वैसे यह देश सुबह-शाम तक स्त्री महिमा का गायन करता है, लेकिन सच में यहां की न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, मीडिया और जन लोक… सबके सब पूरी ताक़त से स्त्रियों के विरोध में जुट पड़ते हैं. फिर भले वह सोनिया हो, वसुंधरा राजे हो या फिर ममता बनर्जी… वे विवेकहीन लोक का प्रहार झेलती ही हैं.
एक अकेली औरत और सामने तूफ़ानी ताक़तें! एक तरफ़ दुनिया भर के वामपंथी, आरएसएस का विशालकाय धनबल और जनबल, समूची कांग्रेस और न जाने कौन-कौन…!
भारत की समस्त धनशक्तियां, आरएसएस के अगणित आनुषंगिक और आनुवंशिक प्रकल्प और उनके गल्पकार, धर्म शक्तियां और अधर्मशक्तियां, वामदलों के सहस्रों समर्थक बौद्धिक वीर और कांग्रेस के ज़मीनी-हवाई संगठन सबके सबकी एक शत्रु!
लेकिन हवाई चप्पल और श्वेत धवल भारतीय वस्त्रों में लोहा लेती सूती साड़ी वाली यह रणचंडी अद्भुत है! शायद भारत भूमि की असली बेटी यही है जो वटवृक्षों की पराक्रमी शक्तियों को अपने तृण से कंपकंपाए है.
यह जो कविताएं रचती है. यह जो हर रात अपनी मां के बगल में सोती रही है. मातृ प्रेम के प्रपंच नहीं रचती. अपने सादगी भरे घर के फ़ोटो तक नहीं करने देती. वह जो वैभव और धनबल के अश्लील प्रचार से सुदूर है. और वह जो कहीं भी दौड़ लेती है!
ममता! जो दुःसाहस का सच्चा प्रतीक है. लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे महान जनसमर्थक की कार के बोनट पर उस समय शिव तांडव दिखा सकती है, जब उनकी लोकप्रियता नभ को स्पर्श कर रही है!
ममता, वह जो माइकेल मधुसूदन दत्त, कवींद्र रवींद्र और काज़ी नज़रुल इस्लाम को धारण करती है. वह जो महाश्वेता का आशीर्वाद पाती है.
कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी से लेकर अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे कितने ही सशक्त और जनप्रिय नेता अपमान के घूंट पीकर अच्छे अवसर की बाट जोहते रहते हैं, लेकिन ममता ने कांग्रेस के परिवारवाद को ठोकर मारकर उस वामपंथी शासन सत्ता के धुर्रे बिखेर दिए, जो 38 साल से सिकंदर की तरह गर्वोन्नत थी.
क्या ममता बनर्जी कांग्रेस में रहतीं तो आज देश को इस शीर्ष दल का बेहतरीन नेतृत्व नहीं दे रही होतीं? लेकिन एक परिवारवाद के बंधक दल में ऐसी कोई संभावना नहीं है.
और ममता ने अपने बल को इस तरह सशक्त किया है कि उसे उखाड़ने के लिए वह भाजपा लगी हुई है, जो आज तक कभी अपने पांवों पर खड़ी नहीं हो सकी.
जो एक छद्म राष्ट्रवाद, झूठी देशभक्ति और भारतीय सनातन धर्म के एक विकृत स्वरूप को लकर चल रहे संगठन के कंधों पर किसी अपंग सत्तालिप्सु बुढ़िया की तरह सवार है!
संघ से विलग और एक स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में भाजपा कदाचित कांग्रेस से कहीं अच्छी साबित हो सकती थी, लेकिन उसके नेताओं में कभी यह साहस और आत्मबल दिखा ही नहीं.
मैं किसी दल का प्रशंसक नहीं हूं. ममता बनर्जी या उनकी तृणमूल का भी नहीं. क्योंकि मेरी निगाह में आज की समूची राजनीति और उस समस्त विचारधाराएं अप्रासंगिक हो चुकी हैं. समूची दुनिया एक नई करवट लेने जा रही है.
सत्तावादियों और कॉरपोरेट दस्युदलों ने पृथिवी को एक भयावह संकट में धकेल दिया है. राष्ट्र-राज्य सड़ गया है. संप्रभुताओं की बेलें सूख गई हैं. न्याय की समस्त पीठें सिर के बल खड़ी होकर अन्याय के पक्ष में फैसले दे रही हैं.
मीडिया सत्ता के राज सिंहासन पर आसीन बूढ़े और अश्लील शासकों के सामने कामुकता के गान करने में जुटा है. विधायिका स्वर्णपुरी की दैत्यनगरी में परिवर्तित हो गई है.
लोक आंदोलन करता है, लेकिन लोकतंत्र के मंदिर की देहरी पर साष्टांग दंडवत होने का प्रहसन रचता शीर्ष सत्ताधीश उन्हें कंटीले तारों से घेर देता है!
न्याय का सबसे बड़ा देवता अपने आंगन की एक देवी से बलात्कार करता है. वह चीखती है तो न्याय करने भी स्वयं बैठ जाता है. देश की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है. वह बोलता तक नहीं. मानो महाभारत में द्रोपदी के चीरहरण का दृश्य एक बार पुन: दुहराया जा रहा है.
