बलात्कार हर देश में होते हैं पर सिर्फ हमारे यहां पीड़िता को इसका दोष दिया जाता है: निर्मला बनर्जी

साक्षात्कार: महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों, सीमित किए जा रहे अधिकारों के बीच उनसे संबंधित मुद्दों पर बात करने की ज़रूरत और बढ़ गई है. देश में महिलाओं की वर्तमान परिस्थितियों को लेकर बीते पांच दशकों से महिला आंदोलनों का हिस्सा रहीं वरिष्ठ अर्थशास्त्री निर्मला बनर्जी से सृष्टि श्रीवास्तव की बातचीत.

//
निर्मला बनर्जी: (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

साक्षात्कार: महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों, सीमित किए जा रहे अधिकारों के बीच उनसे संबंधित मुद्दों पर बात करने की ज़रूरत और बढ़ गई है. देश में महिलाओं की वर्तमान परिस्थितियों को लेकर बीते पांच दशकों से महिला आंदोलनों का हिस्सा रहीं वरिष्ठ अर्थशास्त्री निर्मला बनर्जी से सृष्टि श्रीवास्तव की बातचीत.

निर्मला बनर्जी: (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)
निर्मला बनर्जी: (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

आज़ादी के बाद भारत में महिला आंदोलन कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर समय-समय पर अपनी आवाज़ उठाता रहा है. इनमें से कई आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों ने महिलाओं के अधिकारों को दिलाने और इससे जुड़े कानूनों को लागू करवाने में बहुत बड़ी भूमिका भी निभाई है.

कई नारीवादी लेखक और नारीवादी-अर्थशास्त्री (फेमिनिस्ट-इकोनॉमिस्ट) महिलाओं के मुद्दों को सिर्फ पितृसत्ता तक ही नहीं बल्कि जाति, वर्ग और आर्थिक-सामाजिक पैमानों से जोड़कर समझने की बात पर ज़ोर देते आए हैं.

बीते पांच दशकों से भारत में महिला आंदोलनों और नारीवादी विचारधारा को करीब से देखती आ रही एक ऐसी ही एक अर्थशास्त्री हैं प्रोफेसर निर्मला बनर्जी. निर्मला बनर्जी (85) कोलकाता के सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेस में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर रही हैं. उन्होंने असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं, जेंडर बजट, घरों में महिलाओं की भूमिका और महिला मुद्दों पर कई ऐसी किताबें व लेख लिखे हैं, जिन्होंने इन विषयों को समझने में महत्वपूर्ण योगदान किया है.

बनर्जी के काम में वुमन वर्कर्स इन अनऑर्गनाइज़्ड सेक्टर : कैल्कटा एक्सपीरियंस, जेंडर इम्पैक्ट ऑफ रेवेन्यू कलेक्शन इन इंडिया और व्हाट इज़ जेंडर बजटिंग, पब्लिक पॉलिसीज़ फ्रॉम वीमेंस परस्पेक्टिव इन इंडियन कॉन्टेक्स्ट और वर्किंग वूमेन इन कोलोनियल बंगाल: मॉडर्नाइजेशन एंड मार्जिनलाइज़ेशन जैसी कई किताबें, ढेरों शोध पत्र और लेख शामिल हैं.

निर्मला बनर्जी अर्थशास्त्रियों के परिवार से ताल्लुक रखती हैं. उनके पति दीपक बनर्जी प्रेसीडेंसी कॉलेज (अब विश्वविद्यालय) में अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर रहे हैं, वहीं दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी उनके बेटे हैं. अभिजीत की पत्नी एस्थर डफ्लो भी नोबेल सम्मानित प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री हैं.

महिला आंदोलन के पांच दशकों के अनुभव, महिला दिवस के इतिहास, महत्व और आज के समय में महिलाओं की स्थिति से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर प्रोफेसर निर्मला बनर्जी की सृष्टि श्रीवास्तव से बातचीत.

बीते कुछ सालों से कॉरपोरेट जगत की कई बड़ी कंपनियों और ब्रांड्स ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को सामानों-सुविधाओं में भारी छूट देकर मनाने की शुरुआत की थी और अब यह ट्रेंड-सा बन गया है. आपका भारत में महिला आंदोलन के लगभग पांच दशकों से का तजुर्बा है, आपकी नजर में महिला दिवस को समझने और मनाने के तरीके में क्या बदलाव आया है?

