‘गोरक्षा के चक्कर में पशुधन ही किसानों का दुश्मन हो गया है’

अब खेती में बैलों का उपयोग नहीं होता. बूचड़खाने बंद होने के बाद उन्हें ख़रीदने वाला भी कोई नहीं. बड़ी संख्या में आवारा जानवर खेतों को तबाह कर रहे हैं.

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ग्राउंड रिपोर्ट: अब खेती में बैलों का उपयोग नहीं होता. बूचड़खाने बंद होने के बाद उन्हें ख़रीदने वाला भी कोई नहीं. बड़ी संख्या में आवारा जानवर खेतों को तबाह कर रहे हैं.

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खेत में चर रहे पशुओं को पकड़ते ग्रामीण. (फोटो: कृष्णकांत)

रजपाल सिंह रोज़ की तरह उस दिन भी रात में अपने घर के दरवाजे पे सो रहे थे. उन्हें किसी अकल्पनीय ख़तरे का अंदाज़ा नहीं था. अचानक उन्हें सांड़ के रंभाने की आवाज़ सुनाई दी. वे चौंक कर जागे. सांड़ उनके द्वार पर ही उनके क़रीब खड़ा था. उनकी दोनों गायों को मार रहा था, गाय खूंटें से बंधी छटपटा रही थीं.

रजपाल सिंह ने छोटा सा डंडा उठाया और सांड़ को भगाने की गरज़ से हट हट की आवाज़ लगाकर उसके पास पहुंच गए. उन्होंने एक दो डंडा मारा होगा, तब तक सांड़ ने पलट कर खदेड़ लिया. पलक झपकते ही उसने रजपाल सिंह को उठाकर फेंक दिया. वे पांच छह फुट दूर जा गिरे. सांड़ इतने में ही नहीं माना. सींग लगाकर उनकी चारपाई भी उलट दी.

रजपाल सिंह चिल्लाए तो घर-मुहल्ले के लोग दौड़े और हल्ला मचाकर सांड़ भगाया गया. लेकिन रजपाल सिंह डेढ़ महीने से बिस्तर पर हैं. उनका कूल्हा उखड़ गया है. रजपाल सिंह उम्रदराज हैं इसलिए उनके स्वस्थ होने की संभावना कम है. 40 हज़ार रुपये इलाज में ख़र्च कर चुके हैं और उनके लिए यह रकम बहुत ज़्यादा है.

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सांड़ के मारने से रजपाल सिंह का कूल्हा उखड़ गया. वे दो महीने से बिस्तर पर हैं. (फोटो: कृष्णकांत)

यह घटना उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले के मोहना मौजा स्थित गांव बैसन पुरवा की है. आसपास में यह घटना और यह सांड़ चर्चा का विषय है. सिर्फ़ यही घटना नहीं, बल्कि पिछले कुछ ही महीने में आसपास के गांवों में मिलाकर 250 से 300 जानवर छुट्टा छोड़े गए हैं. हर गांव के हर आदमी का खेत इन जानवरों ने चर लिया है.

उत्तर प्रदेश में बूचड़खानों पर पाबंदी और केंद्र के पशुओं की ख़रीद बिक्री संबंधी क़ानून पास होने के बाद यहां पर गाय, बैल, बछड़ों की ख़रीद बिक्री एकदम बंद हो गई है. यहां पर लगने वाला पशु बाज़ार भी कब का बंद हो चुका है. अब लोगों के पास जो भी जानवर काम के नहीं होते, लोग उन्हें खुला छोड़ दे रहे हैं.

इसी गांव के शिवेंद्र प्रताप सिंह ने चार बीघा उड़द बोए थे. आधा आवारा पशुओं ने साफ कर दिया है. शिवेंद्र ने बताया, ‘गांव के ही दर्जनों लोगों ने अपने जानवर खुले छोड़ दिए हैं. गांव में लगभग सबका खेत या तो पूरा साफ हो गया है, या फिर थोड़ा बहुत बचा है. इसका क्या समाधान होगा, किसी को नहीं पता.’

