क्या सरकार आंदोलनकारी अन्नदाताओं के इरादों से सचमुच डर गई है और इसीलिए ऐसी सियासत पर उतर आई है, जो अन्नदाताओं के रास्ते में दीवारें उठाकर, कंटीले तार बिछाकर और गिरफ़्तार करके उनसे कह रही है कि आओ वार्ता-वार्ता खेलें?
ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर बढ़ाई गई सुरक्षा व्यवस्था. (फोटो: पीटीआई)
आप कैसे प्रधानमंत्री हैं जो राजधानी की सड़कों पर बाड़ें लगवा और कीलें ठोंकवाकर आंदोलित अन्नदाताओं को राजधानी आने से रोकना चाह रहे हैं? आप अपने ही किसानों से युद्ध क्यों लड़ रहे हैं भला?
क्या यह बेहतर नहीं होता कि जो किलेबंदी आप राजधानी की सीमाओं पर करा रहे हैं, चीन की सीमा पर कराते, जहां वह भारतभूमि पर कब्जा जमाए बैठा है? राजधानी की सीमा को आप पाकिस्तान की सीमा क्यों बनाए डाल रहे हैं?
राजधानी की सड़कों पर इस तरह दीवारें चिनवाने के बजाय आप पुल क्यों नहीं बनवाते? यह क्या कि आप किसानों को उनके धरनास्थलों पर पहुंचने से रोकने के लिए पंजाब मेल जैसी उनकी ओर जाने वाली रेलों का रूट ही बदलवाए दे रहे हैं?
किसान आपके निकट इतने बेगाने क्यों हो गए हैं? क्या आप अन्नदाताओं के अक्टूबर तक वहीं डटे रहने के ऐलान से सचमुच डर गए हैं और इसीलिए ऐसी सियासत करने पर उतर आए हैं, जो अन्नदाताओं के रास्ते में ‘उठाकर दीवार, बिछाकर कंटीले तार और करके गिरफ्तार’ उनसे कह रही है कि आओ वार्ता-वार्ता खेलें?
क्यों आप सर्वदलीय बैठक में तो कहते हैं कि आपके कृषि मंत्री किसानों सें एक फोन कॉल की दूरी पर हैं और सरकार उनसे वार्ता करना चाहती है, लेकिन उसके बाद दोनों पक्षों के बीच का अविश्वास घटाने के लिए एक भी कदम नहीं उठाते, न ही किसी नये प्रस्ताव के साथ सामने आते हैं?
क्यों वार्ता के अब तक के अंतिम दौर में जिस प्रस्ताव को किसान ठुकरा चुके हैं, अभी तक उसी पर अटके हुए हैं?
अगर प्रधानमंत्री समझते हैं कि सीधे उनको संबोधित इन सवालों की वे सिर्फ इसलिए उपेक्षा करते रह सकते हैं कि उन्हें पूछने वाले कांग्रेस, सपा, शिवसेना या किसी और विपक्षी पार्टी के राहुल, प्रियंका, अखिलेश या संजय राउत जैसे ‘अलोकप्रिय हो चुके’ नेता हैं, तो एक बार फिर गलती कर रहे हैं.
अपने विपक्ष के प्रति वे कितने भी असहिष्णु क्यों न हो जाएं और उस पर कितना भी क्यों न बरसें- बरसते तो खैर पिछले छः सात सालों से लगातार चले ही आ रहे हैं- इस लोकतांत्रिक सत्य को झुठला नहीं सकते कि देश की जिस जनता ने उन्हें शासन चलाने का अधिकार दिया है, उसी ने इन विपक्षी दलों को उन्हें और उनकी सरकार को सवालों से घेरने और विपथ या कुपथगामी होने पर सत्पथ पर लाने का दायित्व भी सौंपा है.
इसलिए यह समझना खुद उनके और उनकी सरकार के ही हित में होगा कि वे विपक्ष के इस दायित्व निर्वहन के जितना ही आड़े आएंगे, उसके द्वारा उनसे पूछे जाने वाले सवाल उतने ही अप्रिय और असुविधाजनक होते जाएंगे.
और हां, कहीं ऐसे सवालों से चिढ़कर उन्होंने किसानों की ही तरह लांछन लगाने और दमन करने वाली अपनी और अपने समर्थकों की कार्रवाइयों का रुख उसकी ओर भी मोड़ा और इसके लिए सत्ता की शक्तियों का और गंभीर दुरुपयोग आरंभ किया, तो कौन कह सकता है कि दुनिया के दूसरे ऐसा करने वाले सत्ताधीशों की गति को प्राप्त होने से बच पाएंगे?
