जाति एक ऐसी बाधा है जो एक समाज का निर्माण नहीं होने देती. राष्ट्र बनकर भी नहीं बन पाता क्योंकि हम एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी नहीं होते. एकजुटता या बंधुत्व के अभाव में सामाजिक संपदा का निर्माण भी नहीं हो पाता.
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के साथ ईमानदार रिश्ता कैसे बनाया जाए? ऐसा रिश्ता जो अवसरवादी न हो, नारावादी न हो? वह उनकी उस पुकार को सुनकर ही बनाया जा सकता है जो ‘जाति का उच्छेद’ है. उस पुकार का जवाब देने लायक खुद को बनाने की कोशिश करके.
वे कान जो इस पुकार को सुन सकें, भारतीय समाज अब तक बना नहीं पाया, इससे बाबा साहेब की पुकार की शिद्दत में कोई कमी साबित नहीं होती बल्कि सुनने वाले की तंगदिली ही जाहिर होती है.
दिल बड़ा हो तो दूसरे की पुकार भी सुनाई देती है. तंगदिली का सबूत बाबा साहेब की प्रतिमाएं है जो गांवों में अभी भी जहां दिखलाई पड़ें, मान लीजिए दलित बस्ती शुरू होने वाली है.
बाबा साहेब ने लिखा सिर्फ दलितों के लिए नहीं या जीवन भी सिर्फ दलितों के लिए नहीं जिया था. उन्होंने तो आवाज़ लगाई थी, हाथ बढ़ाया था दोस्ती का. उस हाथ को थामने का उत्साह क्या भारत के उन लोगों में है जो खुद को पारंपरिक रूप से सुसंस्कृत कहते हैं?
इस सवाल से बिदकने की ज़रूरत नहीं. यह आरोप नहीं है, निराशा है. तो वह पुकार थी ‘जाति का उन्मूलन.’ आप इस स्वर को पहचानिए. तिक्तता इसमें है लेकिन पीड़ा भी है. वे लिखते हैं:
‘मुझे हैरानी न होगी अगर जाति के दुखद प्रभावों के बारे में सुनते हुए आपमें से कुछ लोग ऊब गए हों. इसमें कुछ नया नहीं है. इसलिए मैं इस समस्या के सकारात्मक, रचनात्मक पक्ष की तरफ मुड़ता हूं.’
आलोचना को अक्सर नकारात्मक माना जाता है. आलोचक से सकारात्मक सुझाव की मांग की जाती है. बाबा साहेब रचनात्मक प्रस्ताव रखते हैं. और ध्यान रहे, यह प्राथमिक रूप से ‘सवर्ण’ समुदाय के लिए है:
‘अगर आप जाति नहीं चाहते तो फिर आपका आदर्श समाज क्या होगा…? आगर आप मुझसे पूछें तो यह समाज होगा स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व पर टिका हुआ. और क्यों न हो?’
यह सुनने में जितना सरल लगता है, बाबा साहेब को मालूम है उतना सरल इसे अमल में लाना नहीं है. इसलिए वे समझाते हुए वे कहते हैं,
‘बंधुत्व को लेकर आखिर आपत्ति ही क्या हो सकती है? मैं तो कुछ नहीं देख पाता. किसी भी आदर्श समाज को गतिशील होना चाहिए. ऐसी अनेक सरणियों से युक्त जो एक अंग में हो रहे परिवर्तन को दूसरे हिस्सों तक पहुंचा सकें.’
बंधुत्व किसी भी समाज को स्वस्थ रखता है. ‘एक आदर्श समाज में अनेक हितों को सचेत रूप से दूसरों तक पहुंचाना और साझा करना किया जाना चाहिए. एक दूसरे से संपर्क के बहुविध और स्वतंत्र बिंदु होने चाहिए और एक दूसरे से जुड़ने के भी कई तरीके होने चाहिए.
बंधुत्व प्रायः उपेक्षित रहा है. सिर्फ भारत में नहीं पूरी दुनिया में स्वतंत्रता और समानता के आगे यह कुछ दब-सा गया है. इसके प्रति संदेह भी व्यक्त किया गया है.
एक दूसरे में अधिक दिलचस्पी दिखलाने से व्यक्तियों की स्वतंत्रता में दखल की गुंजाइश बढ़ जाती है. एकजुटता इस दिलचस्पी के बिना कैसे हो सकती है?