8 मार्च असल में श्रमजीवी महिला दिवस के रूप में मनाया जाता था, ये मज़दूर महिलाओं के संघर्ष से ही शुरू हुआ था. आज पूंजीवाद ने महिलाओं को बांटकर रख दिया है- गरीब महिलाएं, मध्यवर्गीय महिलाएं, कामकाजी महिलाएं, बेरोज़गार महिलाएं, ग्रामीण महिलाएं, शहरी महिलाएं और ये सूची बढ़ती ही जाती है.

इन सबमें सबसे ख़राब स्थिति मज़दूर महिलाओं और गरीब महिलाओं की है, क्योंकि इनके पास कोई स्थाई नौकरी नहीं है और न ही अच्छा वेतन मिलता है. ये आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर स्थिति में हैं. ये महिलाऐं कार्यस्थल पर हो रहे शोषण या दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज़ भी नहीं उठा पाती हैं. दुखद है कि आज के समय में कोई भी इन महिलाओं की चुनौतियों के बारे में बात नहीं करता, बल्कि सिर्फ एक तबके की महिलाओं के बारे में बात होती है.

फेसबुक, ट्विटर और बाकी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी इन महिलाओं और इनकी रोज़ की चुनौतियों पर कोई बहस नहीं दिखती है. कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान हज़ारों महिलाओं की नौकरी गई, महिलाओं को उनके काम के बदले मिलने वाला वेतन भी घटा, लेकिन आश्चर्यजनक है कि इस पर महिला दिवस का फोकस नहीं रहा.

कोरोना महामारी का प्रभाव घरेलू कामगार महिलाओं पर बहुत पड़ा है और ये एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें महिलाएं बड़ी संख्या में कार्यरत होती हैं और कई परिवार अभी भी इन महिलाओं को वापस काम पर नहीं रख रहे. इन परिवारों की स्थिति पर बात होनी चाहिए जहां महिलाओं और पुरुषों दोनों ने महामारी के दौरान नौकरी खोई है.

ये बहुत दुखद और आश्चर्यजनक है कि इस साल महिला दिवस को मनाने में कहीं भी इन महिलाओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में नहीं रखा गया और न ही चर्चा हुई.

दुनियाभर में महिलाओं को घरेलू काम के बदले वेतन मिलने की बहस कई सालों से चल रही है. हाल ही में भारत में भी इस बहस ने ज़ोर तब पकड़ा जब तमिलनाडु की राजनीति में उतरे मशहूर अभिनेता कमल हासन ने सत्ता में आने पर गृहणियों को वेतन देने की बात कही. इसे समर्थन मिला, साथ ही कुछ ने इसका विरोध करते हुए इसके पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देने की बात कही. आपका इस बारे में क्या नजरिया है?

जब आप हाउस वर्क या घरेलू काम कहते हैं तो हमें ये समझना चाहिए ये शब्द उन सभी कामों को शामिल नहीं करता जो महिलाएं अपने परिवार के लिए करती हैं, इसलिए इस काम को हाउस वर्क या केयर वर्क कहना सही नहीं है.

ज़्यादातर जगहों पर महिलाएं कई सारे ऐसे काम करती हैं जिसपर पूरा परिवार निर्भर करता है, कई जगहों पर परिवार की आय में किसी न किसी तरीके से योगदान भी कर रहीं हैं- कहीं महिलाएं खाना बनाने के लिए ईंधन इक्कठा करने में अपनी मेहनत और समय देती हैं तो कहीं वो खेतों में भी काम करती हैं. हाउसवाइफ या गृहिणी जैसे शब्द आर्थिक रूप से कमज़ोर महिलाओं की वास्तविक स्थिति से मेल नहीं खाते.

एक अर्थशास्त्री के तौर पर मैं इस बात पर भी ध्यान खींचना चाहूंगी कि इन कामों का मूल्य निश्चित करना भी आसान नहीं होगा क्योंकि गरीब महिलाएं जिस तरह के काम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी चलाने के किए करती हैं उसमें लगने वाले समय और मेहनत के मुकाबले उनकी उत्पादकता (प्रोडक्टिविटी)  बेहद कम होती है तो क्या आप उन्हें उस उत्पादन के आधार पर भुगतान देंगे?

मेरे ख़याल से सभी को यूनिवर्सल बेसिक इनकम दी जानी चाहिए. सिर्फ घरेलू काम के लिए वेतन देना उन सभी कामों के लिए भुगतान के बराबर नहीं होगा जो महिलाएं दैनिक जीवन में करती हैं. इन्हें हाउसवाइफ न कहकर वर्कर ही कहना चाहिए जिन्हें बेसिक इनकम मिलनी चाहिए.