वे यह सब समझेंगे और सारे असुविधाजनक सवालों की अनसुनी करने व जवाब न देने की अपनी पुरानी आदत बदलेंगे या नहीं, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन यह बात तो वे अभी ही नहीं छिपा पा रहे कि अपने चाणक्यों के साथ मिलकर सारा रणनीतिक कौशल लगा देने के बावजूद वे यह भी समझ नहीं पा रहे कि किसानों का दो महीनों से ज्यादा से चला आ रहा आंदोलन उसे लांछित व किनारे लगाने की एक से बढ़कर एक शातिर कोशिशों के बावजूद जिस मोड़ पर आ पहुंचा है, वहां उससे कैसे निपटें?
राजधानी में किसानों के डर से की जा रही किलेबंदी इसी की प्रतीक है, जिसे लेकर दिल्ली पुलिस के कमिश्नर कहते हैं कि उन्हें हैरानी है कि गत 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड में पुलिस के खिलाफ ट्रैक्टर इस्तेमाल किए गए और उसके द्वारा बनाए गए बैरीकेड तोड़ डाले गए, तो उस पर कोई सवाल नहीं पूछा गया, लेकिन अब, जब पुलिस बॉर्डर पर बैरीकेडिंग ही मजबूत कर रही है, नाना प्रकार के सवाल पूछे जा रहे हैं.
उनके इस कथन से समझते देर नहीं लगती कि सवालों से आज के सत्ताधीशों जितना ही ऐतराज उनके नौकरशाहों को भी है. वे भी चाहते हैं कि ऐसे ही सवाल पूछे जाएं, जो उनके लिए सुविधाजनक हों.
वे कहें कि सिर्फ बैरीकेड मजबूत कर रहे हैं तो मान लिया जाए कि सड़कों पर कंटीले तार और कीलें यूं ही ठोंक दी गई होंगी या कि इंटरनेट निलंबन भी बैरीकेड मजबूत करने की पुलिसिया कार्रवाइयों का ही हिस्सा है.
इससे यह भी समझा जा सकता है कि एक झूठ को सच बनाने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ते हैं. विडंबना यह कि ये झूठ ऐसे वक्त भी बोले जा रहे हैं, जब राज्यपाल (सत्यपाल मलिक) तक कहने लगे हैं कि कुचलने से तो यह आंदोलन खत्म होने वाला नहीं.
बहरहाल, अयोध्या में रहते हुए याद आता है, इन दिनों देश की राजधानी की जैसी किलेबंदी की जा रही है, वैसी तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 1990 में कार सेवकों को अयसोध्या पहुंचने से रोकने के लिए भी नहीं की थी.
तब उन्होंने रेल व सड़क यातायात पर प्रतिबन्धों और सीमाएं सील करने के ऐलान से ही काम चला लिया था. यूं, उन दिनों कारसेवा आंदोलन के सिलसिले में भाजपा-विहिप ने देश के बड़े हिस्से में जो भीषण उन्माद पैदा कर रखा था, उसके संदर्भ में इस किसान आंदोलन की तुलना करना भी इसकी तौहीन करने जैसा है.
अकारण नहीं कि वरिष्ठ साहित्यकार विजय बहादुर सिंह अपनी एक टिप्पणी में चकित होते हुए से देखते हैं कि ‘हमारी अपनी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार किसानों के साथ क्या-क्या कर रही है!’
वे कहते हैं, ‘यह तथाकथित राष्ट्रवादी, देशभक्त और भारतभक्त सरकार, जिसकी ‘चमत्कारी’ रणनीतियों के चलते चीनी सेनाओं ने हमारे बीस राष्ट्रसेवी सैनिकों का जीवन छीन लिया, पहले किसानों को कभी आतंकवादी, कभी खालिस्तानी और कभी बहकावे में आया बताती और उन्हीं के साथ बातचीत के टेबल पर भी बैठती रही. अब 26 जनवरी के बाद से तो वह उनसे विदेशी दुश्मन की तरह निपट रही है. उसका यह रवैया इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उनसे असहमत नागरिकों के साथ किये गए सलूक की याद दिलाता है.’
यकीनन, जैसा कि वे कहते हैं, अगर यह अघोषित आपातकाल का दौर है जिसमें इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है, तो फिर कहना होगा, सत्ताधीशों को उसके अंजाम की पुनरावृत्ति से भी सचेत रहना चाहिए.
समझना भी कि आंदोलित किसान इतनी बेगानगी के पात्र तो कतई नहीं हैं और निजाम का उनके आंदोलन को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में विफल रहना न सिर्फ उनके बल्कि सारे देश के लिए निराशाजनक होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)