नियमगिरि में धरणी पेनु सबसे बड़ी शक्ति हैं, जो धरती का स्वरूप कही जाती हैं. लोगों का विश्वास है कि धरती की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए. बीते दिनों इनकी उपासना करते हुए नियमगिरि पर्व मनाकर लोगों ने अपनी एकता को मजबूत करने का संकल्प लिया.
![नियमगिरि पर्व में हिस्सा लेती आदिवासी महिलाएं. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)](https://hindi.thewire.in/wp-content/uploads/2021/03/Niyamgiri-Festival-Photo-Special-Arrangement-2.jpg)
सूरज डूब रहा है. शाम हो रही है. एक सफेद चांद पहाड़ के सिरहाने आकर बैठ गया है. वह देख रहा है कैसे नियमगिरि पहाड़ पर लोग नियमगिरी पर्व के लिए चारों ओर से जुट रहे हैं.
डोंगरिया कोंध स्त्रियां नियमगिरि के हर गांव में आदिवासियों द्वारा पूजे जाने वाली सभी शक्तियों का आह्वान कर रही हैं. उनकी आत्मा को अपने भीतर महसूस करने की कोशिश कर रहीं हैं.
धरणी पेनु नियमगिरि की सबसे बड़ी शक्ति हैं. यह धरती मां का स्वरूप है. आज उसकी पूजा हो रही है. लोगों का विश्वास है कि धरती की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए.
उसके ऊपर नियमगिरि के ‘नियम राजा’ के नियम अर्थात उनके मूल्य हैं, जो आकाश की तरह हैं. ये नैसर्गिक मानवीय मूल्य ही असल में धर्म है.
धरती पर उन मूल्यों के बचने से ही इंसान और प्रकृति दोनों बचे रह सकते हैं. नियमगिरि के नियम राजा सिर्फ एक पहाड़ नहीं, बल्कि उन्ही मूल्यों के देव हैं.
सहमति के संकेत मिलने पर ही देते हैं बलि
बेजुनियों ने अपने पैरों में घुंघरू बांध रखे हैं. वे झूम रही हैं. पुरुषों का एक दल पारंपरिक वाद्य यंत्र बजा रहा है. उसकी धुन में बेजुनियां नाच रहीं हैं.
दो बुजुर्ग महिला सामने बैठी हुई हैं. नियम राजा से सवाल पूछने का दायित्व उनका है. इस तरह वे अपने नियम राजा से संवाद करती हैं. यह सारा काम स्त्रियां कर रही हैं.
इस दौरान धरती मां को बलि के रूप में मुर्गी चढ़ाया जाना है. मुर्गी से बार-बार अनुमति ली जा रही है. इसके लिए संकेत देखे जा रहे हैं. मुर्गी जब तक धरणी पेनु को चढ़ाया दाना न चुगे, उसे बलि के रूप में नहीं स्वीकारा जाता. दाना न चुगने पर उन्हें छोड़ दिया जाता है.
सहमति के संकेत मिल जाने पर उसकी बलि दी जाती है और बाद में उसको सामूहिक भोज में बांटा जाता है. बलि के रूप में एक बकरा भी चढ़ाया गया है.
एक बुजुर्ग आदिवासी इस संबंध में कहती हैं कि रक्त से जीवन खत्म नहीं होता लेकिन इससे नया जीवन मिलता है. जन्म लेते वक्त हम भी रक्त के बीच इंसानी आकर लेते हैं.
नियमगिरि पर्व के बाद पहाड़ पर पोड़ू खेती की शुरुआत होती है. रक्त देकर धरती को नए रूप में जीवन पाने के लिए उनका आह्वान किया जाता है.