रजपाल सिंह ने बताया, ‘इलाके भर में जानवरों ने तबाही मचा रखी है. उस पर यह मरकहा सांड़, इसे भगाने की किसी की हिम्मत ही नहीं है. हमें तो उसने तो मार ही डाला था. समझ लो बच ही गए. डेढ़ महीने तक प्लास्टर चढ़ा रहा. दो महीने से चारपाई पर हूं. ज़िंदगी नरक हो गई है.’

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शिवसेवक सिंह स्कूल पहुंचकर पहले बरामदे में बैठे जानवरों को भगाकर बच्चों की मदद से गोबर साफ करते हैं, फिर स्कूल शुरू होता है. (फोटो: कृष्णकांत)

इसी गांव के शिवसेवक सिंह गांव के प्राइमरी स्कूल में सहायक का काम करते हैं. उन्होंने बताया, ‘हमारी कुल मिलाकर 14 बीघा फ़सल बर्बाद हो चुकी है. गांव के उत्तर सिवान में किसी का खेत नहीं बचा. जिनके भी बछड़े हैं, दूध न देने वाली गाय हैं या इस तरह के बेकार जानवर हैं, लोग उन्हें छोड़ दे रहे हैं. कई बार उन लोगों पर दबाव डाला गया कि अपने जानवर बांध लो, लेकिन लोग नहीं माने.’

उन्होंने बताया, ‘ऐसा नहीं है कि किसी का भी खेत बचा हो. धर्मराज, रामचंद, सोमन, झब्बर, कैलााश लोनिया, अर्जुन, फतेहबहादुर सबका खेत चर गया.

शिवसेवक सिर्फ़ खेतों में जानवरों के अतिक्रमण से त्रस्त नहीं हैं, वे अपनी नौकरी में भी जानवरों के मारे हैं. वे बताते हैं, ‘सुबह स्कूल आते हैं तो पूरे स्कूल के बरामदे में कम से कम 50 जानवर बैठे होते हैं. पहले बच्चों को इकट्ठा करके गोबर साफ करवाते हैं फिर कक्षाएं शुरू होती हैं.’

सावित्री इसी स्कूल में खाना बनाती हैं. उनके अपने पास ज़मीन नहीं है. उन्होंने बटाई पर कुछ ज़मीन उठा रखी है. उनका कहना है कि डेढ़ बीघा ज़मीन बटाई पर लेकर मक्का बोया था. रात भर रखवाली करते हैं, लेकिन फिर भी साफ हो गया. इसी सीज़न में तीन बार जानवरों ने चर लिया, तीन बार बोया गया. जैसे ही फसल उगती है, जानवर चर लेते हैं. हमारे परिवार में भी और लोगों का भी सब साफ हो गया. लकड़ी बांस वगैरह लगाकर घेर दिया था, तब भी नहीं बचा.

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सावित्री ने तीन बार मक्का बोया और तीनों बार आवारा जानवरों ने चर लिया. (फोटो: कृष्णकांत)

तबाही सिर्फ़ इसी गांव में नहीं है. इसके बगल थानाक्षेत्र परसपुर का गांव है गदापुरवा. यहां के राम बिहारी पाठक अपने खेत मे हल चला रहे थे. अचानक यही मरकहा सांड़ वहां पहुंच गया. उनके बैल डर गए और भागने लगे. उन्होंने भगाने की कोशिश की तो वह अड़ गया. उन्होंने बैलों को खेत में ही छोड़ दिया और भाग कर अपने घर गए और भाला लेकर आए.

तब तक सांड़ वहीं मौजूद था और उनके दोनों बैल जुआ तोड़ कर भाग चुके थे. राम बिहारी ने भाले की मदद से उसे भगाना चाहा, लेकिन सांड़ उनकी तरफ लपका. उन्होंने उसके सिर पे भाले से मारा लेकिन वार बेअसर रहा.

