पश्चिम बंगाल की 294, असम की 126, तमिलनाडु की 234, केरल की 140 और पुदुचेरी की 30 सीटों के लिए बीते 27 मार्च से 29 अप्रैल के बीच मतदान हुए थे. केरल में मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के नेतृत्व में माकपा के नेतृत्व वाले लेफ्ट डेमोक्रटिक फ्रंट ने फ़िर से विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की है. तमिलनाडु में बीते 10 साल से सत्ता से बाहर रही द्रमुक की वापसी हुई है और केंद्रशासित प्रदेश पुदुचेरी में एनआर कांग्रेस के नेतृत्व में राजग सरकार बनाने को तैयार है.
नई दिल्ली/कोलकाता/गुवाहाटी/चेन्नई/तिरुवनंतपुरम/पुदुचेरी: पिछले तकरीबन एक महीने से जारी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम आ चुके हैं. पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी में बीते 27 मार्च से 29 अप्रैल के बीच चुनाव हुए थे.
देश में कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच हुए चुनाव में पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी की है. असम में भी सत्तारूढ़ दल भाजपा ने दूसरी बार सत्ता में वापसी की है.
केरल में भी ऐसा ही हुआ है. यहां मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के नेतृत्व में माकपा के नेतृत्व वाले लेफ्ट डेमोक्रटिक फ्रंट (एलडीएफ) ने एक बार फिर राज्य विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की है.
तमिलनाडु में बीते 10 साल से सत्ता से बाहर रही द्रमुक ने सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक से सत्ता छीन ली है, तो केंद्र शासित पुदुचेरी में कांग्रेस और द्रमुक मुनेत्र कषगम (डीएमके) गठबंधन को ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस (एआईएनसीआर) और भाजपा के गठबंधन के हाथों शिकस्त मिली.
पुदुचेरी की 30 विधानसभा सीटों में से एनआर कांग्रेस की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) 16 सीटें जीतकर सरकार बनाने के लिए तैयार है.
बंगाल: 292 में से 213 सीटें तृणमूल के नाम, भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी
तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया है और लगातार तीसरी बार राज्य की सत्ता अपने पास बरकरार रखी है.
निर्वाचन आयोग द्वारा घोषित अंतिम परिणाम के अनुसार पार्टी को 292 विधानसभा सीटों में से 213 पर जीत हासिल हुई है, जो बहुमत के जादुई आंकड़े से भी कहीं अधिक है.
वहीं, इस विधानसभा चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक देने वाली भाजपा 77 सीटों पर विजयी रही है.
इसके साथ ही राष्ट्रीय सेकुलर मजलिस पार्टी के चिह्न पर चुनाव लड़ने वाली इंडियन सेकुलर फ्रंट (आईएसएफ) को एक सीट मिली है तथा एक निर्दलीय प्रत्याशी भी जीत दर्ज करने में सफल रहा है.
तृणमूल कांग्रेस का प्रदर्शन इस बार 2016 के विधानसभा चुनाव से भी बेहतर रहा, जब इसे 211 सीट मिली थीं.
यद्यपि भाजपा राज्य की सत्ता से ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को उखाड़ फेंकने में सफल नहीं हो पाई, लेकिन यह पहली बार है जब वह बंगाल में मुख्य विपक्षी दल बन गई है. भाजपा को 2016 के विधानसभा चुनाव में महज तीन सीट मिली थीं.
राज्य में दशकों तक शासन करने वाले वाम मोर्चा और कांग्रेस का इस बार खाता भी नहीं खुला है तथा आईएसएफ के साथ उनके गठबंधन को आठ प्रतिशत से भी कम वोट मिले हैं.
दो निर्वाचन क्षेत्रों- जांगीपुर और शमशेरगंज में प्रत्याशियों के कोविड-19 की चपेट में आने के बाद मतदान टाल दिया गया था. इस तरह राज्य की 294 सदस्यीय विधानसभा की 292 सीटों पर मतदान हुआ.
