पिछले कुछ समय से महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडल की तमाम कोशिशें अपने आप स्वतः स्फूर्त ढंग से नहीं हो रही हैं, यह एक सुनियोजित योजना का हिस्सा है. यह एक तरह से ऐसे झुंड की सियासत को महिमामंडित करना है, जो अगर आगे बढ़ती है तो निश्चित ही भारत की एकता और अखंडता के लिए ख़तरा बन सकती है.
(यह लेख मूल रूप से 30 जनवरी 2021 को प्रकाशित किया गया था.)
जनवरी के दूसरे सप्ताह में ग्वालियर के हिंदू महासभा के दफ्तर में ‘गोडसे ज्ञानशाला’ की धूम-धड़ाके से की गई शुरुआत के बाद- जिसके बहाने उन लोगों का इरादा ‘नाथूराम गोडसे के योगदानों और देशभक्ति को’ लोगों तक पहुंचाना था, जो कोशिश फिलवक्त़ खटाई में पड़ गई है.
जिस समूह ने ‘गोडसे के पथ का अनुगमन करने के नाम पर’ ‘गोडसे कार्यशाला’ भी चलाई है, अब ख़बर यह भी आई है कि वाराणसी के नाट्य महोत्सव में ‘गोडसे’ के नाम पर एक नाटक भी खेला जाएगा, जो एक तरह से गांधी के बरअक्स गोडसे को खड़ा करने की कोशिश करेगा.
मालूम हो गांधी की हत्या को 73 साल पूरे हो गए हैं. साल 1948 में 30 जनवरी को नाथूराम गोडसे नामक शख्स- जो हिंदुत्ववादी राजनीति का अनुयायी था- ने उन पर गोलियां चलाई थीं, जब वह प्रार्थना के लिए जा रहे थे.
जिस महात्मा गांधी के जिंदा रहते- जो अपने आप को सनातनी हिंदू कहते थे- उनकी सियासत जोर नहीं पकड़ पाई थी और अंग्रेजों से लड़ने के बजाय वह जनता को आपस में बांटने में मुब्तिला थे और तरह-तरह की हरकतें कर रहे थे, उस गांधी की मौत से भी उन्हें शायद सुकून नहीं मिला है.
उन्हें इस बात से भी कतई आत्मग्लानि नहीं होती कि हिंदुत्ववादियों के एक गिरोह , जिन्हें 21वीं सदी की जुबां में ‘आतंकी माॅड्यूल’ कहा जा सकता है, जिसके मास्टरमाइंड कभी चिह्नित भी नहीं किए जा सके, ने 20वीं सदी की इस अज़ीम शख्सियत की हत्या की थी.
अगर धार्मिक लोगों की जुबां में भी बोले तो वह कहते हैं कि मृत्यु के बाद सारे बैर खत्म हो जाते हैं. संस्कृत में बाकायदा सुभाषित है, ‘मरणान्ति वैराणि’.
यह अलग बात है कि हिंदुत्ववादियों के लिए- जिन्होंने हिंदू धर्म की दुहाई देते हुए अपनी सियासत की है और आज समाज एवं राज्य सत्ता में शीर्ष पर दिखते हैं- यह बेमतलब सा है.
स्पष्ट है कि उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा कायम इस नज़ीर से भी कोई सरोकार नहीं है कि बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के सेनापति अफजल खान- जिन्होंने 10 हजार सेना के साथ उन पर आक्रमण किया था और वार्ता चलाने के बहाने शिवाजी को खत्म करने की उसकी योजना थी- उसके उस संघर्ष में मारे जाने पर शिवाजी महाराज ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया था और उसकी कब्र का भी निर्माण किया था. इतना ही नहीं कब्र की देखभाल के लिए भी उन्होंने नियमित फंड मिलता रहे, इसकी भी व्यवस्था की थी.
लेकिन गोडसे ज्ञानशाला हो, गोडसे कार्यशाला हो या गोडसे के नाम पर नाटक खेला जाना हो, यह तमाम कोशिशें अपने आप स्वत: स्फूर्त ढंग से नहीं हो रही हैं. वह एक सुनियोजित योजना का हिस्सा है, जिसकी तमाम मिसालें पिछले छह सालों से देखने में आ रही हैं.
2014 में- जब भाजपा की अगुआई वाली सरकार केंद्र में पहुंची- तब ग्लोबल हिंदू फाउंडेशन की तरफ से केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय को एक पत्रा लिखा गया था कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि नाथूराम गोडसे को एक ‘राष्ट्रीय हीरो’ था और उसके मुताबिक भारतीय स्कूलों के पाठ्य-पुस्तकों में बदलाव करे.
इस पत्र में इतिहास को बाकायदा तोड़-मरोड़ कर लिखा गया था कि गोडसे ने ‘ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष में भूमिका अदा की थी.’
