नकली इतिहास भारत पर प्रेतात्मा बन कर छाया हुआ है

स्मृति के रूप में जीवित विभाजन एक मौखिक संसार है, जो चुप्पियों में दबा हुआ है, नाउम्मीदी की भाषा में फंसा हुआ है. 76 सालों के बाद भी जिसके ज़ख़्म भरने का नाम नहीं लेते.

//
विभाजन के समय का एक दृश्य. (फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

स्मृति के रूप में जीवित विभाजन एक मौखिक संसार है, जो चुप्पियों में दबा हुआ है, नाउम्मीदी की भाषा में फंसा हुआ है. 76 सालों के बाद भी जिसके ज़ख़्म भरने का नाम नहीं लेते.

मेरे एक मित्र ने एक बार मुझसे कहा था कि इतिहास एक पर्वत की चोटी की तरह है, जहां आकर हिंसा जम गई है और भाषा अवैयक्तिक नहीं रह गई है. लेकिन, उसका दावा था कि इतिहास त्वचा की तरह है, जो अपरिपक्व है और दर्द झेलना जिसका काम है.

यह एक जी गई हक़ीक़त है और एक ऐसी हक़ीक़त भी है, जिसे हम बार-बार जीते हैं. उसने इन विभिन्न रूपकों का प्रयोग विभाजन के बारे में बात करने के लिए किया था. उसका दावा था कि सत्ता के हस्तांतरण के तौर पर विभाजन इतिहास की किताबों की चीज़ है. जबकि स्मृति के रूप में जीवित विभाजन एक मौखिक संसार है, जो चुप्पियों में दबा हुआ है, नाउम्मीदी की भाषा में फंसा हुआ है. 75 सालों के बाद भी जिसके जख़्म भरने का नाम नहीं लेते.

मुझे अपने मित्र द्वारा किए गए इस भेद की याद तब आई, जब मैंने राजनीतिक समाजशास्त्री चंद्रिका परमार से कहानियों की एक श्रृंखला सुनी. उन्होंने मुझे बताया कि कैसे उनकी दोस्त शैफाली वासुदेव उस बुजुर्ग व्यक्ति से मिलकर कौतूहल में पड़ गई थीं, जिन्होंने बॉर्डर फ़िल्म 50 बार देखी थी.

यह फ़िल्म भले कमज़ोर थी, मगर लेकिन इसने एक तरह से अकेलापन झेल रहे एक व्यक्ति में तीव्र भाव जगाया था, उसे एक किराये का साथ दिया. वे आख़िरकार अपने पोतों को वह फ़िल्म दिखाने ले गए, क्योंकि वे चाहते थे कि उनके पोते भी अनुभव को महसूस कर सकें जिसे वे हर दिन जीते हैं. उन घटनाओं का अनुभव कर सकें, जिन्हें वे न तो वे ख़ुद से अलग कर सकते हैं, न ही जिसे सुना सकते हैं. उन्हें लगा कि बॉर्डर फ़िल्म ने वर्षों की उनकी चुप्पी को अर्थ दिया, उनकी चुप्पी की संदर्भ सहित व्याख्या की है.

मुझे याद है एक बार हम एक कारोबारी का इंटरव्यू लेने गए थे, जिसने कार्यकुशल कारखानों का निर्माण किया था. जब उन्हें यह पता चला कि हम विभाजन के प्रसंग में रुचि रखते हैं तब प्रदूषण पर बात करने की जगह उनकी दिलचस्पी स्मृति में जाग गई. उनके थके हुए गालों पर आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदें बहने लगीं, जिसे उन्होंने रुमाल निकाल कर पोंछा.

उन्होंने हमें बताया, ‘मैं अमृतसर से आने वाली ट्रेन में था.’ उन्होंने उसके बाद हुए क़त्लेआम का जीवंत चित्र प्रस्तुत किया- हिंसा से बचने के लिए अपनी दादी के साथ वे किस तरह से ट्रेन के बाथरूम में जा छिपे थे. जब उन्होंने दरियागंज में मकान खोजने की अपनी कहानी सुनाई, तब वे ज़्यादा ठोस तरीक़े से अपनी बात कह रहे थे.

