नरेंद्र मोदी स्टेडियम: आज़ादी के नायकों की जगह लेते ‘नए इंडिया’ के नेता

मोटेरा स्टेडियम का नाम बदलना दुनिया के इतिहास में- ख़ासकर उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष कर आज़ाद हुए मुल्कों में, ऐसा पहला उदाहरण है, जहां किसी स्वाधीनता सेनानी का नाम मिटाकर एक ऐसे सियासतदां का नाम लगाया गया हो, जिसका उसमें कोई भी योगदान नहीं रहा.

/
नरेंद्र मोदी स्टेडियम. फोटो: रॉयटर्स)

मोटेरा स्टेडियम का नाम बदलना दुनिया के इतिहास में- ख़ासकर उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष कर आज़ाद हुए मुल्कों में, ऐसा पहला उदाहरण है, जहां किसी स्वाधीनता सेनानी का नाम मिटाकर एक ऐसे सियासतदां का नाम लगाया गया हो, जिसका उसमें कोई भी योगदान नहीं रहा.

नरेंद्र मोदी स्टेडियम. फोटो: रॉयटर्स)
नरेंद्र मोदी स्टेडियम. फोटो: रॉयटर्स)

क्रिकेट का खेल भारत का सबसे लोकप्रिय खेल है. पिछले दिनों यह खेल नहीं बल्कि इस खेल के लिए फिलवक्त मौजूद दुनिया का ‘सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम’ एक अलग वजह से सुर्खियों में आया.

मौका था अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम- जिसे सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम के तौर पर जाना जाता रहा है – के नए सिरे से उद्घाटन का, जो वर्ष 2015 में नवीनीकरण के लिए बंद किया गया था और अब नयी साजसज्जा एवं विस्तार के साथ खिलाड़ियों एवं दर्शकों के लिए तैयार था.

याद रहे कि पहले गुजरात स्टेडियम के तौर जाने जाते इस स्टेडियम का स्वाधीनता आंदोलन के महान नेता वल्लभभाई पटेल – जो आज़ादी के बाद देश के गृहमंत्री भी थे- के तौर पर नामकरण किया गया था, जब तत्कालीन गुजरात सरकार ने स्टेडियम के लिए सौ एकड़ जमीन आवंटित की, जिसका निर्माण महज नौ महीनों में पूरा किया गया था. (1982)

दरअसल हुआ यह कि जिस दिन उसका उद्घाटन होना था, उस दिन अचानक लोगों को पता चला कि अब यह सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम नहीं बल्कि ‘नरेंद्र मोदी स्टेडियम’ के तौर पर जाना जाएगा.

सबसे विचित्र बात यह थी कि इस नामकरण को बिल्कुल गोपनीय ढंग से किया गया. गोपनीयता इस कदर थी कि खुद समाचार एजेंसियों प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया या एएनआई आदि तक को पता नहीं था कि उसका नामकरण किया जाने वाला है.

जाहिर था कि पीटीआई या एएनआई जैसी संस्थाओं की सुबह की प्रेस विज्ञप्ति भी उसे सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम के तौर पर संबोधित करती दिख रही थी. यह अलग बात है कि अगली प्रेस विज्ञप्ति में अचानक नरेंद्र मोदी स्टेडियम का जिक्र होने लगा.

अब जैसी कि उम्मीद की जा सकती है कि इस नामकरण- जो दरअसल नामांतरण था- पर तीखी प्रतिक्रिया हुई. न केवल इसे सरदार वल्लभभाई पटेल के अपमान के तौर पर देखा गया बल्कि यह भी कहा गया कि एक पदेन प्रधानमंत्री का नाम देकर प्रस्तुत सरकार ने एक तरह से दुनिया में अपनी हंसी उड़ाने का ही काम किया है.

विपक्ष ने साफ कहा कि यह एक तरह से मोदी के पर्सनालिटी कल्ट को अधिक वैधता प्रदान करने का काम है. मिसालें पेश की गईं कि समूची दुनिया में भी ऐसी मिसालें बहुत गिनी-चुनी ही मिलती हैं, जो अधिनायकवादी मुल्कों में दिखती हैं.