लेकिन आंबेडकर और अनेक विचारक मानते हैं कि बिना एक दूसरे पर यकीन के और एक दूसरे का ख़याल रखे बिना स्वतंत्रता और समानता को हासिल करना असंभव है.
आंबेडकर तो कई कदम आगे जाकर कहते हैं: यही बंधुत्व है जो सिर्फ जनतंत्र का दूसरा नाम है.’ यह इसलिए कि जनतंत्र सिर्फ एक तरह की सरकार की व्यवस्था नहीं है… यह प्राथमिक रूप से सम्मिलित जीवन का एक तरीका है. इसमें सबके अनुभवों को परस्पर महसूस करना ज़रूरी है. यह वास्तव में अपने सह-नागरिक(मनुष्य) के प्रति सम्मान और श्रद्धा का रवैया है.’
सम्मान ही नहीं श्रद्धा, ये शब्द मात्र जबानी नहीं हैं. आप इस संबोधन को पढ़ेंगे तो ये दिल की गहराइयों से उभरती हुई एक आवाज़ मालूम होगी. हमें अवास्तविक भी जान पड़ेगी क्योंकि हम प्रायः पारस्परिकता से वंचित होते हैं.
दूसरों की ज़िंदगी में शिरकत करना और दूसरे की दावत कबूल करना सबके बस की बात नहीं. बाबा साहेब यह न्योता सारे हिंदुस्तानियों को देते हैं. लेकिन इसके लिए उन्हें जाति का उच्छेद करना होगा. क्योंकि वह हमारे बीच में आ जाती है.
वह मनुष्य को मात्र मनुष्य नहीं रहने देती और आज़ाद भी नहीं. मनुष्य पूर्ण मनुष्य तभी बन सकता है जब वह अन्य से बिना किसी ‘उपयोग’ के रिश्ता बना सके. आत्मीयता और प्रेम का.
यह संबोधन हिंदुओं को था और आज भी उन्हीं को है. जाति एक ऐसी बाधा है जो एक समाज का निर्माण नहीं होने देती. राष्ट्र बनकर भी नहीं बन पाता क्योंकि हम एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी नहीं होते. एकजुटता या बंधुत्व के अभाव में सामाजिक संपदा का निर्माण भी नहीं हो पाता.
यह शिकायत अमेरिका में बंधुत्व और सामाजिक संपदा के रिश्ते पर विचार करते हुए विल्सन कैरे मैक्विलियम्स ने अपनी किताब में की. सवाल यह है कि यह बंधुत्व भाव पैदा कैसे करें. क्या इसका दायरा सीमित होगा या इसे विस्तृत किया जा सकता है?
विल्सन कहते हैं कि अनेक संजाल बनाए जा सकते हैं जो समुदायों को एक दूसरे से जोड़ें.
भारत के प्रसंग में बाबा साहेब का कहना है कि जब तक जाति का विचार रहेगा ये वृत्त एक दूसरे से कटे रहेंगे. जबकि उनका एक दूसरे से गुंथा होना आवश्यक है अगर हम एक सामाजिक संवेदना की कल्पना करना चाहते हैं.
बाबा साहेब लेकिन इस संबोधन के लिखे जाते समय ही हिंदू समाज से अपनी आशा छोड़ बैठे थे. हिंदू समाज में सुधार के जितने आंदोलन हुए उन्होंने इस प्रश्न को अस्पष्ट रहने दिया या इसके लिए किसी न किसी तरह का तर्क खोजकर इसे उचित ठहराया.
पारस्परिकता का भाव सारी सभ्यताओं में मौजूद है. उसे अपने संदर्भ में विकसित करने की ज़रूरत है. ईसाई धर्म ने पड़ोसी की अवधारणा पेश की. जो इस धर्म को किसी और भूमि का मानकर पराया ठहराते हैं उनके लिए बाबा साहेब ने बौद्ध परंपरा से मैत्री की धारणा प्रस्तावित की.
यह मात्र मनुष्य के लिए नहीं बल्कि सारे जीवित प्राणियों के लिए है. सिर्फ मित्र के लिए नहीं बल्कि शत्रु के लिए भी. यह मैत्री करुणा के बिना संभव नहीं और न बिना स्वार्थ के त्याग के. यह सब कुछ आध्यात्मिक जान पड़ता है. लेकिन आंबेडकर के अनुसार यह अनिवार्य है अगर हम स्वस्ति का अनुभव इसी संसार में करना चाहते हैं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)