क़ानून अपना काम करेगा यानी नहीं करेगा

क़ानून को काम करने देने के बयान का मतलब ही क़ानून को काम न करने देने के प्रयासों के अति सक्रिय हो जाने का संकेत होता है, जो वर्णिका मामले में दिए गए विभिन्न वक्तव्यों को ध्यान से पढ़ने पर साफ दिख जाता है.

क़ानून को काम करने देने के बयान का मतलब ही क़ानून को काम न करने देने के प्रयासों के अति सक्रिय हो जाने का संकेत होता है, जो वर्णिका मामले में दिए गए विभिन्न वक्तव्यों को ध्यान से पढ़ने पर साफ दिख जाता है.

Varnika Kundu Vikas Barala
विकास बराला और वर्णिका कुंडू.

हरियाणा के भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी वीएस कुंडू की बेटी वर्णिका के साथ 5 अगस्त की रात को कथित(?) रूप से चंडीगढ़ में हरियाणा भाजपा के अध्यक्ष सुभाष बराला के बेटे विकास ने अपने एक दोस्त के साथ छेड़खानी की, हालांकि उसके लिए यह शब्द बेहद अधूरा है, जो हुआ, वह इससे बहुत ज्यादा था.

इस पर काफी खबरें छपी हैं और टीवी चैनलों पर आई हैं. यह कहा जा सकता है कि ये आरोप कितने सही हैं या गलत हैं, इसका फैसला अदालत करेगी. बिल्कुल सही बात है.

यह काम अदालतों का है, हमारा नहीं लेकिन जो खबरें आ रही हैं, क्या वे संकेत देती हैं कि हर ऐसे मामले की तरह इसमें भी वाकई क़ानून को अपना काम करने दिया जाएगा?

इरादा तो नहीं लगता, बाकी क़ानून तो हमारे देश में हमेशा से काम करता रहा है और अब कुछ ज्यादा ही तेजी से कर रहा है. वैसे हमारा देश चमत्कारों का देश है, यह भी कहा जाता है और वर्णिका भी किसी साधारण आदमी की नहीं, एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की बेटी है.

उसका पिता भी इस मामले को यों ही नहीं जाने देने का इरादा रखता है तो चमत्कार हो जाए, इसकी संभावना कुछ-कुछ है, पचास-पचास प्रतिशत तक अभी मान लें. वैसे उसके पिता पर राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं, क्योंकि अधिकारी वरिष्ठ हैं मगर अधिकारी तो राज्य के काडर के ही हैं.

मामला अभी तो टेढ़ा ही लगता है, बाकी ऊंट कब, किस करवट बैठ जाए, इस बारे में बड़े-बड़े पत्रकार भी सदा संशय में रहते रहे हैं क्योंकि यह ऊंट की मर्जी है, जो पत्रकार क्या चीज होती है, यह नहीं जानता, शायद आदमी क्या होता है, यह भी ठीक से नहीं जानता वरना अभी तक ऊंट न बना रहता. यह बात ऊंट के बारे में ही कही जा रही है, आदमी कृपया गलत न समझें. आदमी तो करवट दूसरों की मर्जी से भी ले लेता है.

जहां तक क़ानून का सवाल है, प्रयास तो यही हैं कि इस मामले में भी वह अभियुक्त का साथ दे और विकास v का निशान बनाते हुए अंत में ‘सत्य की विजय’ की घोषणा करता हुआ टीवी चैनलों पर नजर आए.

हरियाणा भाजपा के अध्यक्ष रामवीर भट्टी का बयान है कि कोई उस लड़की से यह तो पूछे कि वह रात के समय सड़क पर क्या कर रही थी? वह जो भी कर रही थी, कम से कम वह भट्टी साहब के लल्ला से छेड़छाड़ नहीं कर रही थी, यह पानी की तरह साफ है और आगे यह पानी गंदा होगा, इसकी कोई संभावना या आशंका नहीं है.

उधर, पंचकूला में भाजपा के एक प्रवक्ता कृष्ण कुमार ढल ने पचास हजार रुपये जमा कर विकास की जमानत करवाई है, उस घटना के फुटेज गायब होने की खबरें भी हैं, हालांकि पुलिस ने इससे इंकार किया है. इसके अलावा भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता शाइना एनसी के ट्विटर अकाउंट पर वर्णिका की एक फोटो उसकी सहेलियों के साथ दिखाई गई थी, जो कि विकास के साथ खड़ी है.

वर्णिका के पिता के अनुसार यह तस्वीर फोटोशॉप पर बनाई हुई है जबकि हकीकत यह है कि यह तस्वीर 2011 या 2012 की है और दरअसल यह एक दक्षिण भारतीय संगीतकार के साथ है, जिसे वर्णिका ने अपने फेसबुक अकाउंट पर डाल दिया था. बाद में शाइना एनसी ने यह कहते हुए उसे हटा दिया था कि उनका अकाउंट हैक हो गया था.

