भगत सिंह की हंसी के वारिस

भगत सिंह की पवित्र भूमि, उनका स्वर्ग भारत आज उन्हीं की परिभाषा के मुताबिक नर्क बना दिया गया है. उसे नर्क बना देने वाली ताकतें ही भारत की मालिक बन बैठी हैं. भगत के धर्म को मानने वाले क़ैद में हैं, उन्हीं की तरह. और भगत सिंह की तरह ही उनसे उनकी हंसी छीनी नहीं जा सकी है.

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(फोटो साभार: फेसबुक/alanizart)

भगत सिंह की पवित्र भूमि, उनका स्वर्ग भारत आज उन्हीं की परिभाषा के मुताबिक नर्क बना दिया गया है. उसे नर्क बना देने वाली ताकतें ही भारत की मालिक बन बैठी हैं. भगत के धर्म को मानने वाले क़ैद में हैं, उन्हीं की तरह. और भगत सिंह की तरह ही उनसे उनकी हंसी छीनी नहीं जा सकी है.

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(फोटो साभार: फेसबुक/@alanizart)

उमर खालिद को राजद्रोह के मुक़दमे में पेशी के लिए दिल्ली की पटियाला अदालत में लाया गया. तिहाड़ जेल से जिसमें वह सितंबर से कैद है. उसके मित्र अनिर्बान भट्टाचार्य की भी इस मामले में पेशी थी.

बाद में उनकी दोस्त बनज्योत्स्ना लाहिरी ने अदालत में दोनों मित्रों के मिलन के बारे में लिखा. अनिर्बान ने उमर को इतने ज़ोरों की चिकोटी काटी कि वह लगभग चिल्ला पड़ा. इन दोस्तों की अब कभी-कभी मुलाक़ात होने लगी है क्योंकि अदालत में लोग आने लगे हैं.

उमर से आप खुलकर बता करें तो ज़रूर चौकसी पर लगा पुलिसवाला आंखें दिखाएगा. उमर खालिद को कभी किसी पेशी में मुंह लटकाए हुए नहीं देखा गया. और उसके दोस्त भी उससे मिलकर कभी उदास नहीं हुए.

यह पढ़कर मुझे वीरेंद्र संधू का लेख याद आया जिसमें उन्होंने सत्यदेव विद्यालंकार का भगत सिंह पर लिखा संस्मरण उद्धृत किया है:

‘अदालत की छुट्टी के समय मुलाक़ात के लिए सबको एक ही कमरे में बेंचों या ज़मीन पर बिठाया जाता था जिससे एक दूसरे से मिलने का अवसर बिना कठिनाई के मिल जाता था. एक दिन पुलिस इंस्पेक्टर ने मुझे भगत सिंह से बातचीत से रोका, तो वे…बोल उठे कि अरे भाई, कल तो फांसी पर लटका दोगे और आज दो बात भी नहीं करने देते. वह इंस्पेक्टर शरमाकर रह गया.

अपने मुक़दमे के लंबे दौर में कभी एक बार भी सरदार उदास नहीं देखे गए और वह इतने प्रसन्नचित्त रहते थे कि किसी दूसरे को भी उदास न होने देते थे. मुक़दमे की कार्रवाई में जब तब पुलिस, पुलिस के गवाहों, पुलिस के अधिकारियों और मजिस्ट्रेट पर चुटकियां भरते रहते थे. कभी-कभी तो उनके व्यंग्य भरे विनोद पर सारी अदालत हंसी से गूंज उठती थी.’

नताशा, देवांगना, गुलफिशां अपनी पेशी में उतनी ही प्रसन्नचित्त दिखती हैं जितने भगत सिंह और उनके साथी देखे जाते थे. भगत सिंह के स्वभाव के इस पहलू पर उनके दोस्तों ने खूब बात की है. लेकिन फांसी पर लटका दिए गए उस 23 साला नौजवान पर देशभक्ति आदि का इतना भारी भरकम बोझा लाद दिया गया है कि यह पक्ष ओझल ही हो गया है.

भगत सिंह सिनेमा के खासे शौकीन थे. जब सांडर्स पर हमले की योजना बन रही थी, एक मीटिंग से लौटते हुए भगत सिंह की निगाह ‘अंकल टॉम्स केबिन’ नामक फिल्म के पोस्टर पर पड़ी. उनके साथ विजय कुमार सिन्हा और भगवान दास माहौर थे.

भगत सिंह बोले, ‘यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए.’ सब सहमत थे. लेकिन कैसे? दल से रोजाना के चार आने मिलते थे खाने को. फिल्म के तीन टिकट के बारह आने हुए. फिल्म देखें कि खाना खाएं? पैसे भगवानदास के पास थे. वे दल के अनुशासन से बंधे थे. खाने के पैसे फिल्म पर कैसे खर्च कर दें?

वीरेंद्र संधू ने आगे का ब्यौरा दिया है:

‘भगत सिंह ने कला पर एक सुंदर प्रवचन किया…. (लेकिन) भगवानदास भी भगवानदास ही थे. उन्होंने अनुशासन की पताका को और ऊंचा किया… भगत सिंह कहां हार मानने वाले थे? उन्होंने कला के प्रवचन को अंधे अनुशासन के विरुद्ध धुंआधार भाषण में बदल दिया.’

