इसमें कोई शक नहीं कि रामायण और महाभारत जैसी मिथकीय गाथाओं का भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर कहीं व्यापक असर पड़ा, मगर जो मानक बुनियाद ने बनाया, उसे फिर नहीं बनाया जा सका.
1987 में जब टेलीविजन पर बुनियाद सीरियल का प्रसारण हुआ, तब यह भारत में टेलीविजन धारावाहिकों के लिए एक कसौटी बन गया. उंगली पर गिने जा सकने वाले चंद धारावाहिकों को छोड़ दें, तो तब से लेकर अब तक कोई भी धारावाहिक उस ऊंचाई को नहीं छू सका है.
बुनियाद के बनने और टीवी पर आने की कहानी 1984 में शुरू होती है. मैंने नाज़िया और ज़ोहेब हसन को लेकर भारत का पहला म्यूजिक वीडियो शूट किया था (यंग तरंग), जिसे एक प्रायोजित कार्यक्रम के तौर पर प्रसारित किया गया था. अख़बारों में इसकी खूब चर्चा हुई थी.
इसके ठीक बाद मेरे पास, मेरे निर्देशक दोस्त रमेश सिप्पी का फोन आया, जो उस वक्त सागर फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. रमेश ने मुझसे तुरंत मिलने की इच्छा जताई और पूछा कि क्या मैं मड आइलैंड पर उनकी फिल्म के सेट पर आकर उनसे मिल सकता हूं.
उन्होंने कहा कि वे सिप्पी फिल्म्स का एक वीडियो और टीवी डिविज़न शुरू करना चाहते हैं और चाहते हैं कि मैं उसका हिस्सा बनूं. मेरे रमेश और उनके पिता जीपी सिप्पी के साथ 1969 से ही काफी दोस्ताना संबंध थे, इसलिए मैं तुरंत इसके लिए तैयार हो गया.
सिप्पी सीनियर उस वक्त, फिल्म एवं टीवी प्रोड्यूसर्स गिल्ड के अध्यक्ष थे और मैं उपाध्यक्ष था. हम अक्सर सरकारी अधिकारियों से मिलने के लिए दिल्ली जाया करते थे. यही वह वक्त था, जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने टीवी प्रोग्राम निर्माण का दरवाज़ा निजी निर्माताओं के लिए खोलने का फैसला किया था.
ऐसी ही एक मुलाकात में उस समय के सूचना-प्रसारण सचिव एसएस गिल और उस वक्त दूरदर्शन के महानिदेशक हरीश खन्ना ने हमसे पूछा कि क्या हम दूरदर्शन के लिए कार्यक्रमों का निर्माण करने में दिलचस्पी रखते हैं?
हम तुरंत इस प्रस्ताव पर तैयार हो गए. मैंने उन्हें कुछ हफ्ते के अंदर ही प्रायोगिक तौर पर बनाए गए कुछ कार्यक्रमों के साथ लौटने का भरोसा दिलाया.
दूरदर्शन के शीर्ष अधिकारियों ने हमसे एक और प्रोजेक्ट हाथ में लेने को कहा, जिसका प्रस्ताव उनके पास आया था. ‘हमलोग’ (धारावाहिक) की भारी सफलता के बाद, इसके लेखक (मनोहर श्याम जोशी) ने भारत के विभाजन पर आधारित एक धारवाहिक की स्टोरीलाइन उन्हें सौंपी थी.
उन्होंने हमें इसकी सिनोप्सिस पढ़ने को दी. हम इसके लिए राजी हो गए. मुंबई लौटने पर हमने रमेश से मुलाकात की, जिसने इसे लेकर हमारे जितना ही उत्साह दिखाया. रमेश ने मुझे एक्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनने का प्रस्ताव दिया और इस प्रोजेक्ट को अमलीजामा पहनाने का भार मुझे सौंप दिया.
मनोहर श्याम जोशी को बंबई (जिस नाम से तब शहर को जाना जाता था) बुलाया गया. जब वे पत्रकार हुआ करते थे, तब मेरी उनसे अनौपचारिक मुलाकातें हुई थीं. इस बीच में मैंने कुछ प्रायोगिक कार्यक्रमों की शूटिंग की, जिनमें से दो, ‘छपते-छपते’ (जिसका निर्देशन, उस समय नए-नए आए सुधीर मिश्रा ने किया था) और ‘अपने आप’ को स्वीकृति मिल गई. और इस तरह से सिप्पी फिल्म्स ने टेलीविजन की दुनिया में कदम रखा.
अगले साल, यानी 1985 में जब रमेश फिल्म सागर बना चुके थे और मैंने निर्देशक के तौर पर अपनी पहली फिल्म शीशे के घर तुरंत समाप्त की थी, हमने मिलकर बुनियाद पर काम करना शुरू किया.
मनोहर श्याम जोशी बंबई के लंबे दौरों पर आया करते थे. मैं और रमेश उनके साथ हर रोज़ घंटों तक रमेश के वलकवेश्वर वाले घर पर बैठा करते थे और 104 एपिसोड वाले प्रस्तावित धारावाहिक की स्टोरीलाइन पर माथापच्ची करते.
