रूस में बने ‘द ब्लू व्हेल चैलेंज’ सुसाइड गेम ने दुनियाभर में लगभग 300 जानें ली हैं और अब भारत में भी इसका असर दिखने लगा है.
अमेरिकी अर्थशास्त्री डब्ल्यूडब्ल्यू रोस्टो ने विकास के चरणों की चर्चा करते हुए ‘उच्च स्तरीय जन उपभोग’ (high mass consumption) और उसके बाद उपभोग से परे’ (beyond consumption) के चरण की बात की थी और इस बात का संकेत दिया था कि इस चरण में विभिन्न आवश्यकताएं टेक्नोलॉजी द्वारा संतुष्ट की जाती हैं और सामाजिक संबंधों में उपस्थित भावनात्मकता ‘उपभोग’ और ‘व्यावसायीकरण’ (comercialization) के कारण या तो उपेक्षित हो जाती है या बाज़ार की मांग और बाज़ार उपभोग का हिस्सा बन जाती हैं.
मनुष्य इस चरण में टेक्नोलॉजी और उद्यमशीलता के द्वारा स्वयं को निर्देशित करता है. वह विकास के स्पेस का केवल हिस्सा बनता है, विकास को निर्धारित नहीं कर सकता. जहां विचार, क्रियाएं, भावनाएं और आवश्यकताएं वस्तुओं एवं सेवाओं (goods एवं services) में बदल जाती हैं जिनकी खरीद-फ़रोख्त मनुष्य अपनी इच्छानुसार करता है.
यहां भय, अकेलापन, तनाव, आक्रामकता, हिंसा के बाज़ार ने भी उभार लिया है जो किशोरों और युवाओं को ज्यादा आकर्षित करता है. इस बाज़ार ने मोबाइल/इंटरनेट गेम्स के माध्यम से मनोरंजन के साधन के रूप में प्रवेश लिया और कब बच्चों की जिंदगी से खेलने लगा पता ही नहीं चला.
कहते हैं न कि टेक्नोलॉजी एक अच्छा नौकर है पर बुरा मालिक है. जब तक हम इससे खेलते हैं तब तक ठीक है लेकिन जब यह हमें नियंत्रित करने लगे, या हमसे खेलने लगे तो घातक बन जाती है. कुछ ऐसे ही उदहारण आजकल रोज देखने-सुनने को मिलते हैं.
खेल-कूद को स्वस्थ मस्तिष्क के लिए आवश्यक माना जाता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है. परन्तु कोई खेल बच्चों की जिंदगी भी लील सकता है, यह चिंतन का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है.
हाल में इंटरनेट पर खेला जाने वाला एक गेम मुंबई में एक बच्चे की मौत की वजह बना. मुंबई के किशोर मनप्रीत सिंह ने अपनी बिल्डिंग की सातवीं मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली.
उसने पहले छत पर खड़े होकर स्मार्टफोन से कुछ फोटो लिए और दोस्तों को वॉट्सऐप किए थे और कहा था कि अब वह स्कूल नहीं आएगा. कुछ दिन बाद इंदौर में 7वीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे ने स्कूल की तीसरी मंजिल से कूदने की कोशिश की पर दोस्तों ने उसे बचा लिया.
कोलकाता के अंकन देव ने बाथरूम में प्लास्टिक की थैली से मुंह ढंका और रस्सी से गला घोंट लिया. देहरादून में एक छात्र ने भी इस तरह की कोशिश की परंतु बचा लिया गया और अभी भी यह क्रम जारी है.
दरअसल, रूस में बने ‘द ब्लू व्हेल चैलेंज’ सुसाइड गेम ने दुनियाभर में लगभग 300 जानें ली हैं और अब भारत में भी इसका असर दिखने लगा है. इन बच्चों के परिवारी जनों की मानें तो यह बच्चे तनाव या निराशा का शिकार नहीं थे.
इस गेम में पार्टिसिपेंट को 50 चैलेंज पूरे करने होते हैं. इन टास्क में खुद को चोट पहुंचाना, सुबह चार बजे उठकर हॉरर मूवीज देखना और आधी रात को उठकर अजीब हरकतें करना शामिल हैं.
