समाज में विचारों की, अाचारों की अौर समझ की नई खिड़कियां खोलते रहने की जरूरत पड़ती है. जो समाज ऐसा करना बंद कर देता है, जो अतीत के गुणगान में लग जाता है, वह अंतत: अपनी ही चोटी में उलझ कर, उसे काट डालता है. हम उसी दौर से गुजर रहे हैं.
अाज अभी हम खोजें कि देश कहां है! मैं भूगोल की बात नहीं कर रहा हूं, भूगोल के भीतर बसने वाले लोगों की बात कर रहा हूं. भूगोल से देश पहचाने जाते हैं, लोगों से देश बनते हैं अौर लोग अगर सर काटने में, घेर कर इंसानों को मारने में, झंडे उछालने में, नारे गुंजाने में, दूसरों को देशद्रोही घोषित करने में, खुद देशभक्ति की जयमाल पहनने में लगे हों तो मानना चाहिए कि देश बनाने का काम स्थगित है.
जब कुप्रथाएं सुप्रथाअों की तरह प्रचारित की जा रही हों, अफवाहें देश के कानून से ज्यादा तेज चलती हों अौर कानून का मतलब अपनी मर्जी से बनाया व बदला जाता हो तब मानना चाहिए कि देश बनाने का काम स्थगित है.
जब नागरिकों को उस अंधेरे दौर में पहुंचाया जा रहा हो जहां बेजान मूर्तियां दूध पीने लगें, जो कहीं है नहीं वही ‘मंकी मैन’ हर कहीं नजर अाने लगे अौर सख्ती से ऐसे ‘अंधों’ को अंदर करने के बजाय पुलिस उसकी खोज में टोलियां बना कर घूमने लगे तब मानना चाहिए कि देश बनाने का काम स्थगित है…
अौर अब रात के अंधेरे में, अंधकार अोढ़ कर कोई है कि जो लड़कियों-महिलाअों की चोटियां काट रहा है ! कौन है, एक है कि गिरोह है; यह चोटीकटुअा एक खास जगह पर करामात कर रहा है कि सारे देश में फैला है; पहली वारदात जिसके घर में हुई वह घर किसका था, अौर उसके यहां से यह खबर किसने बाहर फैलाई; अौर दूसरा घर किसका था कि जहां चोटी काटी गई, अौर उन दोनों घरों के बीच दूरी कितनी थी अौर उनका रिश्ता कुछ था कि नहीं, ऐसे ढेरों सवाल हैं कि जिनकी सख्ती से पड़ताल की जानी चाहिए थी.
किसने की, उसने क्या पाया अौर देश को क्या बताया? वह अादमी कौन था कि जिसने इस शैतानी को खबर बना कर फैलाने में फुर्ती दिखाई ?
अाप देखेंगे तो एक सिलसिला मिलेगा ऐसी अफवाहों का जो अकारण, अचानक किसी कोने से उठाई जाती हैं. उनके निशाने पर होती हैं मानवीय कमजोरियां ! यह समाज को बस में रखने का एक हथियार है.
मुल्ला-मौलवी,पंडे-पुजारी, अोझा-गुणी से ले कर ये तथाकथित साधक-भगवान, मंडलेश्वर-महामंडलेश्वर सब एक ही काम तो करते हैं कि इंसान का खुद पर से भरोसा तोड़ते हैं. सब जीने की बैसाखियां बांटते हैं ताकि कोई अपने विश्वासों के पांवों पर न चल सके.
बैसाखी वाली जिंदगी वही कबूल करता है जो डरा हुअा, हारा हुअा अौर खोया हुअा होता है. चमत्कारों में भरोसा रखनेवाला समाज पुरुषार्थहीन बनता है; डरा हुअा समाज कायर बनता है. प्रतिगामी ताकतें ऐसा ही समाज चाहती हैं जो कुछ करता न हो, कुछ करने से डरता हो.
अाप हैरान मत होइएगा कि मूर्तियों को दूध पिलाने वाला समाज कभी किसी की दूध की फिक्र नहीं करता है; चोटी काटने वाला समाज कभी कमजोरों की ( अाप यहां अौरतें पढ़ें ! ) ढाल बन कर खड़ा नहीं होता है.
अफवाह या अंधविश्वास की घटनाएं मूर्खता या मासूमियत से नहीं की जाती हैं, उनके पीछे दूरगामी सोच होती है अौर अपनी मुट्ठी मजबूत करने की सोच होती है.
