जिस गोरखपुर मेडिकल कॉलेज पर इंसेफलाइटिस पीड़ित बच्चों के इलाज की ज़िम्मेदारी है उसकी स्थिति देखकर कहा जा सकता है कि लगातार हो रही बच्चों की मौत से सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का संसदीय क्षेत्र रहे गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से 48 घंटे से भी कम समय में 36 बच्चों और 18 वयस्कों की मौत से देश भले ही अब चौंक गया हो लेकिन इस मेडिकल कालेज में पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह की बदइंतज़ामी थी, यह हादसा यहां रोज़ गुज़र रहा था.
बस रोज होने वाली मौतें दोगुनी हो गई तो पूरे देश में हंगामा मच गया.
राष्ट्रीय मीडिया में यह खबर नहीं आ पा रही थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र में स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस से हर रोज दो से तीन बच्चों की मौत हो रही है. इसके साथ ही हर रोज़ पांच नवजात शिशु मर रहे थे.
गोरखपुर के डीएम राजीव रौतेला 11 अगस्त की रात आठ बजे पत्रकारों को बता रहे थे कि मेडिकल कॉलेज में औसतन 20 बच्चों की मौत ‘सामान्य’ है. एक अस्पताल में रोज़ 20 बच्चों की मौत को सामान्य मानने के लिए पूर्वांचल के लोगों की चार दशक से ‘कंडीशनिंग’ की गई है अन्यथा इंसेफलाइटिस से 1978 से एक ही अस्पताल में 10 हज़ार बच्चों की मौत पर हंगामा खड़ा हो गया होता.
आज से ठीक 12 वर्ष पहले जब इसी मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस से 1500 से अधिक लोगों जिसमें 90 फीसदी बच्चे थे, काल कवलित हो गए तो थोड़ा हंगामा हुआ. तब यूपीए की सरकार थी, विपक्ष हमलावर हुआ. मंत्रियों के दौरे हुए.
जापानी इंसेफलाइटिस की रोकथाम के लिए टीकाकरण शुरू हुआ जिससे इसके केस कम हुए लेकिन बुनियादी काम 12 वर्ष बाद भी नहीं हुए. इस दौरान नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की सरकार भी बन गई.
इसी मेडिकल कॉलेज से बमुश्किल आधा किलोमीटर दूर मानबेला की चुनावी सभा में उन्होंने अपने सीने की नाप बतायी और इंसेफलाइटिस से बच्चों की मौत पर दुख प्रकट करते हुए कहा था कि सरकार बनने पर सब ठीक हो जाएगा.
मोदी जी प्रधानमंत्री बन गए और इंसेफलाइटिस पर आंदोलन करने का दावा करने वाले योगी आदित्यनाथ अब सूबे के मुख्यमंत्री हैं.
लेकिन बदला क्या? कुछ नहीं. हालात जस के तस बल्कि बद से बदतर हो गए. बड़ी-बड़ी बातें हुईं लेकिन मामूली बातों पर कोई अमल नहीं हुआ.
केंद्र व राज्य की सरकारें मेडिकल कॉलेज को इंसेफलाइटिस व नवजात शिशुओं से जुड़े इलाज की व्यवस्था के लिए 40 करोड़ रुपये के वार्षिक बजट का इंतज़ाम नहीं कर सकी.
जिस मेडिकल कॉलेज में पूरे देश के 60 फीसदी से अधिक इंसेफलाइटिस के केस आते हों वहां मरीज़ों के इलाज, दवा, ऑक्सीजन और मानव संसाधन के लिए सालाना बजट होना चाहिए और इसे हर वित्त वर्ष में जारी कर देना चाहिए ताकि कोई दिक्कत न हो.
आपको जानकार हैरानी होगी कि इंसेफलाइटिस और नियोनेटल वार्ड के ख़र्चे के लिए अभी तक नियमित बजट की व्यवस्था नहीं हो सकी है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हर वर्ष 2500 से 3000 इंसेफलाइटिस के मरीज़ भर्ती होते हैं जिनके लिए दवा, ऑक्सीजन, जांच आदि के लिए धन चाहिए.
यहां पर गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़ मंडल के अलावा बिहार और नेपाल से भी मरीज़ आते हैं। अगस्त, सितंबर, अक्टूबर में मरीज़ों की संख्या 400 से 700 तक पहुंच जाती है.
मेडिकल कॉलेज की ओर से इंसेफलाइटिस से जुड़े करीब 400 चिकित्साकर्मियों के लिए 20 करोड़ के वार्षिक बजट की मांग पांच वर्षों से की जा रही है लेकिन इनके लिए आज तक वार्षिक बजट का इंतज़ाम नहीं हो सका.
योगी सरकार से उम्मीद थी लेकिन वह भी पूरी नहीं हुई.