बारी-बारी से सारे चैलेंज पूरे करते जाने पर अंत में सुसाइड करने का चैलेंज दिया जाता है. इनमें हर चैलेंज पूरा करने के बाद हाथ पर ब्लेड से कट लगा कर इनकी तस्वीरें गेम एडमिन को भेजनी होती है.
एक तस्वीर भेजने के बाद दूसरा टास्क दिया जाता है. और 50 कट्स लगाने के बाद एक व्हेल की आकृति बन जाती है, अंतिम चैलेंज के रूप में बिल्डिंग से कूदना होता है.
इस गेम का निर्माण करने वालो का कहना है कि जिन लोगों ने गेम खेलते हुए आत्महत्या की है, वे बायोलॉजिकल वेस्ट (जैविक कचरा) थे. उनमें जीने की इच्छा नहीं रह गई थी. उसके गेम का मकसद समाज की सफाई करना है.
इस गेम में डिप्रेशन में चल रहे लोगों से वादा किया जाता है कि दुनिया से उनकी विदाई को रोमांचक बना दिया जाएगा. जिन बच्चों को आत्महत्या करने से रोक लिया गया उनका कहना है कि वे एडमिन के निर्देशों का पालन कर आत्महत्या का कदम इसलिए उठाते हैं क्योंकि वह उनके माता-पिता को जान से मारने या फिर उनकी जानकारी लीक करने की धमकी देता है.
दूसरी तरफ, ग्लोबल गेम्स मार्केट की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में वीडियो गेम का बाज़ार लगभग 110 अरब डॉलर का है. पिछले साल की तुलना में यह आंकड़ा लगभग 8 प्रतिशत ज्यादा है.
दुनिया में 2.2 अरब लोग वीडियो/इंटरनेट गेम्स खेलते हैं, जिसमें एशिया की हिस्सेदारी 47 प्रतिशत से ज्यादा है. अकेले चीन में गेमिंग का बाज़ार 27 अरब डॉलर से ज्यादा का है. रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में हर महीने 1.15 अरब घंटे लोग वीडियो गेम्स पर बिताते हैं.
भारत में भी तेजी से बढ़ती स्मार्टफोन की तादाद के चलते मोबाइल फोन पर वीडियो गेम्स खेलने वालों की संख्या बढ़ रही है. साल 2015 में मोबाइल गेमर्स की संख्या 19.8 करोड़ थी. उम्मीद जताई जा रही है कि 2020 तक यह आंकड़ा 62 करोड़ को पार कर जाएगा.
इन सब पक्षों पर यदि चिंतन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि अब केवल तनाव, निराशा, असफलता के कारण ही बच्चे/युवा आत्महत्या नहीं करते, बल्कि नाम कमाने या पॉपुलर होने के लिए भी ऐसा करने लगे हैं.
आजकल बच्चे उम्र के प्रारम्भिक दौर में ही बहुत जल्दी ही पॉपुलर होना, अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं. इसलिए वह जिस प्रतियोगिता या गेम का हिस्सा बनते हैं उसको किसी भी हाल में जीतना चाहते हैं. उनके लिए असफलता का मतलब केवल आत्महत्या होता है.
सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि वे गैजेट्स के साथ रहते-रहते सिर्फ अनुकरण करना सीख रहे हैं, अपनी बुद्धि या विवेकशीलता का प्रयोग नहीं करते. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि आज की पीढ़ी की सोशल मीडिया/इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. परिणामस्वरूप उसमें आत्मविश्वास की कमी, सृजनशीलता की कमी, निर्णय लेने की क्षमता में कमी के पक्ष उभरने लगे हैं.
कुछ लोगों का कहना है कि इन घटनाओं के लिए अभिभावक भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं. वे शुरू से ही बच्चों को गैजेट्स उपलब्ध करवा देते हैं, उन्हें किसी चीज के लिए मना नहीं करते, उसके एक बार बोलने पर ही हर डिमांड पूरी कर दी जाती है, उन्हें लगता है कि वे अफोर्ड कर सकते हैं तो क्यों नहीं करे, और ऐसा करके अभिभावक सोचते हैं कि वे हम अच्छे माता-पिता के सभी दायित्वों का निर्वाह कर रहे हैं.