हमारा विश्वास, रक्त देने से मिलता है नया जीवन
मैं पूछती हूं ‘पर बाकी समाज तो इसे हिंसा की तरह देखता है और इसका विरोध भी करता है.’ बुजुर्ग आदिवासी स्त्री कहती हैं कि जीवन और मृत्यु एक चक्र है. बीज मिट्टी में मिले बिना फिर उग नहीं सकता. हम धरती, पहाड़, पेड़ सबमें आत्मा के होने पर विश्वास करते हैं. रक्त देकर उनको नया जीवन मिलने पर विश्वास करते हैं. लेकिन यह बिना संवाद और उनकी सहमति के कभी नहीं होता. हम धरणी पेनु, नियमगिरि पहाड़, बलि चढ़ाए जाने वाले मुर्गी, बकरा और भैंस, सबसे बिना पूछे और उनकी सहमति लिए यह नहीं कर सकते. संकेत न मिलने पर बलि नहीं चढ़ाई जाती है.
गैर आदिवासियों में भी बदले स्वरूप में है बलि प्रथा
मुझे याद आता है. इस विषय पर झारखंड के चर्चित डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता मेघनाथ ने एक बार कहा था कि रामदयाल मुंडा यह मानते थे कि शेष धर्म में भी बलि का कॉन्सेप्ट नए रूप में बरकरार है. सिर्फ उसका स्वरूप बदल गया है.
मसलन मंदिर में नारियल फोड़ने के लिए एक पत्थर होता है. दरअसल नारियल फोड़ना भी उसी बलि प्रथा का बदला हुआ रूप है.
ईसाई धर्म में भी ईसा को बलि का मेमना बताते हुए उसकी स्मृति में एक क्रिया दोहराई जाती है. ईसा ने अपना रक्त बहाकर लोगों को नया जीवन दिया है, यह बार-बार कहा जाता है. यह सबकुछ बदला हुआ स्वरूप है.
आदिवासी जीवन दर्शन से गहरे जुड़ी सामाजिक कार्ययकर्ता शरान्या कहती हैं कि एक बलि तो इस देश में विकास के नाम पर चढ़ाया जाता है: आदिवासियों की बलि. और यह बलि जबरन दी जाती है. इसे हिंसा कहते हैं. आदिवासियों की पूजा में प्रकृति से संवाद और उनकी सहमति का होना, यही एक बात उन्हें अलग बनाती है.
यह 26 फरवरी की शाम है. मुर्गी और बकरे की बलि चढ़ाने के बाद पूजा खत्म हो गई है. रात बकरे का मांस तैयार किया गया और सभी लोगों ने एक साथ भोजन किया.
लय में नाचती है प्रकृति, इसे लय पसंद है
अगले दिन 27 फरवरी की सुबह फिर धरणी पेनु की पूजा हो रही है. दो बुजुर्ग महिला धरणी पेनु से संवाद करने और सवाल पूछने के लिए बैठी हुई हैं. फिर कुछ बेज़ुनियां नाच रही हैं. आज वे नाचते-नाचते रुक गई.
बुजुर्ग महिला पलटकर वादक दल के पुरुषों को डांट रही हैं. कह रही हैं ‘धरणी पेनु बात नहीं कर रहीं. ठीक से बजाइए. ताल नहीं बैठ रहा.’ वादक दल थोड़ा परेशान है. नयी धुन बजाता है. आज उन्हें बार-बार डांट पड़ रही है.
‘प्रकृति अपने लय में नाचती है. उसकी आत्मा को नृत्य के लिए एक लय चाहिए. उसके अनुसार आदमी को अपना लय-ताल ठीक करना चाहिए,’ बुजुर्ग महिला कुई भाषा में बार-बार यह कह रही हैं.
सृष्टि को बचाने-बनाने में स्त्री-पुरुष दोनों की भूमिका
पिछली शाम बुजुर्ग लोगों ने पूछा था कि गांव के पुरुष ‘नियम राजा’ को आह्वान करने में क्यों नहीं शामिल हुए? सृष्टि को बचाने, बनाने में स्त्री-पुरुष दोनों की भूमिका है. इस निर्देश का पालन किया गया.
27 फरवरी की सुबह पुरुष भी नहा-धोकर सुबह की पूजा में स्त्री बेजुनियों के साथ नृत्य करने आए. चावल के दाने चढ़ाए गए. फिर सुबह की पूजा संपन्न हुई.