इन बहसों के आरंभ में ही हमने इस विषय के जानकारों को अपने साथ जोड़ने का फैसला किया, जो हमें विभाजन से पहले के पंजाब के जीवन और समय के बारे में बता सकें.
उपन्यासकार कृष्णा सोबती और पुष्पेश पंत को बतौर कंसल्टेंट, इस प्रोजेक्ट से जोड़ लिया गया. छह महीने में हमने कहानी लिख ली थी और जोशी जी ने साथ ही साथ पहले 26 एपिसोड की स्क्रिप्ट को लिखने का काम भी शुरू कर दिया था.
अपने बड़े फलक के कारण यह एक बेहद चुनौतीपूर्ण काम था. इस धारावाहिक की कहानी के भीतर कई पीढ़ियों की कहानियां कही जानी थी. लेकिन, लेखक को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने न सिर्फ चरित्रों पर बहुत गहराई और तफसील से काम किया था, बल्कि एक काफी दिलचस्प स्टोरीलाइन भी तैयार की थी.
लाहौर से चलकर आने वाले एक उच्च-मध्यवर्गीय पंजाबी परिवार की चार पीढ़ियों की 1920 के दशक से लेकर 1950 के दशक के बीच करीब 50 सालों में फैली हुई इस महागाथा में कई रोचक उप-कथाएं थी.
धारावाहिक के मुख्य किरदारों के जीवन और समय को बेहद जतन से उकेरने के कारण यह बेहद ख़ास बन गया. इसकी साज-सज्जा, कॉस्ट्यूम (परिधान), खान-पान, गाने और भाषा, ये सब काफी प्रामाणिकता लिए हुए थे.
रमेश ने भी अपने रचनात्मक कौशल का पूरा इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी महागाथा का निर्माण किया, जिसमें छोटी-छोटी बारीकियों का भी पूरा ध्यान रखा गया था.
मंजे हुए अनुभवी अभिनेताओं से लेकर नए अभिनेताओं तक, हर किसी ने शानदार अभिनय किया. इस पूरे धारावाहिक को किसी फिल्म की तरह फिल्माया गया था. इसकी 200 लोगों की एक बड़ी यूनिट थी, जो एक तरह से 15 महीनों तक उत्तरी बंबई की फिल्म सिटी में ही स्थायी तौर पर बसेरा बनाए रही.
वहां एक रसोई की व्यवस्था की गई थी, जिसमें दिन में तीन बार स्वादिष्ट खाना बना करता था. वहां लगातार चहल-पहल बनी रहती थी. जैसे ही लेखकों की तरफ से नया दृश्य आता था, नए अभिनेताओं को कास्ट किया जाता था और दृश्य को उम्दा तरीके से फिल्माया जाता था.
सिप्पी सीनियर, रमेश और उनके भाई विजय और मैंने यह फैसला कि चूंकि सिप्पी फिल्म्स बड़े बजट वाली फिल्में बनाने की अभ्यस्त रही है, इसलिए मैं इस धारावाहिक के लिए ऐसे अभिनेताओं और तकनीकी सहयोगियों को इकट्ठा करूंगा जो टीवी के सीमित बजट के अभ्यस्त हों.
स्वाभाविक तौर पर इसके लिए मैंने कला सिनेमा के अपने सहयोगियों की ओर रुख़ किया. मसलन, केके महाजन, जो भुवन शोम, उसकी रोटी और रजनीगंधा जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं को बतौर सिनेमेटोग्राफर (कैमरामैन) जोड़ा गया.
हमने सिप्पी फिल्म्स के अनुभवी एडिटर एमएस शिंदे पर भरोसा जताया और कला निर्देशन के लिए बेहद काबिल और अनुभवी सुधांशु रॉय को टीम में शामिल किया. हॉलीवुड से ट्रेनिंग लेने वाले भारत के पहले मेकअप मैन सरोश मोदी को टीम में लाया गया और मशहूर डिज़ाइनर ज़ेरज़ेस देसाई को कॉस्ट्यूम का दारोमदार दिया गया. संगीत का ज़िम्मा एक प्रतिभाशाली युवा संगीतकार उदय मजूमदार को सौंपा गया. गीतकार का दायित्व मैंने संभाला.
सबसे बड़ी चुनौती थी, कास्टिंग की. हवेली राम और रज्जो के मुख्य किरदारों के लिए मैंने आलोकनाथ और अनीता कंवर का नाम सुझाया, जिन्हें स्क्रीन टेस्ट के बाद रमेश ने हरी झंडी दे दी.
सतबीर की भूमिका के लिए कंवलजीत को चुना गया, जो छपते-छपते में काम कर रहे थे. रैली राम के किरदार को निभाने के लिए गिरिजा शंकर को चुना गया. दो और बेटों के तौर पर दिलीप ताहिल और मज़हर खान को लिया गया.