कहते हैं मरकहे सांड़ से भिड़ंत होने पर आपको भागना नहीं है, अगर भागे तो वह खदेड़ कर मरेगा. राम बिहारी ने उसकी गर्दन के पास भाला घुसाया, लेकिन सांड़ आगे बढ़ता रहा. दोनों ओर से ताक़त लगी और भाले का छड़ टूट गया. अब दोनों आमने सामने थे. उनके हाथ में लाठी जैसा टूटा हुआ छड़ था. वे गोल गोल घूमकर सांड़ को चकमा देते और उसी लाठी से मारते जाते.

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ग्रामीण रामबिहारी पाठक की सांड़ से भिड़ंत में तो जान बच गई, लेकिन खेती बचाना मुश्किल हो रहा. फोटो: कृष्णकांत

तब तक कुछ लोग और आ गए. हल्ला मचाया, मार पीट कर उसे भगाया गया. राम बिहारी का कहना है, ‘भगवान की कृपा ही समझो, मौत के मुंह से निकल आया हूं.’

वे सवाल उठाते हैं कि यह कौन सा नियम क़ानून बना दिया गया है कि कोई जानवर ख़रीद ही नहीं रहा है. जिन जानवरों का कोई काम नहीं है, उनको कौन रखेगा. कम से कम बूचड़खाने में कट ही जाते थे, खेत तो बचे रहते थे. इस गोरक्षा के चक्कर में खड़ी फ़सल बचाना मुश्किल हो रहा है.’

भारतीय किसानों के राम उन्मादी नहीं हैं. वे मानवीय हैं. अगर मनुष्य को गोवंश से खतरा है तो भारतीय जनमानस के भगवान मनुष्य की तरफ खड़े होते हैं. भारतीय जनमानस की आस्था में जो ईश्वर, राम या रहीम है वह जानवर के सामने मनुष्य को महत्व देता है.

इस इलाके में आप जाएंगे तो इस बारे में आपको अलग से तफ़्तीश नहीं करनी है. जहां चार लोग एकत्र हो रहे हैं वहां यही चर्चा का विषय है कि कैसे आवारा पशुओं का झुंड उनकी फ़सल तबाह कर गया.

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मक्के के खेत में चरने के बाद वहीं बैठा आराम फ़रमाता सांड़. (फोटो: कृष्णकांत)

इलाक़े के लोग एक मरकहे सांड़ के अलावा तमाम छुट्टा जानवरों से त्रस्त हैं. यह मरकहा सांड़ गुस्सैल है और उन सांड़ों की तरह नहीं है जो किसी शहर की सड़क पर बैठे आराम फरमा रहे होते हैं. अगर वह सड़क पर है तो आप बगल से गुज़र नहीं सकते. इस इलाके में हर कोई इस सांड़ के मरने की कामना कर रहा है, बस अपने हाथ से कोई मारना नहीं चाहता. गोहत्या लगने से लोग डरते हैं.

यहां जिसके भी हाथ से गाय या गोवंश मर जाए, उसपर गोहत्या लगती है. वह व्यक्ति महीने भर गांव से बाहर कुटिया बनाकर रहेगा. वहीं खाएगा, अपने हाथ से खाना बनाएगा, कोई उससे संपर्क नहीं रखेगा. एक महीने बाद वह भागवत कथा सुनेगा. गोदान करेगा, सबको भोज देगा और फिर समाज उसे अपने मे शामिल मानता है. बताते हैं यह परंपरा सदियों पुरानी है.

रामबिहारी पाठक खुद प्रवचन करते हैं, इलाके के लोगों यहां कीर्तन भजन गाते हैं, हार्मोनियम बजाते हैं. कई बार वे प्रवचन करने बाहर भी जाते हैं. रोज़ पूजापाठ करते हैं लेकिन सरकारी गोरक्षा से चिढ़े हुए हैं. बातचीत में वे चिढ़कर कहते हैं, ‘गोरक्षा के चक्कर में पशुधन ही किसानों का दुश्मन हो गया है. गोरक्षा भी क्या हो रही है? नौटंकी हो रही है. किसानों की तबाही है. पूरे गांव में सबका खेत छुट्टा जानवरों ने सफाचट कर दिया है.’

