गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में संसाधनों की ऐसी कमी है कि एक वॉर्मर बेड पर चार नवजातों को रखना पड़ता है.
गोरखपुर और बीआरडी मेडिकल कॉलेज इंसेफलाइटिस के कारण पूरे देश में चर्चा में रहा है. इंसेफलाइटिस पर ज़्यादा फोकस होने के कारण यहां पर नवजात शिशुओं की मौत कभी बहस के केंद्र में नहीं आ सकी जबकि आंकड़ों के हिसाब से नवजात शिशुओं की मौत इंसेफलाइटिस की तुलना में दो से तीन गुना अधिक है.
बड़ी संख्या में नवजात शिशुओं को यहां इलाज के लिए लाया जाता है लेकिन इसके लिए जो इंतज़ाम हैं, वह आज तक न्यूनतम हैं. शिशुओं की अत्यधिक संख्या होने पर एक ही बेड पर चार-चार बच्चों को रखना पड़ रहा था और जब मौतों की संख्या बहुत अधिक हो गई तो संक्रमण के ख़तरे की आशंका में एनआईसीयू (नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट) को खाली कराकर विसंक्रमित करना पड़ा था.
इन सभी समस्याओं के लिए एनआईसीयू को अपग्रेड करने का प्रस्ताव केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल को 28 अगस्त 2016 को दिया गया था लेकिन एक वर्ष बाद तक केंद्र सरकार ने इसको लेकर कोई पहल नहीं की.
द वायर के पास बीआरडी मेडिकल कॉलेज द्वारा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को दिए गए प्रस्ताव की एक प्रति मौजूद है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज के बाल रोग विभाग में एनआईसीयू सही मायनों में वर्ष 2014 में तब अस्तित्व में आया जब 100 बेड का इंसेफेलाइटिस वार्ड बना. इसके पहले बाल रोग विभाग के चिकित्सक अपने बूते पर वार्ड संख्या 6 के बाहर एक केबिन में इस एनआईसीयू को चला रहे थे.
बाल रोग विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. केपी कुशवाहा ने शहर के कुछ लोगों से सहयोग जुटाकर इसे बनवाया था और इसके ख़र्चों का ख़ुद इंतज़ाम करते थे. यह केबिन बहुत छोटा था और इसमें सिर्फ आठ बेड थे.
बाद में इसे बढ़ाकर 16 बेड का किया गया. बहुत प्रयास के बाद चिकित्सा शिक्षा विभाग ने दो बार में एक-एक लाख रुपये इस एनआईसीयू को दिए. जैसे-तैसे विभाग के डाॅक्टर इसे चलाते रहे.
जब 100 बेड का इंसेफेलाइटिस वार्ड बना तो प्रथम तल पर एनआईसीयू की स्थापना हुई. इसमें कुल 44 बेड उपलब्ध हुए जिसमें 18 वॉर्मर बेड और 12 वेंटीलेटर बेड मिले. यह वार्ड भी कुछ समय बाद बड़ी संख्या में शिशुओं की भर्ती के कारण नाकाफी सिद्ध होने लगा और इसके विस्तार की मांग होने लगी.
औसतन यहां पर एक समय में भर्ती शिशुओं की संख्या 100 तक पहुंच गई. इस कारण एक-एक वॉर्मर बेड पर चार-चार नवजात शिशुओं को रखना पड़ता था.
ये शिशु सांस की दिक्कतों, जन्म के समय दिल, दिमाग, गुर्दे की समस्याओं, गंभीर संक्रमण के साथ यहां भर्ती होने आते हैं. प्रीमेच्योर बेबी की भी संख्या बहुत अधिक होती है.