मनोहर श्याम जोशी ने हम लोग के कुछ अभिनेताओं का नाम सुझाया. मसलन, विनोद नागपाल, राजेश पुरी, अभिनव चतुर्वेदी, एसएम ज़हीर, कामिया मल्होत्रा, मेहर मित्तल और मंगल ढिल्लन. सोनी राजदान, नीना गुप्ता, आशा सचदेव, कृतिका देसाई, केतकी दवे और कुछ अन्य कलाकारों का भी चयन किया.
इस फेहरिस्त में जुड़ने वाला आख़िरी नाम मेरी दोस्त किरन जुनेजा (अब रमेश की पत्नी) का था. यह एक धमाकेदार टीम थी, जिसमें कुछ बेहद उम्दा अभिनेता शामिल थे. इससे पहले किसी टेलीविजन धारावाहिक ने इतने सारे अच्छे लोगों को इकट्ठा नहीं किया था.
बंबई की फिल्म सिटी में जब सेट तैयार होकर खड़ा हुआ, तब हम सब इसके काफी प्रभावित हुए. यह बहुत ही यथार्थवादी एहसास दे रहा था. फिल्म की शूटिंग नज़दीक आने पर रमेश ने अचानक फिल्म की रील पर इसकी शूटिंग करने का फैसला किया.
काफी समझाने के बाद वे 16 एमएम पर शूटिंग करने पर राज़ी हुए. हमने ऐडलैब्स के मनमोहन शेट्टी से हर दिन की शूटिंग की रील (रश प्रिंट्स) देने को कहा, जो भारत में उस समय के हिसाब से काफी असामान्य बात थी.
इस शूटिंग के लिए बहुत ज़्यादा तामझाम खड़ा किया गया था. मुझे इस बात का पक्का यकीन था कि हम कोई यादगार, ऐतिहासिक काम करने जा रहे हैं.
जब जोशी जी, पहले आठ एपिसोड की स्क्रिप्ट लेकर आए, तब हमें इस बात का यकीन हो गया, कि हमारे हाथ में एक ऐसी चीज़ है, जिसकी कामयाबी शक से परे है. यह सिर्फ विभाजन की पृष्ठभूमि में एक परिवार की कहानी नहीं थी, बल्कि तीन पीढ़ियों में फैले एक देश के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का सचेत अध्ययन था.
टेलीविजन धारावाहिकों की श्रेष्ठ परंपरा में इसमें कई किरदार थे, जिनकी अपनी-अपनी कहानी थी. उप-कथानक (सब-प्लॉट्स) थे जिन्हें बेहद कुशलता के साथ मानवीय भावनाओं और इतिहास के मेजपोश में कसीदाकारी करके उकेर दिया गया था.
अब एक प्रायोजक को खोजने की ज़रूरत थी. इसके लिए गोदरेज सामने आए. 104 एपिसोड के लिए उस समय क़रार हुआ, वह तब तक भारतीय टेलीविजन इतिहास का सबसे बड़ा क़रार था.
पहले एपिसोड के प्रसारण के साथ ही देशभर से लोगों की तारीफों की बाढ़ आ गई. उन लोगों के लिए जिनका जन्म 1950 या उसके बाद हुआ था, विभाजन एक धुंधली कहानी थी, जिसे छिटपुट ढंग से इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों में या परिवार के बड़े-बुजुर्गों द्वारा सुनाया गया था.
विभाजन और इससे पहले और बाद की घटनाओं को जिस तरह से दिखाया गया, उससे कई पीढ़ियों को पहली बार कुछ हद तक यह पता चला कि लोगों और देश पर इसका कितना प्रचंड प्रभाव पड़ा था.
रमेश और उसकी टीम ने आज़ादी की पीड़ा और उल्लास और दो पीढ़ियों के सामाजिक टकराव को इसमें बखूबी दिखाया. इस बड़े बदलाव के साक्षी रहे बुज़ुर्ग दर्शकों के लिए यह एक याद गली की यात्रा के समान था. ऐसे में कोई आश्चर्य की बात नहीं कि देशभर में (और पाकिस्तान में भी) करोड़ों लोगों ने इसे बिना नागा किए देखा.
पाकिस्तान में भी बुनियाद को खूब पसंद किया गया. अख़बारों में इसकी प्रशंसा में समीक्षाएं आईं और देश ही नहीं, देश के बाहर भी विभिन्न प्रकाशनों में इस पर लिखा गया. मुझे याद है, जब हम इसका आख़िरी एपिसोड शूट कर रहे थे, तब इंडिया टुडे, संडे मैगज़ीन और यहां तक कि बीबीसी ने इस पर स्पेशल स्टोरी की थी.
आनेवाले वर्षों में विद्वानों ने इसके प्रभाव का अध्ययन किया. इसमें कोई शक नहीं कि रामायण और महाभारत जैसी मिथकीय गाथाओं का भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर कहीं व्यापक असर पड़ा, मगर जो मानक बुनियाद ने बनाया, उसे फिर नहीं बनाया जा सका.
(अमित खन्ना फिल्म निर्माता, निर्देशक और गीतकार हैं. वे बुनियाद के एग्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर रहेे हैं.)
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