वे बताते हैं, ‘अब तक सुबह उठकर अपना काम करते थे. अब सुबह उठकर भाला लेकर पहले खेत देखने जाते हैं. लौटते लौटते आठ बज जाता है. इसके बाद भी निगाह चूक गई तो झुंड भर जानवर आकर मिनट भर में साफ कर देते हैं.’

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अरहर के खेत में चरती छुट्टा गाय. (फोटो: कृष्णकांत)

अभी तक छुट्टा जानवर शहर की सड़कों पर ही दिखते थे, लेकिन अब गांव के लोग अपने पशुओं को छुट्टा क्यों छोड़ रहे हैं, इसके जवाब में रामबिहारी कहते हैं, ‘अब खेती ट्रेक्टर से होती है. बैल कोई रखता नहीं. गांव में दो तीन घरों में बैल हैं. अभी तक फालतू जानवरों जो लोग बेच देते थे. सरकार ने बूचड़खाने बंद कर दिए. अब उनको कोई खरीदने वाला नहीं है. इलाके का पशु बाजार बंद हो गया. यहां बेकार पशुओं को कौन रखेगा?’

सरकार के गोरक्षा अभियान पर वे गाली देते हुए कहते हैं, जिसको खाना है खाए, न खाना हो न खाए. हम नहीं खाते तो कोई जबरन हमें खिलाने तो आता नहीं. जिसे खाना है खाए. इससे तो वही ठीक था कि फालतू जानवर नहीं थे. कम से कम खेत तो बचे थे. गोरक्षा करो तुम, खेती बर्बाद हो हमारी! यह कौन सी गोरक्षा है!’

यह व्यथा उनकी अकेली नहीं है. मैं गांव के बगल की चाय की दुकान पर बैठा था. गांव के रिटायर्ड डाकिया रास बिहारी पांडेय लाठी लेकर आते दिखे. हाल पूछने पर बोले, ‘अरे भैया, छुट्टा जानवरों ने तबाह कर रखा है. घर से तीन घंटा पहले निकले हैं, सब खेत टहलते हुए आए हैं. थक गए. मक्का बोए थे, अब तक एक फीट उंची फसल होती, लेकिन सब चर के साफ कर दिया.’

बूचड़खाना बंद होने का नुकसान बताते हुए रासबिहारी कहते हैं, ‘सरकार तो वैसे भी मांस बाहर भेजती है. जिसका पेट भरता है, भरे तो क्या हर्ज है. इससे तो दोहरा नुकसान है. जो खा रहा है उसके खाने पर भी पाबंदी और इधर किसान की बर्बादी. ऐसे तो नहीं चल पाएगा.’

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ब्लेड वाले तारों के चपेट में आने से तमाम जानवर घायल भी हैं. बाएं तरफ चल रही गाय के पैर में बुरी तरह घाव है. (फोटो: कृष्णकांत)

गदापुरवा के अमित पाठक बताते हैं, ‘लोग शिकायत लेकर डीएम के यहां गए थे, लेकिन वे बोले कि आप लोग किसान हैं. जानवर कहीं बाहर से तो आए नहीं हैं, किसानों ने ही छोड़ा है. सभी लोग मिलकर एक एक जानवर बांध लीजिए. उन्होंने कोई समाधान दे पाने में असमर्थता जताई. यह भी मांग की गई थी कि बड़े स्तर पर चारागाह बनवाए जाएं और कर्मचारी रखे जाएं लेकिन वह सब मंज़ूर नहीं हुआ.’

