यदि त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन हुआ तो यूएपीए मामलों में ज़मानत दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की केरल हाईकोर्ट के एक फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की सुनवाई में शीर्ष अदालत ने कहा कि जब मुक़दमे के जल्द पूरा होने की कोई संभावना नहीं है और अधिकतम सज़ा का एक बड़ा हिस्सा विचाराधीन क़ैदी के तौर पर बिताया जा चुका है, तो यूएपीए प्रावधानों की कठोरता कम हो जाती है.

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New Delhi: A view of the Supreme Court of India in New Delhi, Monday, Nov 12, 2018. (PTI Photo/ Manvender Vashist) (PTI11_12_2018_000066B)
(फोटो: पीटीआई)

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की केरल हाईकोर्ट के एक फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की सुनवाई में शीर्ष अदालत ने कहा कि जब मुक़दमे के जल्द पूरा होने की कोई संभावना नहीं है और अधिकतम सज़ा का एक बड़ा हिस्सा विचाराधीन क़ैदी के तौर पर बिताया जा चुका है, तो यूएपीए प्रावधानों की कठोरता कम हो जाती है.

(फोटो: रॉयटर्स)
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को आदेश दिया कि अगर कोई व्यक्ति गैरकानूनी गतिविधियां (निवारक) अधिनियम (यूएपीए) के तहत भी आरोपी बनाया गया है तब भी उसके पास त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है और यदि इस अधिकार का उल्लंघन हुआ है तो वह जमानत के योग्य है.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अनिरुद्ध बोस ने कहा कि जब मुकदमे के जल्द पूरा होने की कोई संभावना नहीं है और अधिकतम सजा का एक बड़ा हिस्सा पहले ही एक अंडर ट्रायल के रूप में भोगा जा चुका है, तो यूएपीए प्रावधानों की कठोरता कम हो जाती है.

दरअसल, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने 2010 में कॉलेज प्राध्यापक की हथेली काटने के आरोपी पुरुषों को जमानत देने के केरल हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की थी.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपील को खारिज करते हुए कहा कि चूंकि हाईकोर्ट ने जमानत देने के लिए तर्क के रूप में लंबे समय तक कैद में रखने की अवधि का इस्तेमाल किया था, इसलिए यह आदेश सही था.

पीठ ने कहा, ‘यूएपीए की धारा 43डी (5) की तरह वैधानिक प्रतिबंधों की उपस्थिति संविधान के भाग III के उल्लंघन के आधार पर जमानत देने की संवैधानिक न्यायालयों की क्षमता को खत्म नहीं करती है. वास्तव में, संसद द्वारा पारित कानून के साथ-साथ संवैधानिक अधिकार क्षेत्र के तहत प्रयोग की जाने वाली शक्तियां, दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है.’

पीठ ने आगे कहा, ‘कार्यवाही शुरू होने के दौरान अदालतों से उम्मीद की जाती है कि वे जमानत देने के खिलाफ विधायी नीति की सराहना करेंगे लेकिन ऐसे प्रावधानों की कठोरता कम हो जाएगी जहां उचित समय के भीतर सुनवाई पूरी होने की कोई संभावना नहीं है और पहले से ही निर्धारित सजा का बड़ा हिस्सा कैद में गुजारा जा चुका है.’

पीठ ने कहा, ‘ऐसा दृष्टिकोण यूएपीए की धारा 43 डी (5) जैसे प्रावधानों की संभावना के विरुद्ध रक्षा करेगा, जिसे जमानत से इनकार करने या त्वरित सुनवाई के लिए संवैधानिक अधिकार के विस्तृत उल्लंघन के लिए एकमात्र मानक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है.’

दरअसल, यूएपीए की धारा 43 डी (5) कहती है, ‘इस अधिनियम के अध्याय 4 और 6 के तहत किसी भी व्यक्ति के खिलाफ अपराध का आरोप नहीं लगाया जाएगा, यदि हिरासत में है, तो जमानत पर या अपने स्वयं के बॉन्ड पर रिहा किया जा सकता है, जब तक कि लोक अभियोजक को इस तरह की रिहाई के लिए आवेदन पर सुनवाई का मौका नहीं दिया जाता है. बशर्ते कि इस तरह के आरोपी व्यक्ति को जमानत या निजी मुचलके पर छोड़ा नहीं किया जाएगा यदि कोर्ट केस डायरी के खंडन पर या धारा 173 के तहत बनाई गई रिपोर्ट की राय है इस बात पर विश्वास करने के लिए उचित आधार हैं कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप सत्य है.’