जैसे इटली में जिन दिनों मुसोलिनी की फासीवादी हुकूमत कायम थी, उन दिनों जिसे आज ‘स्टेडिओ ऑलिम्पियो ग्रांडे टोरिनो’ के नाम से संबोधित किया जाता है वह स्टेडिओ मुनिसिपल्स बेनिटो मुसोलिनी के नाम से जाना जाता था.

वर्ष 1933 में निर्मित जर्मनी के स्टुटगार्ट का स्टेडियम भी हिटलर के नाम से जाना जाता था एडोल्फ हिटलर काम्फबाहन, जो आज मर्सिडीज बेंज एरेना के तौर पर संबोधित किया जाता है.

इराक में जब सद्दाम हुसैन की अधिनायकवादी हुकूमत कायम थी तब वहां के एक अग्रणी स्पोर्टस कॉम्प्लेक्स बगदाद जिमनेशियम सद्दाम हुसैन के नाम से जाना जाता था.

यह भी बताया गया कि दुनिया के इतिहास में- खासकर उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष कर आज़ाद हुए मुल्कों में भी यह पहला ही उदाहरण था कि किसी स्वाधीनता सेनानी का नाम मिटाकर, वहां एक ऐसे सियासतदां का नाम लगा देना, जिसका उसमें तनिक भी योगदान न हो.

इस घटनाक्रम से जैसे-जैसे परदा खुलता गया, वैसे इस कदम को लेकर बरती गई गोपनीयता तथा सत्ताधारियों की हड़बड़ाहट भी सामने आयी.

जब इस नामकरण को लेकर शोर अधिक बढ़ा तो एक तरह से अपनी झेंप मिटाने के लिए अचानक यह ऐलान किया गया कि यह स्टेडियम तो सरदार वल्लभभाई पटेल स्पोर्टस एन्कलेव का एक हिस्सा मात्रा है.

गौरतलब था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम इसके साथ चस्पा करने की समूची प्रक्रिया में इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया कि इसका राजनीतिक संदेश क्या जाएगा? जाहिर है उन्हें इस संदेश की कोई परवाह नहीं थी.

पिछले दिनों संसद के पटल पर कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने प्रस्तुत सरकार की कॉरपोरेट घरानों की नजदीकी को लेकर यह स्लोगन भी गढ़ा था कि ‘हम दो हमारे दो’, इसमें इशारा देश के दो अग्रणी कॉरपोरेट घरानों की ओर था.

स्टेडियम के नामकरण की आलोचना करते हुए खुद राहुल गांधी ने तस्वीरें साझा कर दिखाया कि स्टेडियम का एक छोर रिलायंस एंड और दूसरा छोर अडानी एंड के तौर पर जाना जाता है.

दिलचस्प था कि ख़बरों के मुताबिक खुद मोदी समर्थकों के एक खेमे में भी इस नामकरण को लेकर दिग्भ्रम और निरुत्साह की स्थिति बनी रही.

उनके लिए यह समझना मुश्किल था कि जिस सरदार पटेल के साथ कांग्रेस द्वारा न्याय नहीं किया गया की रट लगाई जाती रहती है, उनके सम्मान के विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति खड़ी की गई है, उन्हीं का नाम क्यों स्टेडियम से हटाया गया.

अलबत्ता एक बड़े हिस्से की तरफ से इस नामांतरण को इस तर्क के आधार पर उचित ठहराया जाने लगा कि अब हमें अपने आप को अधिक एसर्ट करना चाहिए.

कुछ उत्साही लोगों ने इतिहास के सफहों को खंगालने की कोशिश की ताकि यह दिखाया जा सके कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों ने- खासकर नेहरू ने भी ऐसे किया था- अलबत्ता उन्हें इस मामले में निराशा ही हाथ लगी. फिर इस नामांतरण को इस आधार पर उचित ठहराया जाने लगा कि यह दरअसल मोदी का अपना फैसला नहीं है बल्कि गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन का फैसला है.

यह वही एसोसिएशन है जिसकी सदारत खुद नरेंद्र मोदी करते थे, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे. यह तर्क इस वजह से भी अटपटा था क्योंकि कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी चाहते तो एसोसिएशन के इस फैसले से इन्कार कर सकते थे, जैसा कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने किया था.