साथ ही घरेलू काम के लिए महिलाओं को वेतन देना इस सोच को बढ़ावा देगा कि घरेलू काम महिलाओं का ही काम है यानी घर संभालना, देखभाल करना ये सब सिर्फ महिलाओं की ज़िम्मेदारी है और नौकरी करना पुरुषों की. हालांकि नारीवादी इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि सबको सब काम करना चाहिए यानी घर के काम और नौकरियों में महिलाओं और पुरुषों की बराबर हिस्सेदारी होने चाहिए.

कहा जाता है कि कानून की नजर में महिला-पुरुष का भेदभाव नहीं होता लेकिन बीते दिनों सीजेआई की नाबालिग के रेप के आरोपी से पीड़िता से शादी करने की पूछना, उससे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट की एक जज द्वारा नाबालिग बच्ची को उसकी मर्ज़ी के बिना छूने को यौन उत्पीड़न न मानने संबंधी एक विवादित फैसला दिया गया. दोनों मसलों को महिला विरोधी बताते हुए कड़ा विरोध दर्ज करवाया गया था. महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं के इस रवैये को कैसे देखती हैं?

हमारे सामने अब एक ऐसी न्यायपालिका है, जिसमें मौजूदा सरकार की बड़ी भूमिका रही है और इस सरकार से न्याय की क्या उम्मीद की जा सकती है जिसका फोकस रामराज्य और हिंदुत्व स्थापित करना ही हो! इन तरह के फैसलों को देखकर लगता है कि महिलाओं के प्रति सोच में हम सौ साल पीछे जा रहे हैं. ये दोनों ही मामले बेहद चिंताजनक हैं.

आज के समय में हमारे क़ानून भी अस्पष्ट हैं. कानून में मैरिटल रेप को रेप नहीं माना जाता है पर बाल विवाह अधिनियम हैं लेकिन इनमें उम्र को समान नहीं रखा गया है.

सीजेआई द्वारा अभियुक्त से रेप पीड़िता से विवाह की बात पूछना कानून व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा करता है.

इन मामलों में किसी क़ानून का पालन नहीं हो रहा है बस इस बात का पालन हो रहा है कि महिलाओं की सेक्शुअलिटी विवाह व्यवस्था के दायरे में ही रहनी चाहिए. इस बात की परवाह भी नहीं की जा रही है कि क्या लड़की विवाह करना चाहती है या नहीं.

ऐसा लग रहा है कि जैसे वो कोई सामान हो जिसे एक से दूसरे व्यक्ति को सौंपा जाता है. जब भी समाज में लड़कियों को पराया धन कहा जाता है तो उसके पीछे यही सोच छिपी होती है कि वो कोई धन कोई प्रॉपर्टी है जिसे बिना उसकी मर्ज़ी के किसी को दिया जा सकता है.

इससे पहले जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों के प्रदर्शन से जुड़ी सुनवाई के दौरान सवाल किया था कि ‘इसमें महिलाओं और बुजुर्गों को क्यों शामिल किया गया है. उन्हें प्रदर्शनस्थल वापस जाने के लिए राजी करने की बात भी कही गई थी. इस बारे में क्या कहना है? 

जब आप नागरिकों के विरोध-प्रदर्शन के अधिकार को मानते हैं लेकिन महिलाओं को वापस जाने के लिए कहते हैं तो इस बात का सीधा मतलब है कि आपकी राय में महिलाएं नागरिक हैं ही नहीं, इसलिए आप उन्हें वो सारे अधिकार नहीं देते हैं जो हर एक नागरिक को मिलने चाहिए.

इसमें ये भी ध्यान देने वाली बात है कि ये शायद महिलाओं को किसान की तरह भी नहीं देखते. ये बात बहुत से लोग नहीं समझ रहे हैं कि आंदोलन में बैठी महिलाएं भी किसान हैं, जो दिन रात खेतों में अपनी फसल के लिए मेहनत करती हैं और ये कानून उन्हें भी उतना प्रभावित करेंगे जितना पुरुष किसानों को.

इन महिलाओं का भी कृषि अर्थव्यवस्था में योगदान है. ये महिलाएं अनाज उगाने वाली महिलाएं हैं पर लोगों की सोच में महिलाओं का खेती से कोई रिश्ता नहीं है क्योंकि वो तो बस रोटी बनाती हैं.