भगवानदास टस से मस न हुए. ‘भगत सिंह अब हाथापाई और चैलेंज … पर पहुंच गए थे, पर भगवानदास की एक ही मुद्रा में अभिनय का क्लाइमेक्स आ गया: सड़क पर हाथापाई करना ठीक नहीं है. लो, नहीं मानते, तो पैसे ले लो, पर बात साफ है कि मैं पैसे राजी से नहीं दे रहा हूं.’

खैर! फिल्म तीनों ने देखी, वह भी अठन्नी वाले टिकट पर क्योंकि चवन्नी वाले टिकट ख़त्म हो गए थे. सौन्दर्य्लाभ तो हो गया था, क्षुधा का क्या करें? उससे बड़ा सवाल था, आज़ाद को क्या जवाब देंगे.

भगत सिंह ने मोर्चा संभाला. आज़ाद को फिल्म की कहानी और रोमांचक बनाकर सुनाई. फिर उपसंहार किया, ‘असल में इस कहानी की फिल्म हरेक क्रांतिकारी को देखनी चाहिए. इसीलिए हम इसे देखकर आ रहे हैं.’ आज़ाद मुस्कराए. नाराज़गी का ख़तरा भी टला और खाने के पैसे भी दुबारा मिल गए.

भगत सिंह के हास्यप्रिय होने के जाने कितने किस्से हैं.वे क्रांतिकारी थे. लेकिन विचार-विमर्श में धीरज न खोने वाले. क्रांतिकारी आंदोलन में वे घिरे हुए थे घोर धार्मिक मित्रों से. खुद हो चले थे नास्तिक.

धार्मिक होने का अर्थ था प्रत्येक मानवीय कृत्य को ईश्वरीय विधान मानना. वह पुराने पापों के लिए उसका दिया दंड है.

ऐसे ही विचारों वाले फणींद्रनाथ घोष से बहस में उन्होंने कहा, ‘मैं इस जगत को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश न परछाईं है, न मायाजाल, वह एक जीवित वास्तविकता है, हसीन हकीकत है और मैं उसे प्यार करता हूं.’

उन्होंने कहा कि वे इस देश को प्यार करते हैं, यह नहीं कहा कि वे इसकी भक्ति करते हैं, ‘सच बात तो यह है कि इस धरती को स्वर्ग की आड़ में उजाड़ा गया है. और जो धर्म इंसान को इंसान से जुदा करे, मोहब्बत की जगह उन्हें एक दूसरे से घृणा करना सिखलाए, अंधविश्वासों को प्रोत्साहन देकर लोगों के बौद्धिक विकास में बाधक हो, दिमाग को कुंद करे, वह मेरा धर्म कभी नहीं बन सकता मेरे निकट तो हरदम जो इंसान को सुखी बना सके, शांति, समृद्धि और भाईचारे के मार्ग पर उसे एक कदम आगे ले जा सके, वही धर्म है.’

आगे कहा, ‘दो शब्दों में कहूं तो यह धरती और इस धरती पर भी भारत की यह पवित्र भूमि मेरा स्वर्ग है. उस पर विचरण करने वाला हर व्यक्ति हर इंसान मेरा देवता है, भगवान है; और भगवान को भगवान से लड़ाकर मेरे स्वर्ग को नर्क बनाने वाली शक्तियों को समाप्त कर इंसान को वर्गहीन समाज की ओर बढ़ाने वाला हर प्रयास हर कदम मेरा धर्म है.’

भगत सिंह धीरे-धीरे बोलते थे. आवेशयुक्त लेकिन धैर्यवान. चीखकर अपनी बात दूसरों पर थोपने की जगह उनसे विचार-विमर्श,बहस मुबाहिसा. लेकिन जिससे बहस हो रही है, उसकी इज्जत.

इंसानियत सबसे बड़ा उसूल है,इंसान की इज्जत सबसे बड़ा फर्ज. अगर उसी की अवहेलना की जाए तो क्रांति क्यों?

भगत सिंह ने अपने बारे में लिखा, ‘मैं एक मनुष्य हूं और इससे अधिक कुछ नहीं.’ यह सादा-सा सुनाई पड़ने वाला वाक्य समझना इतना आसान नहीं. मुक्तिबोध याद आ जाते हैं.

मनुष्य, केवल मनुष्य बनने की कीमत भारी चुकानी पड़ती है. खुद मनुष्य होने के लिए अन्य सबकी मनुष्यता सुनिश्चित करना कर्तव्य बन जाता है. वह जो नहीं करता, दूसरों को जो जलील होते देखता है, वह भगत सिंह के हिसाब से मनुष्य नहीं रह जाता.

भगत सिंह की पवित्र भूमि, उनका स्वर्ग भारत आज उन्हीं की परिभाषा के मुताबिक नर्क बना दिया गया है. उसे नर्क बना देने वाली ताकतें ही भारत की मालिक बन बैठी हैं.

भगत सिंह के धर्म को मानने वाले कैद में हैं. उन्हीं की तरह. और भगत सिंह की तरह ही उनसे उनकी हंसी छीनी नहीं जा सकी है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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