नेहरू पर लिखी अपनी किताब में पीयूष बबेले ससंदर्भ बताते हैं कि आज़ादी के बाद जब 1951 में देश में पहले एशियाड खेलों का आयोजन कराना था, उन दिनों तत्कालीन क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मानद सचिव डिमेलो की तरफ से यह प्रस्ताव आया कि नए बन रहे स्टेडियम को उनका नामकरण किया जाए.

उसके जवाब में नेहरू ने बाकायदा एक नोट लिखा:

‘मैंने मिस्टर डिमेलो द्वारा बनाया गया वह नोट पढ़ा, जिसमें उन्होंने नई दिल्ली में ‘नेहरू स्टेडियम इन पार्क’ और मुंबई में ‘वल्लभभाई पटेल ओलंपिक स्टेडियम’ बनाने का सुझाव दिया है. मैं भारत में खेल-कूद और एथलेटिक्स को पूरा प्रोत्साहन देने के पक्ष में हूं. यह बहुत अफसोस की बात है कि देश में कहीं भी कोई ढंग का स्टेडियम नहीं है… इसलिए मुझे लगता है कि सरकार को हर तरह से स्टेडियम निर्माण के काम को बढ़ावा देना चाहिए.

मैं किसी भी स्टेडियम का नाम अपने या किसी दूसरे व्यक्ति के नाम पर रखे जाने के सख़्त खिलाफ हूं. यह एक बुरी आदत है और इसे बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. स्टेडियम का नाम ‘नेशनल स्टेडियम’ या इसी तरह का कोई दूसरा नाम हो सकता है.’

बहरहाल अब जैसी कि स्थितियां मौजूद हैं, वहां हम कभी भी यह जान नहीं पाएंगे कि आखिर सरदार पटेल का नाम स्टेडियम से क्यों रातोंरात हटा दिया गया? और जीते जी उनका नाम किसी वस्तु के साथ चस्पा करने की बेचैनी क्या थी?

एक आलोचक ने कहा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गृहमंत्री के तौर पर सरदार पटेल ने राष्ट्र्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगायी गई पाबंदी का और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को जो जेल में बंद किया गया था, उसी का यह प्रतिशोध लिया गया है.

वैसे हजारों करोड़ रुपये की लागत से बने स्टेडियम के साथ चस्पा किया गया पदेन प्रधानमंत्री का नाम इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के अंत में मुल्क के सबसे बड़े सूबे में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा डॉ. आंबेडकर और कांशीराम के साथ साथ अपनी मूर्तियां खड़ा करने के उद्यम की याद दिलाता है.

मायावती के इस कदम की उनके विरोधियों ने जिसमें संघ-भाजपा के लोग भी शामिल थे न केवल तीखी आलोचना की थी बल्कि उनका मज़ाक भी उड़ाया गया था.

इन्हें उनकी ‘आत्ममुग्धता और मेगोलोमैनिएक (बड़ाई का ख़ब्त) कहा गया था. इन मूर्तियों के निर्माण पर कथित तौर पर जो सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च हुए थे, उसे पैसे की बर्बादी कहते हुए इन पैसों को उन्हीं से वसूले जाने की बात भी उठायी गई थी. आज भी सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला विचाराधीन है.

सर्वोच्च न्यायालय में अपनी तरफ से दिए गए जवाब में मायावती ने कहा था कि इन मूर्तियों का निर्माण दरअसल ‘जनता की इच्छा’ की नुमाइंदगी करता है. अगर आप यह पूछें कि क्या इन पैसों का इस्तेमाल शिक्षा या अस्पतालों पर होना चाहिए था या नहीं तो यह ‘‘बहस लायक प्रश्न है और अदालत में तय नहीं किया जा सकता.

वैसे एक ऐसे वक्त़ में जब महामारी के चलते लाखों लोगों के रोजगार चले गए हैं, लोगों के जीने की मुश्किलें बढ़ गई हैं, ऐसे समय में हजारों करोड़ रुपयों की लागत से बने स्टेडियम का नामांतरण अपने नाम से कर देना एक लोकतांत्रिक मुल्क के कर्णधार को कतई शोभा नहीं देता.