इस बीच भारतीय जनता पार्टी के महासचिव और हरियाणा मामलों के प्रभारी अनिल जैन का बयान भी ऊंट की उस दिशा की ओर संकेत करता है, जिसमें उसे बैठाने की कोशिश हो रही है. वह फरमाते हैं कि हरियाणा के भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख बराला अपना पद नहीं छोड़ेंगे. उन्होंने न इस्तीफा दिया था, न देंगे.

वैसे भी यह घटना भी हरियाणा की नहीं, चंडीगढ़ की है, जो कि केंद्रशासित प्रदेश है और पुलिस जांच कर रही है और क़ानून अपना काम करेगा ही. तो क़ानून को दिशा देने के पूरे प्रयास हो रहे हैं, वह भटककर कुछ गलत करना चाहे तो वे क्या कर सकते हैं?

मंत्री समूह की बैठक में 8 अगस्त को विचार हुआ और वह बराला के साथ खड़ा है. दूसरी तरफ बराला साहब ने वर्णिका को अपनी बेटी कहा है और एक मंत्री ने यह भी कहा है कि हम उस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे.

उधर तमाम नेता वर्णिका के घर तशरीफ का टोकरा लेकर गये हैं. सरकार के एक मंत्री- जो वर्णिका के पिता के विभाग के हैं, उनसे मिलने की बात कर रहे हैं.

वैसे शासन कर रही पार्टियों के नेताओं का यह प्रिय वाक्यों मे से एक न जाने कब से है कि क़ानून अपना काम करेगा. जब वे अपने किसी बड़े नेता या उसकी संतान को आरंभिक रूप से किसी मामले में फंसा हुआ पाते हैं तो फटाक से यह बयान दे देते हैं.

इस बारे में उन्हें सोचने की जरूरत ही नहीं और अगर कोई संवाददाता किसी भी पार्टी के किसी भी नेता की ओर से ऐसे मामले में उनसे बिना पूछे उनका बयान चला दे तो कसम से वे मानहानि की दस करोड़ कीमत वसूल करने का मुकदमा कतई दर्ज नहीं करेगे, उल्टे धन्यवाद देने के लिए फोन करके संवाददाता को गदगद करने की कोशिश करेंगे और गदगदायमान वह अगर किसी और तरीके से होना चाहे तो उसकी व्यवस्था भी कर देंगे.

वैसे अगर क़ानून ही अपने आप अपना काम करना सीख चुका होता, पुलिस और अदालतों के सचमुच सब बस में होता तो होता जो भी मगर नेताओं को ऐसा बयान देने की जरूरत नहीं पड़ती.

भाजपा- कांग्रेस-समाजवादी पार्टी आदि-आदि के किसी नेता के आरोपों से घिरने पर पार्टी ने अपने उस नेता से त्यागपत्र देने को कहा हो या हटा दिया हो, ऐसा हाल फिलहाल आप और वामपंथी दलों के अलावा किसी और पार्टी मे हुआ हो तो, याद तो नहीं आता, अगर अपवाद कोई हो तो वह भी नियम की ही पुष्टि करता है.

लेकिन ऐसे हर मौके पर विपक्ष के नेताओं के सिर पर नैतिकता सवारी गांठ लग जाती है और सत्तापक्ष उसकी पुरानी अनैतिकताओं के किस्से बता बताकर खुश होता रहता है और विपक्ष के नेता खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे टाइप ताना कसकर हंसने लग जाते हैं क्योंकि उनके नेता ऐसा कुछ अब कर भी रहे होते हैं तो फोकस से बाहर चले जाते हैं.

विपक्ष का नारा होता है- इस्तीफा दो. उधर सत्तापक्ष का नारा होता है-तुम कब दिया था, जो हम दें? इस्तीफा देने के लिए जनता सत्ता नहीं सौंपती, राज करने के लिए सौपती है और हम सब एक ही हमाम मे हैं, सभी नंगे हैं फिर काहे कि नाटकबाजी करके हमें फौरीतौर पर परेशान करते हो, भूल चूक लेनी देनी. आगे से हम भी तुम्हारा साथ देंगे.

वैसे इससे जनता को कोई फर्क नहीं पड़ रहा, जितने बयान देना हो, दे लो. कल सारा देश तुम्हारे साथ था, आज हमारे साथ है. इस्तीफा किसी सूरत में नहीं दिया जाएगा क्योंकि जांच अभी चल रही है, इस्तीफा नहीं दिया जाएगा क्योंकि निचली अदालत में मामला लंबित है, फिर वहां से ऊपर और ऊपर जाकर सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा. तब तक कौन बैठा है, तेरी जुल्फ के सर होने तक.

पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी आज से करीब सात साल पहले उसी तरह का बयान आया था कि क़ानून अपना काम करेगा. उनसे अफजल गुरू को सुप्रीम कोर्ट द्वारा फांसी की सजा सुना देने के बाद पत्रकारों ने पूछा था कि उसे कब फांसी दी जाएगी? तब उन्होंने कहा था कि क़ानून को अपना काम करने दीजिए.