जबकि देखा जाए तो परिवार के बदलते स्वरूप में इनके पास समय ही नहीं है अपने बच्चों को देने के लिए, उनके साथ बैठ कर बात करने के लिए, परिवार का हर सदस्य केवल अपने लिए जीता है तो बच्चे भी खुद के लिए जीना सीख जाते हैं, अपने अकेलेपन के लिए वो गैजेट्स को दोस्त बनाना सीख लेते हैं और फिर पता ही नहीं चलता कब वे उसके आदी बन जाते हैं.
इन घटनाओं को कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) या रोबोटिक दुनिया के साथ जोड़कर भी देखे जाने की जरूरत है. कृत्रिम बुद्धि यानी खुद निर्णय लेने में सक्षम ऐसी मशीन है जिसके पास अपना दिमाग है, जो आपकी आदतों से जानकारी लेती है, खुद को अपडेट करती है और उसी के अनुरूप निर्णय लेती है, इंटरनेट के सहारे विभिन्न सूचनाओं के संपर्क में रहती है.
इस कृत्रिम बुद्धि ने विश्व में अंतर्विरोधी बहस को उत्पन्न किया है कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि यह खोज मानवता को अमर कर देगी और कुछ का कहना है कि ‘आने वाले वक्त में इंसानों को सुपर-स्मार्ट मशीनों से चुनौती मिल सकती है’.
यह बहस इस सवाल को उत्पन्न करती है कि ‘क्या शक्तिशाली मशीनें समस्या समाधान की स्थिति में मानव से ज्यादा सृजनशील हो सकती हैं?’ निश्चित रूप से ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि ‘सृजनशीलता’ मशीनों की क्षमता से परे है.
यह एक तथ्य है कि किशोर पीढ़ी अपनी अलग पहचान बनाने की इच्छुक होती है, एक बच्चे की तरह माता-पिता पर निर्भर रहने की अपेक्षा एक प्रौढ़ की तरह स्वतंत्र रहना चाहते हैं. वे अपने माता-पिता से दूरी बनाना शुरू कर देते हैं और अपने मित्र समूह में ही अधिकतर समय व्यतीत करने लगते हैं.
किशोर स्वयं को बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य असमंजस की स्थिति में पाते हैं. उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समाज द्वारा महत्व नहीं दिया जाता, इसी कारण उनमें क्रोध, तनाव एवं व्यग्रता की प्रवृत्तियां उत्पन्न होती हैं.
बच्चों के अपरिपक्व अवस्था में होने के कारण उनकी तार्किक क्षमता ज्यादा विकसित नहीं होती, इसलिए वे अधिकांशतः दूसरों का अनुकरण ही करते हैं, दुनियादारी का अनुभव न होने की वजह से किसी की भी बातों में जल्दी ही आ जाते हैं, उन पर विश्वास कर लेते हैं. साथ ही डर कर पलायन करने की प्रवृत्ति उसके व्यक्तित्व में शामिल होती चली जाती है.
टेक्नोलॉजी निर्देशित समाज बच्चों में भय और आक्रामकता की संस्कृति को उत्पन्न कर रहा है. आज की पीढ़ी के ‘रोल मॉडल’ बदल गए हैं न कोई फिल्मी हीरो/हीरोइन, न शिक्षक, न नेता, न माता-पिता बल्कि ‘वर्चुअल/आभासी विश्व’ के लोग होते हैं. और यह वर्चुअल समाज उनमें वर्चुअल साहस और ताकत पैदा कर रहा है कि जब वे आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं तो उन्हें लगता है कि मुझे कुछ नहीं होगा.
इस तरह की घटनाएं समाज के लिए एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक खतरा हैं. अतः यह स्पष्ट है कि हिंसा की उत्पत्ति प्रौद्योगिकी का परिणाम है और आज के दौर में हिंसा/आक्रामकता को मनोरंजन का एक अनिवार्य अंग मान लिया गया है. यहां यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि प्रौद्यगिकी ‘विकास के लिए’ है या ‘विनाश के लिए’?
(ज्योति सिडाना कोटा में समाजशास्त्र की शिक्षक हैं.)