उनके अपने नुकसान के सवाल पर अमित कहते हैं, ‘जितना गन्ना बोया है, पूरे खेत में ब्लेड वाला तार लगवाया है. बहुत पैसा ख़र्च हुआ. जितने लोगों ने गन्ना बोया है, लगभग सबने तार लगवाया है. बहुत ख़र्च हो रहा है. जानवर समस्या बन गए हैं.’

प्रशासन के रवैये पर अमित मज़ाकिया लहजे में कहते हैं, ‘योगी आदित्यनाथ जानवरों के बड़े प्रेमी हैं. जब सबने विरोध किया तो वे और प्रेम दर्शाने लगे कि हम अपने हाथ से आवारा जानवरों को भी चारा खिलाते हैं. लेकिन आदमी एक दो जानवर पाल सकता है, हज़ारों जानवर कौन पालेगा? यहां गांव से रगड़गंज बाज़ार सात किलोमीटर है, वहां तक जाइए तो सिर्फ़ सड़क पर ही आपको 500 जानवर मिलेंगे. खमरौनी में अकेले क़रीब 400 जानवर हैं. इतने जानवर जहां पहुंचेंगे, वहां क्या बचेगा? खेती में इतनी भर्ती लगती है, पूरे प्रदेश में इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा?

इस गांव के ठीक बगल छितौनी गांव के शिवमोहन सिंह अब बुजुर्ग हो चले हैं. उन्होंने अपना सब खेत बटाई पर दे दिया है. तीन बीघा धान ख़ुद लगाया था. बताते हैं कि ‘सब साफ हो गया है. जानवर इतने हैं कि रखवाली मुश्किल है. कई मरकहे जानवर हैं तो अकेले भगा भी नहीं सकते. हमने ज़्यादा बोया ही नहीं था, जो था वह भी चला गया. हमने तो संतोष कर लिया है.’

यहां पहले कांजी हाउस हुआ करता था. लोग आवारा जानवरों को पकड़कर वहां छोड़ आते थे. कई साल पहले वह भी बंद हो चुका है. लोगों के लिए जानवर समस्या तो हैं लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि वे क्या करें.

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खेत में चर रहे जानवरों को भगाता किसान. (फोटो: कृष्णकांत)

गोंडा के वरिष्ठ पत्रकार जानकी शरण द्विवेदी कहते हैं, ‘इस समस्या का सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि अब बैलों और बछड़ों की उपयोगिता ख़त्म हो गई. अब कृषि कार्य में बैलों का इस्तेमाल न के बराबर है. एक गांव में एक या दो घरों में बैल मिलेंगे. बैलों से ही जुताई होती थी, बैलगाड़ी में बैलों का इस्तेमाल होता था, फसलों की मड़ाई होती है. अब सब बंद हो गया. इसीलिए पशु बाज़ार बंद हो गए. मूल कारण तो ये है कि उनकी उपयोगिता खत्म हो जाना.’

रासबिहारी भी यही कारण बताते हैं कि अब बछड़ों को कोई नहीं पूछता. लोग अब खेती में बैल की जगह ट्रैक्टर का इस्तेमाल करते हैं. अब इनका कोई क्या करे. यही नहीं, बछड़ों के अलावा गायें भी आवारा घूमती दिख रही हैं.

अमित ने बताया कि सबसे बड़ी समस्या जरसी गायों से पैदा होने वाले हाइब्रिड नस्ल के बछड़े हैं. वे बड़े होकर किसी काम के नहीं होते. वे न जुताई के काम आ सकते हैं, न ही उनसे कोई दूसरा काम लिया जा सकता है. उनका कोई क्या करे? वे सबसे बड़ी समस्या हैं.’

कुछ लोगों ने खेत की तारबंदी की है लेकिन जानवर तार कूद कर भी अंदर चले जाते हैं. कुछ लोगों ने ब्लेड वाले तार लगाए हैं. जानवर उसके किनारे आते हैं तो जहां तहां काट देता है. रजपाल सिंह ने बताया, ‘एक दिन गांव के लोगों ने मरकहे सांड़ के घेर कर उसी तार में फंसा दिया. जगह जगह कट गया है. हो सकता है कि कीड़े पड़ जाएं तो मर जाए.’