इसी प्रकार दवाइयों, उपकरणों की मरम्मत व लैबोरेटरी के लिए 7.5 करोड़ की वार्षिक बजट की ज़रूरत है.
यहां पर पीडियाट्रिक आईसीयू में 50 बेड उपलब्ध हैं जबकि हर महीने औसतन 300 मरीज़ भर्ती होते हैं. इसको देखते हुए बड़ी क्षमता का पीडियाट्रिक आईसीयू बनाने के लिए 10 करोड़ रुपये का प्रस्ताव मेडिकल कॉलेज ने शासन को भेजा है जिसे अब तक स्वीकृत नहीं किया गया.
ऑक्सीजन आदि के बजट को दवाइयों में ही शामिल कर दिया गया और इसका अलग से वार्षिक बजट निर्धारित नहीं किया गया. यही कारण है कि बार-बार मेडिकल कॉलेज में दवाइयों, ऑक्सीजन का संकट खड़ा होता रहा है. मौजूदा संकट का कारण भी यही है.
इंसेफलाइटिस से विकलांग हुए बच्चों की चिकित्सकीय सहायता और उनके पुनर्वास के लिए पीएमआर विभाग (फिज़िकल, मेडिसिन एंड रिहैबिलिटेशन) बन तो गया लेकिन यहां के 11 चिकित्साकर्मियों को 27 महीने से वेतन नहीं मिल रहा है. यही कारण है कि तीन चिकित्सक नौकरी छोड़कर चले गए.
28 अगस्त 2016 को केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने मेडिकल कॉलेज का दौरा किया तो कई मरीजों ने उनसे शिकायत की कि दवाइयां बाहर से खरीदनी पड़ रही हैं. इसका कारण यह था कि मेडिकल कॉलेज को दवाइयों के संबंध में जितना धन चाहिए था, उतना मिला नहीं.
14 फरवरी 2016 को मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य ने महानिदेशक चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाएं को इंसेफलाइटिस के इलाज के मद में 37.99 करोड़ रुपये मांगे थे. महानिदेशक ने इस पत्र को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक को भेज कर इस बजट को एनएचएम की राज्य की वार्षिक कार्ययोजना में शामिल करने का अनुरोध किया था लेकिन यह आज तक नहीं हो पाया.
इस बजट में 100 बेड वाले इंसेफलाइटिस वार्ड में स्थित पीआईसीयू को लेवल 3 आईसीयू में अपग्रेड करने और उसके लिए 149 मानव संसाधन के लिए भी 10 करोड़ रुपये का बजट शामिल था.
बजट न मिलने से एक ही वॉर्मर पर तीन से चार नवजात शिशुओं को रखा जा रहा था और परिजनों से यह सहमति ली जा रही थी कि यदि इस कारण संक्रमण से मौत होती है तो मेडिकल कॉलेज ज़िम्मेदार नहीं होगा.
ये हालात इसलिए हैं क्योंकि अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि ये ख़र्चे केंद्र सरकार उठाएगी या राज्य सरकार.
एक माह में दो बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मेडिकल कॉलेज आए. इस दौरान प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा, प्रमुख सचिव स्वास्थ्य भी आए. मीटिंग हुई और बच्चों की मौत रोकने के लिए बड़े-बड़े दावे किए गए.
यहां तक कह दिया गया कि इंसेफलाइटिस के केस कम हो रहे हैं लेकिन ऑक्सीजन के पैसे का भुगतान हो, चिकित्साकर्मियों को वेतन मिले, यह चिंता का विषय नहीं बन सका.
‘द वायर’ ने जुलाई माह के अंत में इंसेफलाइटिस से जुड़े चिकित्साकर्मियों को चार माह से और पीएमआर विभाग के कर्मचारियों को 27 महीने से वेतन न मिलने की ख़बर प्रकाशित की थी.
तब कुछ दबाव बना और 10 व 11 अगस्त को इंसेफलाइटिस वार्ड के चिकित्साकर्मियों को चार माह का वेतन मिला लेकिन पीएमआर के चिकित्साकर्मियों को अब तक वेतन नहीं मिला है.
नवंबर 2016 में लिक्विड ऑक्सीजन की सप्लाई करने वाली कंपनी को नियमित भुगतान नहीं हो रहा था. मार्च 2017 से कंपनी का बकाया 72 लाख रुपये पहुंच गया और उसने ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी.
यही कारण है कि 10 अगस्त की रात से हालात ख़राब हो गए और देखते-देखते 36 बच्चों व 18 वयस्कों की मौत हो गई.
स्थानीय वेब पोर्टल गोरखपुर न्यूज़ लाइन ने 10 अगस्त की शाम को ही मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन संकट के बारे में ख़बर दी थी. इसके बावजूद वैकल्पिक इंतज़ाम करने में कोताही की गई जो मरीज़ों पर भारी पड़ गई.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों में से एक हैं.)