वहां उन्होंने मकानों को लाशों से पटा देखा. उनके द्वारा सुनाई गई कहानी आश्चर्यजनक ढंग से प्रामाणिक थी. उनसे लिए गए सातवें इंटरव्यू में कहीं जाकर यह पता चला कि विभाजन के समय उनकी उम्र महज चार साल की थी. उन्होंने अपनी दादी की स्मृति को अपनी स्मृति बना लिया था.

चंद्रिका ने ध्यान दिलाया कि दूसरे की स्मृति को अपनी स्मृति के तौर पर अपना लेना, यानी एक तरह की सेकंड हैंड या कृत्रिम स्मृति से विभाजन ग्रस्त है. उनका कहना है कि यह दूसरी और तीसरी पीढ़ी की समस्या थी, जो उस अनुभव से तो नहीं गुज़रे थे, मगर उस स्मृति को धारण करना जिनकी ज़िद थी. इनमें से कई लोग भाजपा के अंदर उन्मादी कट्टर समूह का हिस्सा बन गए.

स्मृति के तौर पर विभाजन आज भी समस्याएं खड़ी करता है. कुछ लोग उस दौर में बलात्कार की घटनाओं की बड़ी संख्या का ज़िक्र करते हैं. स्मृतियां कई रूपों में घिसटती रहती हैं और समाज पर किसी प्रेत के साये की तरह छाई रहती हैं. जबकि इतिहास कम दिक्कत देने वाला नज़र आता है.

ऐसा लगता है कि एक पूरी पीढ़ी सीधे तौर पर विस्थापन और हिंसा से पीड़ित होने की बजाय इनके द्वारा उन पर थोपी गई रोज़ाना के हज़ारों विकल्पों से ज़्यादा पीड़ित है. वे अपने विकल्पों के बारे में सवाल पूछते हैं, न कि नेताओं के फ़ैसलों के बारे में. उनके दिमाग़ में लॉर्ड माउंड बेटन की भूमिका किसी एक्स्ट्रा की तरह है. उनकी आत्मकथाएं गांव की घटनाओं और रोज़मर्रा की तकलीफ़ों से भरी है. यह स्मृति भारत में प्रेतबाधा की तरह छाई हुई है और यहां तक कि इसके चरित्र को ढंक लेती है.

मुझे, आईआईटी दिल्ली की इसी तरह की एक घटना की याद आ रही है, जहां एक प्रोफेसर 2002 की घटनाओं को दुख के साथ याद कर रहे थे. उन्हें टोकते हुए एक छात्र ने कहा, ‘कम से कम मुग़लों के 500 सालों के राज का बदला चुका लिया गया है.’ विकृत स्मृतियां, चुप्पी और लिए गए निर्णयों की निराशा, यानी नकली इतिहास भारत पर प्रेतात्मा बन कर छाए हुए हैं और हमें यह याद दिलाते हैं कि विभाजन का वृत्तांत कभी भी एकरेखीय नहीं हो सकता है.

विभाजन की कहानियां आपके भीतर घिसटती रह सकती हैं और चुप्पियों से भी झांकती रह सकती हैं. मुझे याद है, जंक आर्टिस्ट नेक चंद उनके रॉक गार्डन में एक ख़ाली स्थान को लेकर लगभग रहस्यमय तरीक़े से खामोश थे.

उन्होंने हमें उत्साह से बताया कि कैसे वे पाकिस्तान में हुए विश्व पंजाबी सम्मेलन में भाग लेने गए थे. नेक चंद अपने गांव को देखने गए. लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि 1972 में उनका गांव भारतीय वायु सेना द्वारा ज़मींदोज़ कर दिया गया था. वर्षों के बाद, नेक चंद ने बड़ी मात्रा में कचरा (बेकार की चीज़ें, कूड़ा-कर्कट) इकट्ठा किया ताकि वे अपनी स्मृतियों में बसे गांव को फिर से जीवित कर सकें.