उसी वक्त सम्मानित अखबारों ने और विश्लेषकों ने इस कवायद को लेकर उन्हें आगाह करने की कोशिश की थी. एक अग्रणी अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा था कि किस तरह गोडसे का महिमामंडन देश में बदले की ऐसी सियासत को बढ़ावा देना है, जो देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सकती है. हिंदुस्तान टाइम्स अखबार के संपादकीय (29 दिसंबर 2014 को प्रकाशित) में इसी बात को रेखांकित किया गया था:
गोडसे का उत्सव मनाना एक तरह से ऐसे झुंड की सियासत को महिमामंडित करना है जो अगर आगे बढ़ती है तो निश्चित ही भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकती है. हमने समझौता एक्सप्रेस बम धमाकों में गोडसे की पद्धतियों की प्रतिध्वनि सुनी थी जबकि अभियुक्त, जो भारत की सैन्य परंपराओं की अपनी ही समझदारी से प्रेरित होकर ट्रेन से यात्रा कर रहे पाकिस्तानी नागरिकों को बम विस्फोट से मारने के उद्यम में जुटे.
इनकी ही तरह गोडसे भी कोई कम भटका हुआ अतिवादी नहीं था; जिसकी खुल्लमखुल्ला हिमायत एक तरह से आने वाले दिनों में दक्षिणपंथी राजनीति किस किस्म की शक्ल ग्रहण करने जा रही है, उसका संकेत अवश्य देती है. अगर सरल तरीके से देखें तो गोडसे ने एक बूढ़े आदमी की दिनदहाड़े हत्या की और इस मुल्क को उसका किसी भी तरह महिमामंडन नहीं करना चाहिए.
निश्चित ही वह इतना जानते हैं कि वह इस हकीकत को बदल नहीं सकते हैं कि महात्मा गांधी की हत्या आजाद भारत की सबसे पहली आतंकी कार्रवाई थी. अब चूंकि वह इस इतिहास को मिटा नहीं सकते तो इसके लिए वह तरह-तरह की हरकतों में जुटे रहते हैं.
कुछ साल पहले प्रदीप दलवी नामक लेखक द्वारा रचे ‘मी नाथूराम बोलतोय’ (मैं नाथूराम बोल रहा हूं) नाटक की महाराष्ट्र में काफी चर्चा थी, जो बेहद शातिराना ढंग से गोडसे के मानवद्रोही कारनामे को वैधता प्रदान करता दिखता था.
जानकारों के मुताबिक बेहद चालाकी के साथ नाटक में सवर्ण हिंदू मिथकों का प्रयोग किया गया है. मराठी के विद्वान यशवंत दिनकर फडके ने इस नाटक का विश्लेषण करते हुए बाकायदा एक लेखमाला लिखी थी, जिसका शीर्षक था ‘नाथूरामायण’, जिसमें इन तमाम बातों को विस्तार से लिखा गया था.
इसे आप हिंदूत्ववादी विचारों की गहरी पैठ कह सकते हैं मगर मराठी में गांधी हत्या को ‘गांधी वध’ कहने वालों की तादाद काफी अधिक है. (मालूम हो कि वध गलत व्यक्ति का किया जाता है, कंस की हत्या नहीं बल्कि कंस का वध अधिक प्रचलित है.)
इसमें एक अन्य तरीका है अपने लिए अनुकूल एक सैनिटाइज्ड/साफ-सुथरा गांधी गढ़ना जिसे वह अपने एजेंडे का वाहक दिखा सकें. दरअसल गांधीजी के नाम की इस कदर लोकप्रियता रही है कि इन जमातों के लिए आधिकारिक तौर पर उससे दूरी बनाए रखना लंबे समय तक मुमकिन नहीं रहा है, लिहाजा उन्होंने उनके नाम को अपने प्रातः स्मरणीयों में शामिल किया, अलबत्ता वह इस नाम से तौबा करने या उसके न्यूनीकरण करने की कोशिश में लगातार मुब्तिला रहे.
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल की दो घटनाओं पर रोशनी डालना इस संदर्भ में समीचीन होगा.
उदाहरण के तौर पर उन दिनों गांधी जयंती पर सरकार की तरफ से एक विज्ञापन छपा था, जिसमें गांधी के नाम से एक वक्तव्य उद्धृत किया गया था, जो तथ्यत: गलत था अर्थात गांधीजी द्वारा दिया नहीं गया था और दूसरे वह हिंदूत्व की असमावेशी विचारधारा एवं नफरत पर टिकी कार्रवाइयों को औचित्य प्रदान करता दिखता था. जब उस वक्तव्य पर हंगामा मचा, तब सरकार की तरफ से एक कमजोर सी सफाई दी गई थी.