तो कोर्ट की इस बात से तो लगता है कि वे न ही महिलाओं को वर्कफोर्स का हिस्सा मानते हैं और न ही नागरिक.

किसान आंदोलन से पहले नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में भी बैठी महिलाओं के खिलाफ भी कई अपमानजनक टिप्पणियां की गई थीं. आप खुद बीते दशकों में कई आंदोलनों का हिस्सा रही हैं, अपने अनुभव से बताइए कि तब किन मुद्दों पर महिलाओं के आंदोलन होते थे और इन पर कैसी प्रतिक्रियाएं आती थीं?

मैं महिला आंदोलन में सत्तर के दशक से जुड़ी हुई हूं और उस समय महिला आंदोलन में जुड़ने का एक बड़ा कारण था कि आज़ादी के 20-22 सालों बाद की परिस्थितियां और महिलाओं को कई अधिकारों से वंचित रखना. मुझ जैसी कई महिलाएं जो उच्च शिक्षा तो पाने में सफल थीं लेकिन नौकरियों में आगे बढ़ने के लिए कई तरह की चुनौतियौं और अवरोधों (ग्लास सीलिंग) का सामना करना पड़ता था.

उस समय चाहे हम जितने पढ़े-लिखे हों, अपने करिअर में जितना अच्छा कर रहे हों, हमारे लिए शादी करना बहुत ज़रूरी समझा जाता था. और ये सब चीजें महिलाओं को प्रभावित कर रहीं थीं.

उस समय आंदोलन और राजनीति में लिंग अनुपात और नौकरियों में महिलाओं की कमी एक बड़ा मुद्दा था और यह अगले 20-25 साल तक बना रहा. उस समय महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा, सती, दहेज, शाहबानो का मामला और गरीबी जैसे मुद्दे महिला आंदोलन के केंद्र में थे.

90 का दशक आते-आते मुद्दे बदलने लगे और अब शायद हमें नहीं पता कि आज के समय में इन मुद्दों पर हम कहां खड़े हुए हैं, क्योंकि दहेज से जुड़े मामले आज भी सामने आते हैं और महिलाओं में बेरोज़गारी दर में भी बढ़ोतरी हुई है.

अस्सी के दशक में हम घरेलू हिंसा और दहेज़ के मुद्दों पर आंदोलन कर रहे थे पर मुझे ऐसी कोई भी बात याद नहीं कि सरकार की ओर से कभी कहा गया हो कि महिलाओं को प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, यूएन की कुछ संस्थाएं भी काफी सहयोग करती थीं. उस समय रिसर्च के लिए हमें फंड वगैरह भी मिल जाता था.

आज के समय के नेता प्रदर्शन कर रहीं महिलाओं पर जिस तरह के बयान दे रहे हैं उन्हें देखकर मुझे ये ज़रूर लगता है कि 40-45 साल पहले भी सत्ता में बैठे लोग इतने असंवेदनशील नहीं थे.

लेकिन हां, शाहबानो मामले के बाद से महिला आंदोलन और सरकारों के बीच तस्वीर बदलने लगी थी.

महिला आंदोलन दशकों से ऑनर किलिंग, महिला की मर्जी और उनकी स्वायत्तता (एजेंसी) जैसे मुद्दों पर आवाज़ उठाता रहा है. अब बीते कुछ सालों से लगातार लव जिहाद के नाम पर महिलाओं की मर्जी को नकारने के कई मामले सामने आते रहते हैं. महिलाओं के अपने बारे में निर्णय लेने का नतीजा उनके साथ बढ़ रही हिंसा और अपराध के तौर पर सामने आ रहा है. हाल ही में राजस्थान में एक पिता ने लिव इन रिलेशन में रह रही बेटी की हत्या कर दी, यूपी में मोबाइल नंबर देने से मना करने पर लड़कियों को कीटनाशक पिला दिया गया. इन सब को कैसे देखती हैं?

इन मामलों के कारण को समझने के लिए हमें इन्हें व्यापक संदर्भ में देखने की जरूरत है. पहले भी महिलाओं पर कई बंदिशें थीं और ऐसा भी नहीं है कि पहले दो समुदायों के बीच शादी को बहुत आसानी से स्वीकार कर लिया जाता था लेकिन आज जैसे लव जिहाद के मुद्दे पर इतने बड़े स्तर पर आम जनता से लेकर बड़े पदों पर बैठे लोगों का एक नज़रिया एक राय है, वैसी स्थिति बिल्कुल नहीं थी. भारतीय लोकतंत्र इस तरह का कभी नहीं रहा जैसे अब है.