ज़िला अस्पतालों में 2015 में स्थापित किए गए न्यू बॉर्न बेबी केयर यूनिट अभी भी ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि वहां पर बाल रोग विशेषज्ञ ज़रूरत के मुताबिक नहीं है. यही कारण है ज़िला अस्पतालों, सीएचसी-पीएचसी में पैदा हुए शिशुओं को उपरोक्त दिक्कतों के कारण तुरंत मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया जाता है. निजी अस्पतालों से भी नवजात शिशु रेफर होकर यहां भर्ती होते हैं.
दो वर्ष से बाल रोग विभाग की ओर से एनआईसीयू को अपग्रेड किए जाने की मांग की जाने लगी. पिछले वर्ष स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल गोरखपुर आईं तो उन्हें फिर से प्रस्ताव दिया गया.
इस प्रस्ताव के मुताबिक एनआईसीयू की क्षमता बढ़ाकर इसे 43 से 100 कर दी जाए. एनआईसीयू को अपग्रेड करने के लिए कुल 11 करोड़ 50 लाख 39 हज़ार की ज़रूरत थी. इसमें चार करोड़ दवाइयों, सर्जिकल आइटम के लिए, 5.12 करोड़ उपकरणों के लिए, स्टेशनरी व कम्प्यूटर रिकॉर्ड के लिए 40 लाख, उपकरणों की मरम्मत के लिए 25 लाख, डॉक्टर, स्टाफ नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के वेतन के लिए 2.03 करोड़ तथा प्रशिक्षण के मद में 50 लाख रुपये वार्षिक मांगे गए थे.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल प्रस्ताव ले गईं लेकिन एक वर्ष तक इस पर अमल नहीं हुआ. नतीजतन एनआईसीयू में हालात बदतर होते गए. मार्च महीने में एनआईसीयू की सिस्टर इंचार्ज ने प्राचार्य को लिखा कि एनआईसीयू को सुचारू रूप से चलाने के लिए 30 वॉर्मर की ज़रूरत है. इसकी तत्काल व्यवस्था की जाए.
31 जुलाई को बाल रोग विभाग की अध्यक्ष डॉ. महिमा मित्तल ने प्राचार्य को पत्र लिखा कि एनआईसीयू के 11 वॉर्मर पर 70 मरीजों का इलाज चल रहा है. इसमें अत्यंत गंभीर सेप्टिक वार्ड में एक-एक बेड पर चार-चार मरीज़ भर्ती हैं.
उन्होंने यह भी लिखा कि पूर्व में संसाधन बढाए जाने के बारे में प्रस्ताव भेजा गया है. अभी तक प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं होने से मरीजों के इलाज में परेशानी हो रही है. अभी 3 अगस्त को एनआईसीयू के स्टाफ ने बाल रोग विभागाध्यक्ष को जानकारी दी कि 11 वॉर्मर पर 70 मरीज़ों का इलाज चल रहा है. एक-एक वॉर्मर पर चार-चार मरीज़ भर्ती हैं. अब नए मरीज़ों के इलाज के बारे में दिशा निर्देश दें.
ये पत्र बता रहे हैं कि एनआईसीयू में हालात ठीक नहीं थे और जितने संसाधन की ज़रूरत थी वह उपलब्ध नहीं कराए गए. एनआईसीयू को अपग्रेड करने के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार एक वर्ष तक सोती रही.
इन सब कारणों से एनआईसीयू में मृत्यु दर बढ़ने लगी थी और यह 40 फीसदी से अधिक हो गई थी जबकि पहले यह 20 फीसदी थी. अब जब आॅक्सीजन की कमी भी हुई तो मौत के आंकड़े और बढ़ गए. अब सरकार कह रही है कि एनआईसीयू को अपग्रेड करने का काम जल्द होगा.
सवाल है कि महज़ 11.15 करोड़ रुपये से एनआईसीयू को अपग्रेड करने का निर्णय लेने में केंद्र और प्रदेश सरकार को इतनी देरी क्यों हुई और क्या इस कारण नवजात शिशुओं की मौत की ज़िम्मेदारी क्या दोनों सरकारें लेंगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों में से एक हैं.)