यह कदम इस वजह से भी गलत है कि स्वाधीनता संग्राम के एक महान नायक सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम को हटाकर वह उस पूरी परंपरा के प्रति अपनी बेरुखी और अपनी दूरी का परिचय देता है और इस परंपरा को अपमानित करता है.

बहरहाल ऐसे सवाल अगर तेज हो जाएं तो प्रधानमंत्री के समर्थक मायावती द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर शपथपत्र से कुछ नए तर्क ढूंढ सकते हैं, वह बता सकते हैं कि यह नामांतरण भी दरअसल ‘जनता की इच्छा’ का ही प्रतिबिंबन है, वही जनता जिसने लगातार दो चुनावों में मोदी को ही वज़ीरे आज़म का ताज़ पहनाया है.

वैसे जानकार बताते हैं कि अंग्रेजों के आगमन के बाद ही हमारे मुल्क में सार्वजनिक निर्माणों और मूर्तियों के जरिये जनता के द्वारा स्मरण किए जाने की परंपरा शुरू हुई.

स्वतंत्रता के बाद ही औपनिवेशिक काल में बनी इन मूर्तियों को हटाया गया और राष्ट्र्रीय आंदोलन के नेताओं, अग्रणियों की मूर्तियां या उनके नाम से- फिर चाहे महात्मा गांधी हों, झांसी की रानी हो या भगत सिंह हों- सार्वजनिक इमारतों, निर्माणों का नामकरण शुरू हुआ.

क्या विश्व के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम कहे जाने वाले इस निर्माण के साथ जुड़े सरदार पटेल के नाम को हटाकर हुआ यह नामांतरण क्या अब उस तीसरे सिलसिले की शुरुआत कहा जा सकता है, जब आज़ादी के नायकों को इसी तरह विस्मृत कर दिया जाएगा और उनके स्थान पर नए इंडिया के नए नायकों के नाम एक-एक कर चस्पा कर दिए जाएंगे, जिसकी झलकियां अब चारों तरफ दिख रही हैं.

अभी दो रोज पहले ही ख़बर आई कि आईआईटी खड़गपुर के डॉ. बिधान चंद्र रॉय अस्पताल के नामांतरण का सिलसिला फिलवक्त़ रुक गया है, जिसे भारतीय जनसंघ के पहले अध्यक्ष रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम से बदल दिया जाने वाला था.

ध्याद रहे आज़ादी के एक नायक डॉ. बीसी रॉय, न केवल बंगाल के पहले मुख्यमंत्री रहे बल्कि उनके द्वारा तमाम संस्थानों के निर्माण में निभाई गई अग्रणी भूमिका के चलते तथा दुर्गापुर, कल्याणी, अशोकनगर, हावड़ा एवं बिधाननगर जैसे विख्यात शहरों की नींव डालने के लिए आधुनिक बंगाल का निर्माता कहा जाता है.

इसके बरअक्स इतिहास गवाह है जब 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था, उन दिनों हिंदू महासभा के अग्रणी रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर वहां सरकार बनाई थी और घोषित तौर पर 1942 के आंदोलन का विरोध किया था.

अंत में इस नामांतरण ने बरबस निकारागुआ के महान कवि एडुओर्डो कार्डिनाल (20 जनवरी 1925 -1 मार्च 2020), जो ईसाई धर्म की विद्रोही परंपरा लिबरेशन थियोलोजी के हिमायती थे और जो वहां कायम रही सोमोजा की तानाशाही के खिलाफ संघर्ष में भी जबरदस्त सक्रिय रहे और निकारागुआ के इंकलाब के बाद वहां संस्कृति मंत्री भी बने- की एक कविता अचानक सुदूर भारत में अलग-अलग भाषाओं में गूंजने लगी है. इसका शीर्षक था ‘सोमोज़ा स्टेडियम में सोमोज़ा की प्रतिमा का अनावरण करते हुए सोमोज़ा’.

लेकिन इस कविता पर चर्चा फिर कभी.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)