दिनभर बाहर से लोगों के आने का और पर्व में शामिल होने की प्रक्रिया जारी रही. लोग गाजे-बाजे के साथ नाचते हुए पर्व में शामिल होने के लिए पहुंच रहे हैं. पहले से पहुंचे नियमगिरि के अलग-अलग गांव के लोग उनकी अगुवाई करने नाचते हुए जा रहे हैं.
इस वर्ष झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के अलग-अलग क्षेत्र के लोग भी नियमगिरि पर्व में हिस्सा लेने पहुंच रहे हैं.
आस्था, भाषा, संस्कृति बचाने के लिए जारी रहेगा संघर्ष
शाम को सभी लोग एकत्रित हुए. नियमगिरि आंदोलन के नेता लिंगाराज आज़ाद और ओडिशा में अन्य जगह पहाड़ों को बचाने के लिए संघर्ष करने वाले लोगों ने मिलकर केंद्र सरकार की तीनों नए कृषि कानूनों की प्रति जलाई और किसान आंदोलन के समर्थन में नारे लगाए.
लिंगाराज आज़ाद ने कहा ‘ देश में आम लोगों के साथ न्याय करने वाली नीतियां होनी चाहिए. जिस दिन न्याय खत्म होगा. यह देश भी नहीं बचेगा.’
नियमगिरि सुरक्षा समिति के मुख्य सचिव लोदो सीकोका ने कहा ‘खनन पर प्रतिबंध लगने के बावजूद नियमगिरि पर दूसरे तरीकों से हमले हो रहे हैं. इन दिनों आदिवासियों को हिंदू बताया जा रहा है. हमारी आस्था, भाषा, संस्कृति पर हमले हो रहे हैं. पर नियमगिरि के आदिवासी हिंदू नहीं हैं. हमारे बच्चों को स्कूली शिक्षा देने के नाम पर उनके प्रमाणपत्रों में हिंदू लिखा जा रहा है. हम जल्द ही इसके लिए सरकार को दाविपत्र ( मेमोरेंडम) देंगे और इसका विरोध करेंगे. हम न हिंदू हैं न ही ईसाई हैं. हम नियमगिरि पहाड़ की पूजा करते हैं. यही हमारा पूजास्थल है और यही हमारा घर है. इसे बचाने के लिए और इससे जुड़ी हमारी आस्था, भाषा, संस्कृति बचाने के लिए हमारा संघर्ष जारी रहेगा.’
![नियमगिरि पर्व में शामिल लोग केंद्र सरकार की तीनों नए कृषि कानूनों की प्रति जलाते हुए. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)](https://hindi.thewire.in/wp-content/uploads/2021/03/Niyamgiri-Festival-Photo-Special-Arrangement-1.jpg)
समिति के सभापति दोधि पुसिका ने कहा ‘हमारी जिस वेशभूषा और आस्था को पिछड़ा बताया जाता है, उसी आस्था, परंपरा और वेशभूषा के साथ हम अपना परिचय देंगे. इस पहाड़ के साथ जो हमारी पहचान भी खत्म करने की कोशिश कर रहे, हम उनके ख़िलाफ़ लड़ेंगे.’
इस दौरान कालाहांडी जिले से खंडवाल माली सुरक्षा समिति, कोरापुट जिले से माली पर्वत सुरक्षा समिति के सदस्यों ने भी अपनी बात कही.
छत्तीसगढ़ में नंदराज पहाड़ बचाने के लिए संघर्ष करते लोगों ने भी बस्तर की परस्थितियों को रखा. सबने ओडिशा में और दूसरे राज्यों में हो रहे आदिवासी संघर्ष से जुड़े लोगों के एकजुट होने की जरूरत को जरूरी बताया.
इस एकता के लिए नियमगिरि सुरक्षा समिति और खंडवाल माली सुरक्षा समिति के लोगों ने 14 से 24 फरवरी तक नियमगिरि के 112 गांवों में पदयात्रा भी की.
लोगों से नियमगिरि पर्व को धूमधाम से मनाकर अपनी एकता को मजबूत करने का संकल्प लिया, क्योंकि नियमगिरि के लोगों के लिए यह सिर्फ एक पर्व नहीं है, यह उनके लिए प्रतिरोध का पर्व है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)