engage with the arguments.
— Gautam Bhatia (@gautambhatia88) January 12, 2021
हालांकि कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी कानून के अमल पर रोक लगाने से इस न्यायालय को कोई रोक नहीं सकता है.
अपने इस कदम को उचित ठहराने के लिए न्यायालय ने सितंबर 2020 में मराठा आरक्षण पर लगाई गई अंतरिम रोक का हवाला दिया. हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस कानून की संवैधानिकता को जांचने के बाद इस पर रोक लगाई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी.
इस आदेश में भी जस्टिस रविंद्र भट्ट और एल. नागेश्वर राव की पीठ ने कहा था कि किसी भी कानून पर रोक लगाते वक्त ‘अत्यधिक सावधानी’ बरती जानी चाहिए और रोक तभी लगाई जा सकती है, जब स्पष्ट रूप से अधिनियम की असंवैधानिकता साबित हो जाए.
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि कानूनों पर रोक लगाते हुए कहा कि इससे किसानों में ‘विश्वास’ जगेगा और समिति से बातचीत के लिए आगे आएंगे. हालांकि किसान संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी के सामने जाने से इनकार कर दिया है और कहा है कि इसमें शामिल लोग कानूनों का समर्थन करने वाले हैं.
कृषि कानूनों के संबंध में कोर्ट का ये कदम अन्य मामलों के बिल्कुल उलट है, जबकि याचिकाकर्ताओं ने विशेष रूप से ये गुजारिश की थी कि यदि इन पर रोक नहीं लगाई जाती है तो ये मौलिक अधिकारों को बहुत हानि पहुंचा सकता है.
साल 2015 में आधार को चुनौती देने वाली याचिका में यही दलील दी गई थी, लेकिन कोर्ट ने योजना आयोग के महज एक आदेश के आधार पर ऐसा करने से इनकार कर दिया.
इसी तरह साल 2017 में लाए गए विवादित चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं ने कई बार कोर्ट से ये गुजारिश की कि चूंकि इसके चलते राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की गोपनीयता बहुत बढ़ गई है और यह चुनावी प्रक्रिया के लिए बड़ा खतरा है, इसलिए इस पर रोक लगाई जाए. लेकिन शीर्ष न्यायालय ने फिर से ऐसा करने से इनकार कर दिया.
वहीं किसान संगठनों ने शीर्ष अदालत द्वारा नियुक्त समिति को मंगलवार को मान्यता नहीं दी और कहा कि वे समिति के समक्ष पेश नहीं होंगे और अपना आंदोलन जारी रखेंगे.
सिंघु बॉर्डर पर संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए किसान नेताओं ने दावा किया कि शीर्ष अदालत द्वारा गठित समिति के सदस्य ‘सरकार समर्थक’ हैं.
गौरतलब है कि इससे पहले केंद्र और किसान संगठनों के बीच हुई आठवें दौर की बातचीत में भी कोई समाधान निकलता नजर नहीं आया, क्योंकि केंद्र ने विवादास्पद कानून निरस्त करने से इनकार कर दिया था, जबकि किसान नेताओं ने कहा था कि वे अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं और उनकी ‘घर वापसी’ सिर्फ कानून वापसी के बाद होगी.
केंद्र और किसान नेताओं के बीच 15 जनवरी को अगली बैठक प्रस्तावित है.
मालूम हो कि केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए कृषि से संबंधित तीन विधेयकों– किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020, किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020- के विरोध में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं.
किसानों को इस बात का भय है कि सरकार इन अध्यादेशों के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने की स्थापित व्यवस्था को खत्म कर रही है और यदि इसे लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा.
दूसरी ओर केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली मोदी सरकार ने बार-बार इससे इनकार किया है. सरकार इन अध्यादेशों को ‘ऐतिहासिक कृषि सुधार’ का नाम दे रही है. उसका कहना है कि वे कृषि उपजों की बिक्री के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था बना रहे हैं.