मैं ये नहीं कह रही हूं कि पहले दो समुदाय या अलग जातियों में विवाह बहुत अधिक होते थे लेकिन सरकार, पुलिस, आधिकारिक एजेंसियां और लोगों की तरफ से इन मुद्दों को इतना समर्थन नहीं दिया जाता था जितना अब है.

हम अपने लोकतंत्र के साथ-साथ अपनी आवाज़, अपना चुनने का अधिकार सब खो रहे हैं. इस रवैये का जितना विरोध होना चाहिए था उतना नहीं हो रहा है और जहां हो भी रहा है वहां सरकार पर इन विरोधों का असर नहीं दिख रहा है.

आज की तुलना में हम चालीस साल पहले बेहतर स्थिति में थे क्योंकि भले ही तब भी इस तरह की घटनाएं होती थीं लेकिन कम से कम उन्हें नकारा नहीं जाता था, स्थिति अगर खराब है तो कम से कम इस बात को स्वीकारा जाता था कि महिलाओं के लिए स्थिति खराब है और इसे बदला जाना चाहिए.

सरकारी तंत्र, नेता और पुलिस पहले कभी भी महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा और दमन को खुलेआम समर्थन नहीं करते थे. लोकतंत्र में हमने जो कुछ कमाया था वो हम खोते जा रहे हैं.

इस बीच बलात्कार के मामलों में ज्यादातर बहस आरोपी को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलाने के इर्द-गिर्द होती है, अधिकतर प्रतिक्रियाएं इसी को लेकर आती हैं, इस बारे में क्या कहेंगी?

ये सच है कि बलात्कार के मामलों में आरोपी पर ही अधिकतर बहस होती है और समाज भले ही इस कृत्य की निंदा करे लेकिन आज भी पीड़िता को कई तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है.

सबसे बड़ी बात जो मुझे इन बहसों में दिखती है कि किसी भी बलात्कार के बाद बहस का केंद्र सिर्फ आरोपी होता है और न कि पीड़िता. एक समाज के तौर पर हमें बलात्कार के अभियुक्त से ज़्यादा बात पीड़िता और उसके आगे के जीवन के बारे में करनी चाहिए. हमारी सबसे पहली कोशिश ये होनी चाहिए कि पीड़िता को इस बात का एहसास दिलाया जाए कि ये उसके जीवन का अंत नहीं है.

पर कई मामलों में ऐसा देखा जाता है कि पीड़िता को इस तरह की कोई मदद नहीं की जाती है या वो किस हाल में हैं ये भी जानने का कोई प्रयास भी नहीं दिखता. जब भी बलात्कार का मामला देखती हूं तो पाती हूं कि पीड़िता को एक संख्या मात्र तक सीमित कर दिया जाता है. आरोपी को सज़ा दिलाना ज़रूरी है लेकिन मेरे ख़याल से पीड़िता को नकारना गलत है.

बलात्कार हर देश में होते हैं लेकिन शायद सिर्फ हमारी ही संस्कृति में पीड़िता को भी इसका दोष दिया जाता है या उसे उसके आगे की पूरी जिंदगी में इस बात का असर झेलना पड़ता है.

इन सब के पीछे औरतों के प्रति समाज की वही सोच छिपी है कि औरत की सेक्शुअलिटी शादी तक ही सीमित रहे, हां, पर उस शादी में चाहे जो हो, उससे समाज का कोई लेना-देना नहीं होता.

आपने कहा कि आज के दौर में महिला दिवस का असल महत्व और उद्देश्य कहीं खो गया है. क्या इसमें महिला आंदोलन की कोई भूमिका या कमी देखती हैं.

हां, जैसा मैंने कहा कि बीते कई दशकों में महिलाएं कई वर्गों में बंट गई हैं और इसका असर महिला आंदोलन पर भी पड़ा है. लेकिन इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इतने बड़े देश में लोगों की समस्याएं, मुद्दे और मांगें भी अलग-अलग हैं. लेकिन मज़दूर महिलाओं व आर्थिक रूप से कमज़ोर महिलाओं की आवाज़ को मंच नहीं दिया जाता है.

हम सबको उन महिलाओं की आवाज़ और चुनौतियों को केंद्र में लाने की कोशिश करनी चाहिए जो सबसे हाशिये पर खड़ी हैं, और मैं उम्मीद करती हूं कि एक दिन हम ऐसा करेंगे.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25