यानी लोग यह चाहते हैं कि ये आवारा जानवर मर जाएं लेकिन उन्हें ख़ुद कोई नहीं मारना चाहता. इसीलिए यह ब्लेड वाले तार लगाए गए हैं. जानवर कट जाएं तो ज़्यादातर ये होता है कि उनको कीड़े पड़ जाते हैं और वे सड़कर मर जाते हैं. जानकी शरण कहते हैं, हिंदू मान्यता के मुताबिक गोवंश को कोई ख़ुद मारना नहीं चाहता, लेकिन बेचारे दुखी हैं तो करें क्या. उनकी स्थिति समझनी चाहिए.’

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अरहर और मक्के के खेतों में विचरण करते आवारा जानवर. (फोटो: कृष्णकांत)

इसी इलाके के सालपुर गांव के राधेश्याम तिवारी ने बताया, ‘छुट्टा जानवरों से इलाक़ा परेशान है. झुंड के झुंड जानवर अचानक आकर खेत साफ कर दे रहे हैं. अपने खेत दो तरफ से कंटीले तार से घेर दिया था. लेकिन तीसरे तरफ़ से आकर सब चर गए. मक्का पूरा साफ़ हो गया, धान लगभग आधा कर दिया. क्या किया जाए कुछ समझ में नहीं आता.’

एक ग्रामीण ने बताया, ‘जबसे खेतों में ये ब्लेड वाले तार लगाए गए हैं, कई जानवर कट गए हैं. अभी तो यही एक चारा है इन जानवरों से मुक्ति पाने का. कुछ लोगों ने प्लान बनाया है कि कई लोगों के खेत मिलाकर बड़े बड़े एरिया की तारबंदी की जाए.’

यह समस्या किसी एक कारण से नहीं उपजी नहीं है. खेती में जानवरों के घटते उपयोग से पैदा हुई समस्या को जानवरों के कटने पर रोक लगाने की नीति ने और बढ़ा दिया. जानकी शरण द्विवेदी बताते हैं, ‘अब तक लोग सिर्फ़ बछड़ों को छोड़ रहे थे. यह प्रक्रिया बछड़ों से शुरू हुई थी, लेकिन अब लोग अनुपयोगी गायों को भी छोड़ दे रहे हैं. कई जगह देखने में आ रहा है कि गाय जब तक दूध देती है, तब तक रखते हैं फिर छोड़ देते हैं कि अब कौन इनके पीछे मेहनत करे.’

वे कहते हैं, ‘इससे फसलों को बहुत नुकसान हो रहा है. आज किसानों के सामने यह सबसे बड़ी समस्या है. ये जानवर पूरी की पूरी खेती खा जा रहे हैं. किसान न तो उनको मार सकते हैं, न तो अब कांजी हाउस हैं, न कोई गोशाला वगैरह है जहां इन्हें रखा जा सके. अगर ऐसा ही कुछ साल तक रहा तो यह समस्या और विकराल हो जाएगी.’

गांवों के लोग परेशान तो हैं, लेकिन अभी उन्हें इस समस्या से उबरने की कोई तरक़ीब नहीं सूझ रही है. जानकी शरण कहते हैं, ‘स्थिति बहुत ख़राब हो गई है. अब सरकार ही कोई ऐसी पॉलिसी बना सकती है कि इन जानवरों से किसानों को मुक्ति मिले. आज की तारीख़ में कोई पशुओं को ख़रीदने को तैयार नहीं है. इस शासनकाल में सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता इतने उग्र हैं कि कोई ख़रीद कर ले जा रहा हो तो ये उसे पीट डालें. ऐसे में बेकार हुए गाय बछड़े बैल आदि कौन ख़रीदेगा? अगर प्रशासन चेतेगा नहीं तो आवारा पशुओं की बढ़ती तादाद यह संकट और बढ़ाएगी.’