आदिवासियों के लिए इस आज़ादी का क्या मतलब है?

आदिवासी तो दुनिया बनने से लेकर आज़ाद ही हैं. बस्तर के इन जंगलों में तो अंग्रेेज़ भी नहीं आए. इसलिए इन आदिवासियों ने अपनी ज़िंदगी में न ग़ुलामी देखी है, न ग़ुलामी के बारे में सुना है.

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A group of Indian tribes sit in open at a camp in Dornapal in the central state of Chhattisgarh, India March 8, 2006. More than 45,000 people have left their homes to live in camps run by the Salwa Judum, but have just bows and arrows to defend themselves against the rebels' guns and explosives. Picture taken March 8, 2006. REUTERS/Kamal Kishore

आज़ादी के 70 साल: आदिवासी तो दुनिया बनने से लेकर आज़ाद ही हैं. बस्तर के इन जंगलों में तो अंग्रेज़ भी नहीं आए. इसलिए इन आदिवासियों ने अपनी ज़िंदगी में न ग़ुलामी देखी है, न ग़ुलामी के बारे में सुना है.

A group of Indian tribes sit in open at a camp in Dornapal in the central state of Chhattisgarh, India March 8, 2006. More than 45,000 people have left their homes to live in camps run by the Salwa Judum, but have just bows and arrows to defend themselves against the rebels' guns and explosives. Picture taken March 8, 2006. REUTERS/Kamal Kishore
छत्तीसगढ़ में 2008 में सलवा जुडूम आॅपरेशन के दौरान कैंप में ठहरे आदिवासी. इस दौरान 45000 आदिवासियों ने अपना घर छोड़कर कैंपों में शरण ली थी. (फोटो: रॉयटर्स)

स्वतंत्रता दिवस आ रहा है, आइए बात करते हैं कि इस आज़ादी का आदिवासियों के लिए क्या मतलब है?

एक बार मेरे पास डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक पत्रकार आईं. उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे आदिवासी और स्वतंत्रता दिवस पर एक फीचर करना है. मैंने कहा, चलिए आपको आदिवासियों के गांव में ले चलता हूं.

मैं उस पत्रकार को सुकमा जिले के नेन्ड्रा गांव में ले गया. नेन्ड्रा गांव को सरकार ने तीन बार जलाया था. क्योंकि सरकार चाहती थी कि आदिवासी गांव खाली कर दें. सरकार ज़मीन कंपनियों को देना चाहती थी.

हमारे साथियों ने उस गांव को दुबारा बसाया और हम लोग गांव वालों को सुरक्षा बलों के हमलों से बचाने के लिए मानव कवच के रूप में वहां रह रहे थे. उस महिला पत्रकार ने गांव के बुज़ुर्ग भीमा पटेल के मुंह के सामने माइक लगा कर पूछा कि आपके लिए इस आज़ादी का क्या महत्व है?

भीमा ने आश्चर्य से उस महिला की तरफ देखा और पूछा आज़ादी? यह क्या होती है? भीमा ने मेरी तरफ़ मदद के लिए देखा. मैंने हंसते हुए उस पत्रकार से कहा कि आज़ादी समझने के लिए पहले ग़ुलामी समझना ज़रूरी है.

जिसने कभी ग़ुलामी न देखी हो वो आज़ादी भी नहीं समझ सकता. मैंने कहना जारी रखा… मैंने कहा कि यह आदिवासी तो दुनिया बनने से लेकर आज़ाद ही हैं. बस्तर के इन जंगलों में तो अंग्रेेज़ भी नहीं आए. इसलिए इन आदिवासियों ने अपनी ज़िंदगी में न ग़ुलामी देखी है न ग़ुलामी के बारे में सुना है.

ये तो जब से पैदा हुए हैं, आज़ाद ही हैं. बस्तर के आदिवासी ने अपने आस पास के हाट बाज़ार से आगे नहीं देखा, अख़बार वो पढ़ता नहीं, रेडियो उसके पास था नहीं. अंग्रेज़ आए और चले भी गए, बस्तर के गांव तक उसकी ख़बर भी नहीं पहुंची.

भारत राष्ट्र बन गया आदिवासी को पता भी नहीं चला. आज़ादी के साठ साल बीत गए, सरकार आदिवासी के पास नहीं आई. लेकिन फिर वैश्वीकरण शुरू हुआ और पूरी दुनिया की कंपनियां संसाधन बहुल इलाक़ों पर टूट पडीं.

