फिल्म प्रमाणन न्यायाधिकरण को समाप्त करने पर फिल्मकारों ने की सरकार की आलोचना

कई फिल्मकारों ने इसे विवेकहीन और लोगों को मनचाहा काम करने से रोकने वाला फैसला बताया है. अब फिल्मों को लेकर विवाद होने पर हाईकोर्ट में अपील करना होगा.

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(फोटो: माइक साइमन)

कई फिल्मकारों ने इसे विवेकहीन और लोगों को मनचाहा काम करने से रोकने वाला फैसला बताया है. अब फिल्मों को लेकर विवाद होने पर हाईकोर्ट में अपील करना होगा.

(फोटो: माइक साइमन)
(फोटो: माइक साइमन/अनस्प्लैश)

नई दिल्ली: चलचित्र प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) समाप्त करने के सरकार के निर्णय की आलोचना करते हुए फिल्मकार विशाल भारद्वाज, हंसल मेहता और गुनीत मोंगा ने बीते बुधवार को कहा कि यह फैसला ‘विवेकहीन’ और ‘लोगों को मनचाहा काम करने से रोकने वाला’ है.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा फिल्मों में की जाने वाली काट-छांट के विरुद्ध फिल्मकार, कानून द्वारा स्थापित एफसीएटी का दरवाजा खटखटा सकते थे.

विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा न्यायाधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश 2021, की अधिसूचना रविवार को जारी की गई, जिसके अनुसार कुछ अपीलीय न्यायाधिकरण समाप्त कर दिए गए हैं और उनका कामकाज पहले से मौजूद न्यायिक संस्थाओं को सौंप दिया गया है.

सिनेमेटोग्राफी कानून में संशोधन के बाद अब अपीलीय संस्था उच्च न्यायालय है और केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) से कोई समस्या होने पर हाईकोर्ट में ही अपील करनी होगी.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, एफसीएटी को 1983 में सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 (1952 का 37) की धारा 5डी के एक वैधानिक निकाय के रूप में पेश किया गया था. इसका मुख्यालय दिल्ली में था.

कुछ साल पहले 2016 में आई फिल्म ‘हरामखोर’, फिल्मकार अलंकृता श्रीवास्तव की 2017 में आई ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ और नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत 2017 में आई ‘बाबूमोशाय बन्दूकबाज’ में सीबीएफसी द्वारा काट-छांट किए जाने के बाद इन फिल्मों को एफसीएटी द्वारा मंजूरी दी गई थी.

इसके साथ ही जब सीबीएफसी ने साल 2016 में उड़ता पंजाब को रिलीज की मंजूरी नहीं दी थी तब अनुराग कश्यप ने एफसीएटी में ही अपील की थी.

अभिनेत्री और साल 2004 से 2011 तक सीबीएफसी की अध्यक्ष रहने वाली शर्मिला टैगोर ने इस फैसले पर आश्चर्य जताया है.

उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि तर्क क्या है, ऐसा करने का कारण क्या था. मैं इस पर बिल्कुल भी टिप्पणी नहीं करना चाहती. लेकिन एफसीएटी एक निकाय था जिसकी अध्यक्षता एक न्यायाधीश करते थे और उसके बहुत ही प्रतिष्ठित सदस्य थे.’

टैगोर ने आगे कहा, ‘यदि कोई फिल्म सीबीएफसी के साथ विवाद में फंस गई. किसी कारण से उन्हें लगा कि हम बहुत अनुचित हैं, वे इस जगह पर जा सकते हैं और वे अपने मामले पर बहस कर सकते हैं. वास्तव में मैं चाहती थी कि वे एफसीएटी की भूमिका को बढ़ाएं क्योंकि अगर आपको याद हो तो जोधा अकबर और कई अन्य फिल्मों की तरह कई जनहित याचिकाएं भी दाखिल हुआ करती थीं.

उन्होंने कहा, ‘मुझे याद है कि जोधा अकबर के निर्माता बहुत दौड़-भाग लगाए थे. अदालत के साथ समस्या यह है कि वहां थोड़ा अधिक समय लगता है. निर्माता ऐसी जोखिम नहीं उठा सकते हैं. उनके लिए, एक सप्ताह का नुकसान भी बहुत बड़ा है. ऐसा मेरा मानना है.’

मेहता ने ट्विटर पर लिखा कि यह निर्णय ‘विवेकहीन’ है. उन्होंने कहा, ‘क्या उच्च न्यायालय के पास फिल्म प्रमाणन की शिकायतों को सुनने का समय है? कितने फिल्म निर्माताओं के पास अदालत जाने के संसाधन हैं?’

उन्होंने कहा, ‘एफसीएटी को समाप्त करना विवेकहीन निर्णय है और निश्चित तौर पर लोगों को मन मुताबिक काम करने से रोकने वाला है. यह इस समय क्यों किया गया? यह फैसला क्यों लिया गया?’

भारद्वाज ने कहा कि यह सिनेमा के लिए ‘दुखद दिन’ है.

भारद्वाज के ट्वीट को साझा करते हुए मोंगा ने लिखा, ‘ऐसा कैसे हो सकता है? कौन निर्णय ले सकता है?’ मेहता ने भी एफसीएटी को समाप्त करने पर रोष व्यक्त किया.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)