स्मृति के सामान का निर्माण करते हुए वे कचरे के कवित्व से अभिभूत होते रहे. उन्होंने ख़ुद को इतिहास के साथ बेईमानी करने वाले किसी चालबाज़ बहुरूपिए की तरह पाया जो अकड़ कर यहां-वहां भटक रहा है.

मुझे ऐसा लगता रहा है कि जिस तरह स्मृति भारत को परेशान करती है, उस तरह इतिहास नहीं करता. हमें लगता है कि इतिहास का निर्माण राष्ट्र राज्यों और एनसीईआरटी की इतिहास की किताबों से होता है. ऐसा करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि व्यवहार का निर्धारण समुदाय और स्मृतियों के द्वारा होता है.

माउंटबेटन और महात्मा गांधी. (फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

मैंने लोगों को विभाजन के लिए एक म्यूज़ियम बनाने और मरने वाले शहीदों के लिए स्मारक बनाने की बात करते हुए सुना है. मुझे लगता है कि जिस तरह की स्मृतियां हमारे बीच सांसें ले रही हैं, उनके लिए ऐसे संस्थान ज़रूरत से ज्यादा घटना केंद्रित हैं.

विभाजन और विभाजन की स्मृतियों का सामना सिर्फ़ एक नए तरह के नैतिक प्रयोग की तरह किया जा सकता है. यह प्रयोग मेल-मिलाप और कहानियां सुनाने को लेकर होगा, जिसमें विभाजन को झेलने वाले, कुछ वैसे लोग जो आज भी बचे हुए हैं, अपनी कहानियां सुनाएं.

लगभग ऐसा ही एक प्रयोग साउथ अफ्रीका ट्रूथ कमीशन (दक्षिण अफ्रीका सत्य आयोग) है, जो कहानियां सुनाने और सच कहने की रंगशाला (थियेटर) है. बचे हुए लोगों को गवाह के तौर पर लौटना होगा और भारत को एक समुदाय की तरह उन्हें सुनना होगा. मगर सत्ता में बैठी भाजपा के पास ऐसा करने के लायक कल्पनाशीलता और साहस का अभाव है.

2002 के दंगों में अपनी भूमिका के लिए माफ़ी मांगने से यह कतराती रहती है. इसमें विली ब्रांट जैसा कोई नेता नहीं है, जिसने अपने घुटनों पर गिरकर ऑश्वित्ज के पीड़ितों से माफ़ी मांगी थी. लेकिन ब्रांट से ज़्यादा हमें एक डेसमंड टूटू की ज़रूरत है, जो दर्द के अवचेतन में दाख़िल हो और पीड़ितों और पीड़ा देने वालों, दोनों को, अपनी कहानियों का बोझ उतारने में मदद करे.

विभाजन के दस्तावेज़ों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि ‘राष्ट्र निर्माण’ एक मूर्खतापूर्ण शब्द है. इसकी जगह हमारी कोशिश मेल-मिलाप, माफ़ी के रास्ते की खोज, मरम्मत और कहानी कहने की होनी चाहिए थी.

स्मृतियों को उपचार की ज़रूरत होती है. चूंकि विभाजन की स्मृतियां हम तक बार-बार लौटती हैं, इसलिए हमें समझना चाहिए सालगिरह घटनाओं का पुनर्निर्माण जानवरों की खाल से बने बुत की तरह नहीं करते, बल्कि जी गई हक़ीक़त के तौर पर करते हैं.

विभाजन पर एक ट्रूथ कमीशन, भले ही यह कितना भी मामूली क्यों न हो, उस भारतीय के उपचार का रास्ता बना सकता है, जो हत्यारी भीड़ को नागरिकता का काम मानता है. मैं ट्रुथ कमीशन, जो एक गांधीवादी आविष्कार है और जिससे भारत महरूम है, का हवाला इसलिए दे रहा हूं, ताकि मेल-मिलाप वह केंद्रीय शब्द बन जाए, जिसके इर्द-गिर्द हम हम अपने जख़्मों को भर सकें.

(शिव विश्वनाथन, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में प्रोफेसर और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ नॉलेज सिस्टम, ओ.पी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के डायरेक्टर हैं.)

(यह लेख अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25