गांधीजी की रचनाओं के ‘पुनर्सम्पादन’ की उनकी कोशिश भी उन्हीं दिनों उजागर हुई थी, जिसके बेपर्द होने पर तत्कालीन सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे. इकोनाॅमिक एंड पोलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) जैसी स्थापित पत्रिका में गांधी विचारों के जानकार विद्वान त्रिदिप सुहरुद ने इसे लेकर एक लंबा लेख भी लिखा था.
इसमें उन्होंने तथ्यों के साथ यह बात प्रमाणित की थी कि ‘महात्मा गांधी की संकलित रचनाओं के पुनर्सम्पादन की यह कवायद अपारदर्शी और दोषपूर्ण है और एक ऐसी अकार्यक्षमता और बेरूखी का प्रदर्शन करती है, जिसके चलते संशोधित प्रकाशन को स्टैंडर्ड संदर्भ ग्रंथ नहीं माना जा सकेगा. इस नए संस्करण को खारिज किया जाना चाहिए और मूल संकलित रचनाओं को गांधी की रचनाओं एवं वक्तव्यों के एकमात्र और सबसे आधिकारिक संस्करण के तौर पर बहाल किया जाना चाहिए.’
क्या यह कहना मुनासिब होगा कि गांधी के प्रति यह गहरा द्वेष और गोडसे के प्रति इस अत्यधिक प्रेम का ही प्रतिबिम्बन है कि तीन साल पहले यूपी के एक शहर में हिंदुत्ववादियों ने बाकायदा गांधी की प्रतिमा पर गोलियां दाग कर उनकी उस ‘मौत को नए सिरे से अभिनीत किया’ वह प्रसंग हम सभी के सामने रहा है, जिसमें ‘महात्मा’ गोडसे के नाम से नारे भी लगे थे और उसकी मूर्ति पर माला भी चढ़ाई गई थी.
गांधी की इस ‘नकली’ हत्या एक तरह से ‘न्यू इंडिया’ की झलक के तौर पर सामने आ रही थी, जहां आधुनिक भारत के निर्माताओं में शुमार की जाती रही शख्सियतों- गांधी, नेहरू, पटेल, आज़ाद या आंबेडकर आदि- के स्थान पर तरह-तरह की विवादास्पद शख्सियतों को प्रोजेक्ट करने की कवायद तेज हो चली दिखती है.
अगर यही सिलसिला चलता रहा तो विश्लेषकों का यह भी कहना था कि वह दिन दूर नहीं जब गोडसे को राष्ट्रीय हीरो के तौर पर पेश किया जाए. गांधी की पुण्यतिथि या उनकी शहादत का दिन (30 जनवरी) अब महज औपचारिकता बन कर रह गया है. गांधी के बजाय अब गोडसे स्मृति की अधिक चर्चा है.
इस पृष्ठभूमि में यह अदद सवाल पूछना समीचीन हो सकता है कि गांधी स्मृति- जो दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग पर स्थित है, जिसे पहले बिड़ला हाउस के नाम से जाना जाता था- जहां गांधी ने अपनी जिंदगी के आखिरी 144 दिन गुजारे और उसी जगह पर 30 जनवरी की शाम गोडसे ने उनकी हत्या की थी- को कितने लोगों ने देखा है?
आखिर ऐसी क्या वजह है कि दिल्ली के तमाम स्कूल जब अपने विद्यार्थियों को दिल्ली दर्शन के लिए ले जाते हैं, तो उस जगह पर ले जाना गंवारा नहीं करते, जो गांधी के अंतिम दिनों की शरणगाह थी, जहां रोज शाम वह प्रार्थना सभाओं का आयोजन करते थे और जहां उन्होंने अपने जीवन की आखिरी लड़ाई लड़ी थी- आमरण अनशन के रूप में ताकि दिल्ली में अमन चैन कायम हो जाए.
कभी एक दूसरे के कंधे से कंधा मिला कर लड़ रहे लोगों को एक दूसरे के खून का प्यासा होते देख उन्होंने अंत तक कोशिश की और कम से कम यह तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी कुर्बानी ने इसे एक हद तक पूरा भी किया था.
ऐसी यात्रा कम से कम छात्रों के लिए अपने ही इतिहास के उन तमाम पन्नों को खोल सकती है कि और वह जान सकते हैं कि आस्था के नाम पर लोग जब एक दूसरे के खून का प्यासा हो जाते हैं तो क्या हो सकता है.
छात्र अपने इतिहास के बारे में जान सकते हैं कि धर्म और राजनीति का संमिश्रण किस तरह खतरनाक हो सकता है. वे जान सकते हैं कि गोहत्या पर सरकारी कानून बनाने को लेकर उनके विचार क्या थे और देशद्रोह की बात को वह किस नजरिये से देखते थे?
यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि सितंबर 1947 को महात्मा गांधी कोलकाता से दिल्ली पहुंचे थे, जहां उन्होंने अपने इसी किस्म के संघर्ष के बलबूते विभिन्न आस्थाओं की दुहाई देने वाले दंगाइयों को झुकने के लिए मजबूर किया था.
उस साल चार सितंबर की शाम कोलकाता के हिंदू-मुस्लिम तथा सिख नेताओं को संबोधित करते हुए- जो 72 घंटे से चल रही गांधी की भूख हड़ताल से आपसी समझौते तक पहुंचे थे और उन्होंने कोलकाता को दंगों से दूर रखने का आश्वासन गांधी को दिया था- गांधी ने साफ कहा था:
कोलकाता के पास आज भारत में अमन-चैन कायम होने की चाभी है. अगर यहां छोटी-सी घटना होती है तो बाकी जगह पर उसकी प्रतिक्रिया होगी. अगर बाकी मुल्क में आग भी लग जाए तो यह आप की जिम्मेदारी बनती है कि कोलकाता को आग के हवाले जाने से बचाएं.’. (फ्रीडम ऐट मिडनाइट, पेज 310, डाॅमिनिक लैपियर एवं लैरी काॅलिन्स, विकास पब्लिशिंग हाउस, 1984)
रेखांकित करने वाली बात यह है कि कोलकाता का यह ‘चमत्कार’ कायम रहा था, भले ही पंजाब या पाकिस्तान के कराची, लाहौर आदि में अभी स्थिति अधिक बदतर होने वाली थी, मगर कोलकातावासियों ने अपने वायदे को बखूबी निभाया था.
कोलकाता में उनके साथ मौजूद उनके पुराने मित्र सी. राजगोपालाचारी- जो बाद में देश के पहले गवर्नर जनरल बने- ने लिखा था, ‘गांधी ने तमाम चीजों को हासिल किया है, मगर कोलकाता में उन्होंने बुराई पर जो जीत हासिल की है, उससे आश्चर्यजनक चीज तो आजादी भी नहीं थी.’
याद रहे दिल्ली से पाकिस्तान जाने का उनका इरादा था, ताकि वहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों के खिलाफ वह आवाज बुलंद कर सकें.
दिल्ली के इस अंतिम प्रवास में जब वह मुसलमानों की हिफाजत के लिए सक्रिय रहे, तब हिंदूवादियों ने उन पर यह आरोप लगाए थे कि वह ‘मुस्लिमपरस्त’ हैं, तो उन्होंने सीधा फाॅर्मूला बताया था, ‘भारत में मैं मुस्लिम परस्त हूं तो पाकिस्तान में हिंदू परस्त हूं.’
अर्थात कहीं कोई अल्पमत में है और इसी वजह से उस पर हमले हो रहे हैं तो वह उसके साथ खड़े हैं. ऐसे लोगों को वह नौआखली की अपनी कई माह की यात्रा का अनुभव भी बताते, जहां वह कई माह रुके थे और मुस्लिम बहुमत के हाथों हिंदू अल्पमत पर हो रहे हमलों के विरोध में अमन कायम करने की, आपसी सदभाव कायम करने की उन्होंने कोशिशें की थीं.
अपनी जिंदगी का लंबा हिस्सा उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष में बिताए गांधी उस वक्त एक अलग किस्म के संघर्ष में उलझे हुए थे, जब वह अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े थे, जो एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके थे.
जिस गांधी के नाम की जय कभी पूरे हिंदुस्तान में लगती थी, वहां गांधी मुर्दाबाद के नारे लग रहे थे, बिड़ला हाउस के बाहर शरणार्थी गांधी की कोशिशों का विरोध करते थे.
यह बात छात्रों को बताने की जरूरत महसूस क्यों नहीं की जाती रही है, ताकि वह बचपन से ही जानें कि सत्य की हिफाजत के लिए, न्याय की हिफाजत के लिए कभी अकेले भी खड़े रहना पड़ता है और अपनी जान की बाजी भी लगानी पड़ती है.
और यह ऐसा सबक है जो न केवल सार्वजनिक जीवन में बल्कि व्यक्तिगत जीवन में, अध्ययन में, नई-नई बातों के अन्वेषण की तरफ झुकने के लिए उन्हें प्रेरित कर सकता है.
आज के वक्त में जबकि उन्हें बुनियादी मसलों से दूर करके हिंदू-मुस्लिम की डिबेट में उलझाए रखा जा रहा है, बकौल पत्रकार रवीश कुमार उन्हें दंगाई बनाने के प्रोजेक्ट पर लगातार काम हो रहा है, ऐसे समय में यह सरल सी लगने वाली बात कितनी जरूरी लगती दिखती है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)