अपनी पार्टी की जीत से गदगद बनर्जी को हालांकि नंदीग्राम में खुद हार का सामना करना पड़ा. वह पूर्व में अपने विश्वासपात्र रहे और इस बार भाजपा में शामिल हुए कद्दावर नेता शुभेंदु अधिकारी से 1,956 मतों के अंतर से हार गईं.
अधिकारी को छोड़कर तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में आए राजीब बनर्जी, रुद्रनील घोष, बैशाली डालमिया, शीलभद्र दत्ता और सब्यसाची दत्ता को हार का सामना करना पड़ा.
भाजपा सांसद जगन्नाथ सरकार और निसित प्रामाणिक क्रमश: शांतिपुर और दिनहाता से जीतने में सफल रहे, लेकिन लॉकेट चटर्जी, स्वपन दासगुप्ता और बाबुल सुप्रियो जैसे नेता विजयी नहीं हो पाए.
ममता बनर्जी की स्थिति और मजबूत
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के शानदार प्रदर्शन के बाद ममता बनर्जी की छवि एक ऐसे सैनिक और कमांडर के रूप में बनी है जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा की चुनावी युद्ध मशीन को भी हरा दिया.
तीसरी बार की यह जीत न सिर्फ राज्य में बनर्जी की स्थिति को और मजबूत करेगी, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में भी मदद करेगी.
बनर्जी ने एक दशक से अधिक पहले सिंगूर और नंदीग्राम में सड़कों पर हजारों किसानों का नेतृत्व करने से लेकर आठ साल तक राज्य में बिना किसी चुनौती के शासन किया. आठ साल के बाद उनके शासन को 2019 में तब चुनौती मिली, जब भाजपा ने पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में 18 सीटों पर अपना परचम फहरा दिया.
66 वर्षीय बनर्जी ने अपनी राजनीतिक यात्रा को तब तीव्र धार प्रदान की जब उन्होंने 2007-08 में नंदीग्राम और सिंगूर में नाराज लोगों का नेतृत्व करते हुए वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ राजनीतिक युद्ध का शंखनाद कर दिया. इसके बाद वह सत्ता के शक्ति केंद्र ‘नबन्ना’ तक पहुंच गई.
पढ़ाई के दिनों में बनर्जी ने कांग्रेस स्वयंसेवक के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. यह उनके करिश्मे का ही कमाल था कि वह संप्रग और राजग सरकारों में मंत्री बन गईं.
राज्य में औद्योगीकरण के लिए किसानों से ‘जबरन’ भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर वह नंदीग्राम और सिंगूर में कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ दीवार बनकर खड़ी हो गईं और आंदोलनों का नेतृत्व किया. ये आंदोलन उनकी किस्मत बदलने वाले रहे और तृणमूल कांग्रेस एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई.
बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होने के बाद जनवरी 1998 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और राज्य में कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ संघर्ष करते हुए उनकी पार्टी आगे बढ़ती चली गई.
पार्टी के गठन के बाद राज्य में 2001 में जब विधानसभा चुनाव हुआ तो तृणमूल कांग्रेस 294 सदस्यीय विधानसभा में 60 सीट जीतने में सफल रही और वाम मोर्चे को 192 सीट मिलीं. वहीं, 2006 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की ताकत आधी रह गई और यह केवल 30 सीट ही जीत पाई, जबकि वाम मोर्चे को 219 सीटों पर जीत मिली.
वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी ने ऐतिहासिक रूप से शानदार जीत दर्ज करते हुए राज्य में 34 साल से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चा सरकार को उखाड़ फेंका. उनकी पार्टी को 184 सीट मिलीं, जबकि कम्युनिस्ट 60 सीटों पर ही सिमट गए. उस समय वाम मोर्चा सरकार विश्व में सर्वाधिक लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली निर्वाचित सरकार थी.
बनर्जी अपनी पार्टी को 2016 में भी शानदार जीत दिलाने में सफल रहीं और तृणमूल कांग्रेस की झोली में 211 सीट आईं.
इस बार के विधानसभा चुनाव में बनर्जी को तब झटके का सामना करना पड़ा जब, उनके विश्वासपात्र रहे शुभेंदु अधिकारी और पार्टी के कई नेता भाजपा में शामिल हो गए.
बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मीं बनर्जी पार्टी के कई नेताओं की बगावत के बावजूद अंतत: अपनी पार्टी को तीसरी बार भी शानदार जीत दिलाने में कामयाब रहीं.
इस चुनाव में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी, लेकिन बनर्जी ने भगवा दल को पराजित कर दिया.
वह 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 में कोलकाता दक्षिण सीट से लोकसभा सदस्य भी रह चुकी हैं.
पार्टी बदलकर भाजपा में शामिल होने वाले अधिकतर उम्मीदवारों को मिली हार
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए अधिकतर उम्मीदवारों को विधानसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा.
हालांकि शुभेंदु अधिकारी समेत तृणमूल छोड़कर भाजपा में शामिल हुए कुछ उम्मीदवारों ने अपने तृणमूल प्रतिद्वंद्वियों से बेहतर प्रदर्शन किया.
अधिकारी ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नजदीकी मुकाबले में हराया, लेकिन राज्य के पूर्व मंत्री राजीब बनर्जी, सिंगुर से पूर्व विधायक रबींद्रनाथ भट्टाचार्य, अभिनेता रूद्रनील घोष और हावड़ा के पूर्व महापौर रथिन चक्रवर्ती चुनाव हार गये.
इस साल की शुरुआत में पार्टी बदलने वाले बनर्जी राजीब दोमजुर विधानसभा सीट से चुनाव हार गए. इससे पहले वह लगातार दो बार चुनाव जीते थे. वह तृणमूल के कल्याण घोष से 42,620 मतों से हार गए.
चुनाव में टिकट नहीं मिलने के बाद तृणमूल छोड़ने वाले भट्टाचार्य को सिंगुर से सत्तारूढ़ पार्टी के उम्मीदवार बेचाराम मन्ना ने करीब 26,000 वोट से शिकस्त दी. भाजपा उम्मीदवार इस सीट से पुनर्मतदान की मांग कर रहे हैं.
टाटा की छोटी कार परियोजना को हटाने के लिए किसानों के आंदोलन के बाद हुगली जिले का सिंगुर भारतीय राजनीति के नक्शे पर अंकित हो गया था. सिंगुर और नंदीग्राम ने 34 साल के वाम मोर्चे के शासन के आधार को हिलाकर रख दिया था, जिसके कारण 2011 में तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी सत्ता में आयीं.
घोष हाल में भाजपा में शामिल हुए थे, उन्हें तृणमूल के नेता शोभनदेब चट्टोपाध्याय ने भवानीपुर से करीब 28,000 वोट से शिकस्त दी. इस सीट को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खाली किया था.
चक्रवर्ती तृणमूल के नेतृत्व वाले हावड़ा नगर निगम में महापौर थे, लेकिन चुनाव से पहले वह पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए. उन्हें क्रिकेटर से नेता बने मनोज तिवारी ने शिवपुर से 32,000 वोट से शिकस्त दी.
हालांकि 2017 में भाजपा में शामिल हुए पार्टी उपाध्यक्ष मुकुल रॉय कृष्णानगर उत्तर से विजयी रहे. उन्होंने तृणमूल उम्मीदवार कौशानी मुखर्जी को 35,000 मतों के अंतर से हराया. कुछ महीने पहले भाजपा में शामिल हुए मिहिर गोस्वामी ने भी तृणमूल उम्मीदवार रबींद्रनाथ घोष को हराकर नाताबारी सीट से जीत दर्ज की.
असम में फिर खिला कमल, भाजपा नीत गठबंधन की आसान जीत
भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) नीत राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने 126 सदस्यीय असम विधानसभा के लिए हुए चुनाव में 74 सीटों पर जीत हासिल करके राज्य में अपनी पकड़ बनाए रखी, जबकि विपक्षी कांग्रेस नीत महागठबंधन 50 सीट ही हासिल कर पाई.
निर्वाचन आयोग के अनुसार, भाजपा ने 2016 की तरह इस बार भी अकेले 60 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि उसकी सहयोगी असम गण परिषद (अगप) को नौ सीटों पर जीत मिली, जो उसे पिछले चुनाव में उसे मिली सीट से पांच कम हैं.