यह प्रकरण न्याय के समस्त सिद्धांतों को तिरोहित कर देता है. और सत्ता से ब्लैकमेल होकर वह आठ लाख 69 हजार साल पहले हुए राम के प्रमाणों को तो मान लेता है और 1992 की घटनाएं मानो उसके लिए किसी अंतरिक्ष लोक की घटनाएं थीं!
एक स्त्री न्याय के द्वार जाती है तो उस बलात्कार पीड़िता से न्याय का शीर्ष देवता मानो पूछता है, ‘ओ सीता-तुम रावण से शादी करोगी? ओ द्रोपदी, तुम्हारा क्या ख़याल है कि तुम दु:शासन की अर्धांगिनी बनोगी?’
और न्याय का यह हाल है कि एक उच्च पीठ पर बैठी न्याय की एक देवी एक अश्रु विगलित और क्षत-विक्षत आत्मा से कहती है, अभी त्वचा से त्वचा ही कहां स्पर्श हुई है!
उफ! अब शायद वह दुर्दिन आना शेष है, जब कोई न्याय पीठ किसी बलात्कार पीड़िता से कहेगी: कंडोम पहनकर हुआ है. यह तो बलात्कार माना ही नहीं जा सकता!
कितना डरावना है माहौल! कितना पैशाचिक है इस लोकतंत्र का चेहरा! थाने से लेकर न्याय की प्रमुख पीठ तक दुर्गंध ही दुर्गंध! सड़ांध ही सड़ांध!
और इस वातावरण में ममता बनर्जी के प्रति क्या ममता नहीं उमड़ेगी? पश्चिम बंगाल में सारे वामपंथियों, कांग्रेस के नेताओं और संघ वालों ने इस भारत ललना पर ऐसे चौतरफा हमला बोल दिया है जैसे वहां 1958 के फूल बाग का रणक्षेत्र पुनर्जीवित हो गया हो!
मानो, लंबी दाढ़ी वाले ह्यूरोज़ ने ब्रिगेडियर स्टुअर्ट, ब्रिगेडियर जनरल नेपियर, कैप्टन एबट, लेफ्टिनेंट नीव, लेफ्टिनेंट हरकोर्ट, स्टुअर्ट, कैप्टन लाइट फुट, कैप्टन रीच जैसे झांसी की रानी पर टूट पड़े हों. जैसे झांसी की रानी चार दिन तक न स्वयं सोती है और न उसका घोड़ा राजरत्न सोता है.
महाश्वेता देवी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘झांसी की रानी’ को मैंने स्कूल के दिनों में पढ़ा था और आज मुझे उसके आख़िरी पन्ने याद आ रहे हैं. और ऐसा लग रहा है, जैसे 1857 फिर सामने है.
एक झांसी की रानी है. और देशी-विदेशी शक्तियां कैसे इस ललना पर टूटी पड़ रही हैं. महाश्वेता भी आज होतीं तो ममता के साथ होतीं, वे कम्युनिस्टों के खिलाफ जाकर ममता के पक्ष में मुखर रहीं; लेकिन अब चारों तरफ कोई महाश्वेता नहीं है. बस ममता ही है.
वही महाकाली और वही महाचंडी है! शत्रु दल में उसके प्रति जो भय है, वह साफ़ दिखाई दे रहा है! विपुल धन और अतुल वैभव के सामने उसकी सादगी कितनी सम्मोहक है.
देशवासी जिस समय क्षुद्र स्वार्थों से व्याकुल हैं, जिस काल में धर्मोन्माद की दुंदुभि बज रही है. जिस समय संत जन से लेकर अंत जन तक भारतीयता के सच्चे अर्थों को भूल गए हैं, उस समय एक स्त्री की क्या शक्ति हो सकती है, उसका सच्चा रूप ममता बनर्जी के रूप में सामने है.
ये हार भी गई तो ‘ख़ूब लड़ी मरदानी’ की तरह अपराजेय रहेगी और जीत गई तो अविवेकी बल निस्तेज और नत शीश होगा ही.
वैसे तो यह देश सुबह से शाम तक स्त्री महिमा का गायन करता है, लेकिन सच में तो यहां की न्यायपालिका, यहां की विधायिका, यहां की कार्यपालिका और यहां का मीडिया और जन लोक… सबके सब पूरी ताकत से स्त्रियों के विरोध में जुट पड़ते हैं.
फिर भले वह न्याय के मुख्य देवता हाथों इज्जत लुटवाने के बावजूद न्याय से वंचिता हो, अपने देश को छोड़कर आई सोनिया हो, वह शासन सत्ता के अहंकारों पर वज्र प्रहार करने वाली सोशल मीडिया की जागरूक और सचेतन महिलाएं हों, वह दिशा रवि हो या वह बरखा दत्त हो, वह कविता हो या अरुणा-अरुंधति, वह वसुंधरा राजे हो या फिर ममता बनर्जी… वे विवेकहीन लोक का प्रहार झेलती ही हैं.
यह देश जो देवियों की पूजा करता है, लेकिन आचरण में एकदम विपरीत व्यवहार करता है. महाश्वेता के शब्दों में कहूं तो: सत्य है सैलुकस, कितना विचित्र है ये देश!
(त्रिभुवन वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख मूल रूप से उनके फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)