जब-जब ऐसा कोई शगूफा हुअा है, अाप गौर कीजिए कि कोई महंथ-पंडित-मौलवी-फादर अागे अा कर इसका निषेध करता है? कोई सरकार सामने अा कर, खुल कर कहती है कि हमारे राज्य में ऐसी एक भी वारदात हुई तो बर्दाश्त नहीं की जाएगी अौर सार्वजनिक जीवन को अशांत करने के अारोप में किसी को भी जेल भेजा सकता है?
पुलिस सड़कों पर उतर अाती है अौर ऐसी दबिश चलती है कि लोग सीधी राह चलने पर मजबूर हों? जब-जब ऐसी घटनाएं घटी हैं, अापने अपने तथाकथित समाचार माध्यमों का चेहरा देखा है?
किन-किन अखबारों अौर किन-किन चैनलों का नाम लें हम!! समाचार अौर प्रचार, अफवाह अौर अात्मश्लाघा, अात्मस्तुति अौर परनिंदा, असत्य अौर अहंकार, खबर अौर काले शीर्षक तथा समाज अौर सद् विवेक के बीच की रेखा, भले कितनी भी बारीक हो, भूलने या भुलाने जैसी नहीं है, यह बात समाचार-तंत्र के हमारे लोग सिरे से भूल ही गये हैं.
वे समाचार देते नहीं, खबरें बेचते हैं अौर बेचने का सीधा नियम है कि लोगों की मत सोचे, उन्हें डराअो, भरमाअो, ललचाअो अौर उनकी सबसे कमजोर नस पर वार करो. लेकिन बाजार भले भूल जाए कि ग्राहक माल नहीं, इंसान है, समाज यह कैसे भूल सकता है कि वह दूसरा कुछ नहीं, इंसानों का जोड़ है!
एक साबित दिमाग समाचार माध्यम का जितना बड़ा काम यह है कि वह तटस्थता से, विवेक से लोगों तक सारे ही समाचार पहुंचाए, वैसा ही अौर उतना ही पवित्र दायित्व उसका यह भी है कि वह कुसमाचार, अ-समाचार लोगों तक न पहुंचाए अौर हर वक्त सावधानी से यह फैसला करता रहे कि क्या पहुंचाना है, क्या नहीं पहुंचाना है.
यह विवेक ही कोरे कागज को अखबार बनाता है अौर अखबारों को मूंगफली बांधने की रद्दी में बदल देता है.
हम यह न भूलें कि सत्ता की ताकत से समाज को अपनी मुट्ठी में करने के अाधुनिक चलन की तरह ही अंधविश्वास की ताकत से समाज को अपनी मुट्ठी में करने का चलन भी रहा है अौर यह बहुत प्राचीन है, बहुत लाभकारी भी!
चोटी काटने की ‘कुखबर’ की अाड़ में बौराई भीड़ ने एक बुढ़िया की हत्या कर दी अौर वह बुढ़िया दलित समाज से अाती थी. यहां खोजने की खबर यह है कि चोटी के बदले गला काटने के पीछे कहीं वे ताकतें तो अपना खेल नहीं खेल रही हैं जो हमेशा से दलितविरोधी रही हैं अौर जातीय अाधार पर समाज को विभाजित रखना चाहती है?
अगर ऐसा नहीं है तो यह भी समाचार ही है अौर हमारे मतलब का समाचार है. लेकिन ऐसी पड़ताल किसने की? अखबारों के चीखते शीर्षक अौर दहाड़ते एंकर उस अफवाह को हवा दे कर तूफान में बदल देने से अलग कुछ नहीं कर सके! कोई कहता है- ‘ वे क्या करें, उनकी चोटी तो पहले से कटी हुई है !’ इसे ही कहते हैं – अांख के अंधे, नाम नयनसुख !
बार-बार सांस खींचने की तरह समाज में बार-बार मूल्यों का सर्जन करना पड़ता है; उसे बार-बार पटरी पर रखने का उद्यम करना पड़ता है. येनकेन प्रकारेण सत्ता हथिया कर पांच साल नींद लेने वाला खेल यह नहीं है.
घर बंद कर छोड़ दो तो भी उसमें धूल जमती है कि नहीं; ठीक उसी तरह समाज में नई हलचल बंद कर दो तो प्रतिगामी विचारों की धूल उसे गंदा कर, सड़ाने लगती है. इसलिए घर की तरह समाज को भी झाड़ते-पोंछते रहने की जरूरत पड़ती है.
समाज में विचारों की, अाचारों की अौर समझ की नई खिड़कियां खोलते रहने की जरूरत पड़ती है. जो समाज ऐसा करना बंद कर देता है, जो समाज अतीत के गुणगान में लग जाता है, वह समाज अंतत: अपनी ही चोटी में उलझ कर, उसे काट डालता है. हम उसी दौर से गुजर रहे हैं.
(लेखक गांधीवादी विचारक हैं)