विजेता गठबंधन के तीसरे सदस्य यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) ने छह सीट जीतीं. ये सभी सीटें उसने बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ) से जीतीं.
कांग्रेस ने 29 सीट जीतीं, जबकि पिछले चुनाव में उसने 26 सीट हासिल की थीं. कांग्रेस के सहयोगी दल ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) ने 16 सीटों पर विजय प्राप्त की, जो 2016 से तीन अधिक सीट हैं.
सत्तारूढ़ गठबंधन छोड़कर महागठबंधन में शामिल हुई बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ) को चार सीट मिलीं.
एक सीट पर माकपा और एक पर निर्दलीय उम्मीदवार को जीत हासिल हुई.
भाजपा ने 2016 में जो सीटें जीती थीं, उसने उसमें से 49 सीटें जीतीं और 11 नई सीटों पर विजय प्राप्त की. कांग्रेस ने 15 सीटों पर जीत बरकरार रखीं.
आठ सीटों पर जीत का अंतर एक लाख से अधिक रहा, जिनमें से एआईयूडीएफ एवं भाजपा ने तीन-तीन और कांग्रेस ने दो सीटें जीतीं.
एआईयूडीएफ के रफीकुल इस्लाम ने जनिया क्षेत्र में सबसे अधिक 144,775 के अंतर से जीत हासिल की.
कांग्रेस विधायक दल नेता देवव्रत सैकिया ने 683 मतों के सबसे कम अंतर से नाजिरा विधानसभा सीट जीतीं.
मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कांग्रेस नेता राजिब लोचन पेगू को 43,192 मतों के अंतर से हराकर माजुली में लगातार दूसरी बार जीत हासिल की.
वरिष्ठ मंत्री एवं भाजपा नेता हिमंत बिस्व सरमा ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के रोमेन चंद्र बोरठाकुर को 101,911 मतों के अंतर से हराकर जालुकबारी सीट पर कब्जा बरकरार रखा है.
सोनोवाल और सरमा के अलावा 13 अन्य भाजपा मंत्री आसानी से अपनी सीट बरकरार रखने में कामयाब रहे.
भगवा पार्टी के राज्य सभा सदस्य बिस्वजीत दैमारी ने अपने करीबी प्रतिद्वंद्वी बीपीएफ के करुणा कांत स्वारगियारी को पनेरी सीट से हराया.
निवर्तमान विधानसभा के अध्यक्ष हितेंद्र नाथ गोस्वामी जोरहाट सीट जीतने में कामयाब रहे.
चुनाव में जीत हासिल नहीं कर पाने वाले बड़े नेताओं में कांग्रेस राज्य इकाई प्रमुख रिपुन बोरा हैं, जिन्हें भाजपा के उत्पल बोरा ने गोहपुर सीट से हराया. बोरा ने इस हार के बाद रविवार को उन्होंने राज्य कांग्रेस अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा दे दिया.
हारने वालों में बीपीएफ की उम्मीदवार तथा राज्य की मंत्री प्रमिला रानी भी शामिल हैं.
भाजपा प्रत्याशी अजंता नियोग ने गोलाघाट सीट पर 9,325 वोट के अंतर से कांग्रेस के बितूपान सैकिया को पराजित किया.
असम में भाजपा को 33.21 प्रतिशत जबकि कांग्रेस को 29.67 फीसद वोट मिले
असम में लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा को विधानसभा चुनाव में 33.21 प्रतिशत मत हासिल हुए हैं. निर्वाचन आयोग ने यह जानकारी दी.
भाजपा के गठबंधन साझेदार असम गण परिषद (एजीपी) को 7.91 प्रतिशत वोट मिले जबकि संप्रग के प्रमुख दल कांग्रेस को 29.67 प्रतिशत तथा एआईयूडीएफ को 9.29 प्रतिशत मत हासिल हुए हैं.
आयोग के आंकड़ों के अनुसार 92 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा को 684,538 (33.21 प्रतिशत) वोट मिले. 26 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाले क्षेत्रीय दल असम गण परिषद को 1,519,777 (7.9 फीसद) मतदाताओं ने वोट दिया.
