गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा मामले में जिन 37 लोगों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हुई है, उनमें मेधा पाटकर भी हैं. उन्होंने कहा कि कृषि क़ानून सिर्फ किसानों का मुद्दा नहीं है बल्कि खेती और उससे जुड़ा हर शख़्स इनसे प्रभावित होगा. लोकतंत्र को बचाने के लिए एक साथ खड़े होने की ज़रूरत है.
नई दिल्लीः सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर का कहना है कि मौजूदा किसान आंदोलन को सत्याग्रह के मार्ग को स्वीकार कर संप्रदायवाद और हिंसा को खारिज करना चाहिए.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में गणतंत्र दिवस के मौके पर किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा में जिन 37 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है, उनमें से एक मेधा पाटकर भी हैं.
पाटकर ने शनिवार को महात्मा गांधी की 73वीं पुण्यतिथि पर लोकशाही उत्सव समिति द्वारा आयोजित कार्यक्रम में यह बात कही.
उन्होंने कहा, ’26 जनवरी को जो हुआ, उसे किसानों के प्रदर्शन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. अब सवाल यह है कि क्या प्रदर्शन हिंसक था या अहिंसक और इससे क्या हासिल हुआ? हमें यह समझने की जरूरत है कि किसान चेहरे कौन हैं और वे किस तरफ खड़े हैं?’
उन्होंने आगे कहा, ‘प्रदर्शनकारी बेवकूफ नहीं हैं, उन्हें पता है कि अगर वे पत्थर उठाएंगे तो सुरक्षाबल बंदूकें निकालेंगे. वोट बैंक की चाह में हिंसा का समर्थन करने वाला प्रशासन हमें शांति से जीने नहीं देगा इसलिए आइए अकेले प्रदर्शन करें. इसी तरह हम अहिंसा के मार्ग पर आगे बढ़ पाएंगे.’
पाटकर ने कहा कि कई लोगों ने धरने पर बैठने की जरूरत और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन की वजह से हुई समस्याओं पर सवाल उठाएं. संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा किए गए आंदोलन की भूमिका सिर्फ तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की नहीं बल्कि केंद्र सरकार के इस तरह के कदमों को रोकने की है, जिनसे कई लोग प्रभावित होते हैं.
उन्होंने कहा, ‘बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिकारियों ने भूमि अधिकारों को लेकर लड़ाई लड़ी लेकिन आजादी के सात दशकों बाद भी हमारे देश में हर 17 मिनट में एक किसान आत्महत्या करने को मजबूर है. अगर इसने आपको झकझोरा नहीं है कि जो किसान आपके आराम के लिए खून और पसीना बहाता है, उनके साथ खड़े होना हमारे लिए जरूरी है.’
उन्होंने कहा, ‘यह सिर्फ किसानों का मुद्दा नहीं है बल्कि मजदूरों, महिलाओं, दलितों और आदिवासियों का भी मामला है. कृषि और उससे जुड़े हुए हर शख्स इन कानूनों से प्रभावित होगा. हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए एक साथ खड़े होने की जरूरत है.’
किसानों की दो महत्वपूर्ण मांगें हैं. वे कर्ज के बोझ से मुक्ति चाहते हैं और अपनी उपज का सही दाम चाहते हैं.
उन्होंने कहा कि नए कृषि कानूनों का उद्देश्य कृषि सेक्टर का निजीकरण और निगमीकरम है, जिससे सिर्फ किसान ही नहीं बल्कि उपभोक्ता भी प्रभावित होंगे.
इस कार्यक्रम में मौजूद पुणे के सोसाइटी फॉर प्रोमोटिंग पार्टिसिपेटिव ईकोसिस्टम मैनेजमेंट की संस्थापक सदस्य सीम कुलकर्णी ने कहा, ‘जब खेती में मजदूरी की जरूरत होती है तो महिलाएं बहुमत में होती हैं. महिलाएं सड़कों पर हैं और उनके साथ उनके पुरूष साथी ट्रैक्टरों पर हैं क्योंकि कृषि कानूनों ने इन दोनों को प्रभावित किया है.’