वैसे उनकी यह बात एक हद तक ठीक थी क्योंकि गुरू की दया याचिका तब तक राष्ट्रपति के पास लंबित थी और किसी को भी फांसी पर चढ़ाए जाने से पहले अगर दोषी राष्ट्रपति से क्षमा याचना की अपील करता है तो उस पर निर्णय आने तक उसे फांसी नहीं दी जा सकती.

बाद में राष्ट्रपति ने उसे फांसी की सजा देने की पुष्टि कर दी तो उसे चुपचाप फांसी दे दी गई. लेकिन टूजी घोटाला हो या सिखविरोधी दंगे पर सीबीआई की लीपापोती का मामला हो, हमेशा कांग्रेस की ओर से यही कहा गया कि क़ानून अपना काम करेगा. आज भाजपा में भी वही क़ानून उसी तरह अपना काम करने लगा है.

देश के वित्त मंत्री(फिलहाल रक्षा मंत्रालय के प्रभार भी) अरुण जेटली ने राज्यसभा में पिछले महीने कहा था कि गोरक्षकों को किसी मनुष्य की हत्या करने की इजाजत नहीं है और क़ानून अपना काम करेगा.

पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान से जब उनके भाई पर खाने की गैस की एजेंसी के मामले में गड़बड़ी के आरोप पर संवाददाताओं ने पूछा था तो उन्होंने भी क़ानून अपना काम करेगा कहा था.

ताजा उदाहरण हरियाणा के प्रभारी भाजपा प्रवक्ता का है और ऐसा नहीं है कि ‘क़ानून अपना काम करेगा’ के ये कुल तीन बयान पिछले तीन साल में भाजपा की तरफ से आए हैं. कुछ याद न आए तो गूगल पर सर्च करके देख सकते हैं.

वैसे नेताओं को बार-बार यह कहने की जरूरत क्यों पड़ जाती है कि क़ानून अपना काम करेगा, खास तौर पर जो नेता सत्ता पक्ष में बैठे होते हैं, उनके लिए यह कहना अनिवार्य क्यों हो जाता है?

और अगर केंद्र में अलग सरकार है और राज्य में अलग तो राज्य की सत्ताधारी पार्टी के नेता का भी ठीक हूबहू बयान आता है. यह बयान हमेशा सत्ता पक्ष की ओर से आता है.

ऐसा शायद ही कभी हुआ कि विपक्ष ने मौजूदा सरकार से कहा हो कि ठीक है अगर क़ानून अपना काम करेगा तो कोई समस्या नहीं है. क़ानून अपना काम करेगा, यह कहने की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि क़ानून हमेशा ताकतवर या एक ताकतवर से ज्यादा दूसरे बड़े ताकतवर के पक्ष में काम करने लग जाता है क्योंकि क़ानून वह नहीं होता, जो कि क़ानून की किताबों में लिखा है बल्कि वह होता है जो सत्ताधारी पार्टी की मुट्ठी में बंद होता है.

क़ानून को काम करने देने के बयान का मतलब ही क़ानून को काम न करने देने के प्रयासों के अति सक्रिय हो जाने का संकेत होता है, जो ताजा मामले में दिये गये विभिन्न वक्तव्यों को जरा सा ध्यान से पढ़ने पर साफ दिख जाता है.

भारी जन दबाव के बीच अगर सरकार उच्चस्तरीय जांच की घोषणा कर देती है तो इतने भर से मामला ठंडा पड़ जाता है. जांच जब होगी, तब होगी, उसकी रिपोर्ट जब आनी होगी, आएगी, जब सार्वजनिक होना होगी तो होगी और लागू अगर हुई तो कैसे होगी, कितनी होगी, यह मामला अलग है. तब तक वह मामला इतना ठंडा पड़ चुका होता है, जितना कि शव.

हरियाणा के मुख्यमंत्री स्वयं महिला सुरक्षा का सवाल उठने पर उनके ड्रेस कोड की बात करते रहे हैं और यह उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद की बात ही नहीं है.

अगर आप 10 अक्टूबर 2014 के उस बयान को टटोलें, जो उन्होंने करनाल से विधायक का चुनाव लड़ते हुए दिया था तो उन्होंने यहां तक कहा था कि महिलाएं अगर इतना ही स्वतंत्रता चाहती है तो वे क्यों न नंगी होकर सड़क पर नहीं घूमतीं?

यह उस व्यक्ति का बयान है जो पहली बार विधायक का चुनाव लड़ते समय ही यह जानता था कि वह राज्य का मुख्यमंत्री बननेवाला है और अगर मान लो कि नहीं भी पता था तो भी इससे उनके मानसिक-बौद्धिक स्तर का पता चलता है, जो निरंतर चलता रहता है.

संयोगवश संघ के कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया है और यह पद उसी का पुरस्कार है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)