राजद्रोह क़ानून को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा

दो पत्रकारों की ओर से दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट से धारा 124-ए को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया. याचिका में दावा किया गया कि धारा 124-ए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है.

New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)
(फोटो: पीटीआई)

दो पत्रकारों की ओर से दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट से धारा 124-ए को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया. याचिका में दावा किया गया कि धारा 124-ए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है.

New Delhi: A view of Supreme Court of India in New Delhi, Thursday, Nov. 1, 2018. (PTI Photo/Ravi Choudhary) (PTI11_1_2018_000197B)
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र से जवाब तलब किया.

जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 124-ए को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसके तहत राजद्रोह के अपराध में सजा दी जाती है.

मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैया लाल शुक्ला की ओर से दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट से धारा 124-ए को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया है.

याचिका में दावा किया गया कि धारा 124-ए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत प्रदान किया गया है.

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि वे अपनी संबंधित राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार पर सवाल उठा रहे हैं और सोशल मीडिया मंच फेसबुक पर उनके द्वारा की गईं टिप्पणियों एवं कार्टून साझा करने के चलते 124-ए के तहत उनके विरूद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई हैं.

याचिकाकर्ताओं ने इस कानून के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया है.

समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, याचिका में कहा गया, 1962 से धारा 124-ए के दुरुपयोग के मामले लगातार सामने आए हैं.

इसमें है कहा गया कि एक कानून का दुरुपयोग भले ही कानून की वैधता पर सवाल नहीं हो सकता है, लेकिन वर्तमान कानून की अस्पष्टता और अनिश्चितता की ओर इशारा करता है.

याचिका में कहा गया कि दुनियाभर के तुलनात्मक उपनिवेशवादी लोकतांत्रिक न्यायालयों में राजद्रोह की धाराओं को निरस्त कर दिया गया है, जबकि भारत खुद को लोकतंत्र कहता है, लेकिन पूरी लोकतांत्रिक दुनिया में राजद्रोह के अपराध को अलोकतांत्रिक, अवांछनीय और अनावश्यक बताया गया है.

याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि धारा 124-ए की अस्पष्टता व्यक्तियों के लोकतांत्रिक स्वतंत्रता पर एक अस्वीकार्य प्रभाव डालती है, जो वहां आजीवन कारावास के डर से वैध लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद नहीं ले सकते हैं.

1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में कानून की वैधता को बनाए रखने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि अदालत लगभग छह दशक पहले की अपनी खोज में सही हो सकती है, लेकिन कानून आज संवैधानिक आदर्श पारित नहीं करता है.

बता दें कि बीते फरवरी महीने में केंद्र सरकार ने बताया था कि देश के विभिन्न भागों में 2019 के दौरान राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 96 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 76 लोगों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर किए गए, जबकि 29 लोगों को अदालतों द्वारा बरी कर दिया गया.

इससे पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने बताया था कि साल 2019 के दौरान देश भर में दर्ज राजद्रोह और कठोर यूएपीए मामलों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इसमें सिर्फ तीन फीसदी राजद्रोह मामलों में आरोपों को साबित किया जा सका है.

आंकड़ों के मुताबिक साल 2019 में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए थे, जो साल 2018 में दर्ज 70 और साल 2017 में दर्ज 51 मामलों से अधिक थी.

इसको लेकर विपक्ष के निशाने पर आई सरकार ने मार्च में राज्यसभा में कहा था कि ऐसे मामलों में केंद्र की कोई भूमिका नहीं होती और राज्य सरकारें मामले दर्ज कराती हैं.

इसके साथ ही गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने कहा था कि सरकार ने राजद्रोह सहित आपराधिक कानून सुधारों के लिए एक समिति गठित की है और विभिन्न पक्षों से इस संबंध में सुझाव मांगे गए हैं.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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