इन कंपनियों के सामने सरकारें बहुत कमज़ोर साबित हुईं. सत्ताधारी नेता, अफ़सर और पुलिस मिल कर आदिवासी की ज़मीन छीनने लगे. जिन्हें क़ानून की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी वही क़ानून तोड़ने को देश का विकास कहने लगे.

इन्हीं हालात में आदिवासी ने देखा कि नक्सली इस हालत का बहुत सटीक वर्णन कर रहे हैं. नक्सली कह रहे थे कि यह आज़ादी झूठी है, सरकार पहले भी साम्राज्यवादी ताक़तों के हाथ में थी और अब नव साम्राज्यवादी ताक़तें सत्ता पर काबिज़ हो गई हैं.

इसलिए एक नव जनवादी जनसंघर्ष ही असली आज़ादी ला सकता है. नक्सलवादी सरकारी स्कूलों में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर काले झंडे फहराते रहे. दूसरी तरफ सरकारें लोक कल्याण के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं के नाम पर लूट पाट में लगी रहीं.

जहां जहां भी विकास की परियोजनाएं लाई गईं, उनमें आदिवासियों को बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. आदिवासियों द्वारा चुकाई गई क़ीमत के बदले में आदिवासियों को विकास का कोई फ़ायदा नहीं मिला. विकास योजनाओं को बनाने में आदिवासियों की कोई राय कभी नहीं ली गई.

तो हुआ यह कि इस विकास का फ़ायदा तो शहरों को मिला और उसकी क़ीमत आदिवासी ने चुकाई. आज विकास एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा है. लेकिन पूंजीपतियों को विकास का नायक बना दिया गया है.

पूंजीपति तो मुनाफ़े के लिए काम करेगा. वह रोज़गार सृजित करने के बजाय मशीनें लगाता है. लेकिन जनता तो सरकार से लगातार रोज़गार मांगती है. तो सरकार ज़्यादा इलाक़ों में उद्योगों का विस्तार करती है.

इसका दबाव आदिवासी इलाक़ों पर पड़ता है. क्योंकि ज़्यादातर प्राकृतिक संसाधन आदिवासी इलाक़ों में हैं. सारी दुनिया के आदिवासी इस नए विकास के कारण हमले के निशाने पर हैं.

चाहे वो भारत हो, लैटिन अमेरिका या अफ्रीका, हर जगह आदिवासियों पर हमला हो रहा है. अगर आप आंकड़े देखें तो इस समय जेलों में ज़मीन बचाने के आंदोलनों के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में बंद हैं.

सबसे ज़्यादा हत्याएं उन आदिवासी कार्यकर्ताओं की हो रही हैं जो ज़मीनें बचाने के आंदोलनों में सक्रिय हैं. आज़ादी की जो पहली शर्त थी, वह थी कि सभी को बराबर माना जाएगा, उस वादे को तोड़ दिया गया है.

अब पूंजीपति और आदिवासी बराबर ही नहीं हैं, इसलिए आदिवासी की ज़मीन छीन कर पूंजीपति को दी जा रही है. अब विकास के नाम पर मुट्ठी भर लोगों को अमीर बनाने का खेल जितना ज़ोर पकड़ेगा, आदिवासियों पर हमले उतने ज़्यादा बढ़ेंगे.

विकास के लालच में हम अपनी आंखें मूंद लेते हैं. फिर चाहे कितने भी निर्दोष आदिवासी मारे जाएं, कितनी आदिवासी महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों के द्वारा बलात्कार किए जाएं, आप उसका विरोध करने की हिम्मत ही नहीं करते.

इसलिए आज आदिवासी इस देश में ख़ुद को अकेला महसूस करता है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसी साल अपनी रिपोर्ट में माना है कि कम से कम सोलह महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों द्वारा बलात्कारों के प्राथमिक साक्ष्य मौजूद हैं.

लेकिन सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं की. सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर भरने वाले पुलिस अधिकारी को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार दिया गया. अगर आज़ादी का मतलब बराबरी है, जिसमें समान अवसर, समान अधिकार और समान सम्मान शामिल है, तो आदिवासियों के लिए वह आज़ादी अभी नहीं आई है.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)