आयोग की वेबसाइट के अनुसार आठ सीटों पर चुनाव लड़ने वाली यूपीपीएल को मिले मतों के आंकड़े नहीं दिए गए हैं.
कुल 94 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस को 5,703,341 (29.7 प्रतिशत), 14 सीटों पर लड़ने वाली एआईयूडीएफ को 1,786,551 (9.3 प्रतिशत), जबकि दो सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली माकपा को केवल 160,758 (0.84 फीसद) वोट मिले.
अन्य के खाते में 2,628,518 यानी 13.7 प्रतिशत वोट पड़े, जबकि 219,578 (1.14 प्रतिशत) मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया.
फिर चला स्टालिन का जादू, तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में द्रमुक की शानदार जीत
तमिलनाडु में बीते 10 साल से सत्ता से बाहर रही द्रमुक ने सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक से सत्ता छीन ली है. पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बनने जा रहे द्रमुक अध्यक्ष एमके स्टालिन ने रविवार को राज्य के लोगों को उनकी पार्टी को जीत दिलाने को लेकर धन्यवाद दिया और उन्हें आश्वासन दिया कि वह उनके लिए ईमानदारी से काम करेंगे.
बीते दो मई को हुई मतगणना में द्रमुक अध्यक्ष एमके स्टालिन ने 2019 लोकसभा चुनाव के अपने शानदार प्रदर्शन को दोहराते हुए तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में बेहतरीन जीत हासिल की थी.
विधानसभा चुनाव में द्रमुक ने 133 सीट जीत ली हैं. द्रमुक की सहयोगी कांग्रेस को 18 सीटें मिली हैं, जिसके बाद 234 सदस्यीय विधानसभा में इन दोनों पार्टियों को कुल 151 सीटें हो गई हैं.
विधानसभा की दो तिहाई सीटों पर जीत हासिल कर 68 वर्षीय स्टालिन ने 2019 में लोकसभा चुनाव के अपने शानदार प्रदर्शन को दोहराया है. द्रमुक और उसके सहयोगियों ने लोकसभा में राज्य की 39 में से 38 सीटों पर जीत हासिल की थी. इसके बाद पार्टी ने 2019 के अंत में ग्रामीण निकाय चुनावों में भी अच्छा प्रदर्शन किया था.
द्रमुक के सहयोगी दल कांग्रेस ने 18, भाकपा और माकपा ने दो-दो तथा विदुथलई चिरूथैगल काचि ने चार सीटों पर जीत दर्ज की है.
वहीं सत्तारूढ़ अन्ना द्रमुक (एआईएडीएमके) को इस विधानसभा चुनाव में 66 सीटों पर जीत मिल सकी थी. वहीं, उसकी सहयोगी भाजपा को सिर्फ चार सीटों पर संतोष करना पड़ा है.
विधानसभा चुनाव में द्रमुक को यह जीत यूं ही नहीं मिली. इसके लिए स्टालिन ने कड़ी मेहनत की और विभिन्न मामलों पर केंद्र सरकार और अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (अन्नाद्रमुक) की राज्य सरकार पर निशाना साधते हुए लोगों से संपर्क किया.
उन्होंने विभिन्न मामलों को उठाकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत केंद्र को ‘जन-विरोधी करार दिया’, फिर भले ही वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मामला हो, नागरिकता संशोधन कानून हो, कृषि कानून हों या शिक्षा को संविधान की राज्य सूची में फिर से लाने के लिए आवाज उठाने की बात हो.
स्टालिन ने कहा कि भारत सरकार ने राज्यों के अधिकारों को कुचला और वह तमिल संस्कृति के खिलाफ है.
उन्होंने कहा कि केंद्र ने हालिया संयुक्त राष्ट्र बैठक में श्रीलंका के खिलाफ मतदान नहीं करके श्रीलंकाई तमिलों को धोखा दिया.
स्टालिन ने मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी एवं उनके कैबिनेट सहयोगियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों, नीट मामले और तूतीकोरिन में स्टरलाइट विरोधी प्रदर्शनों के दौरान 2018 में पुलिस गोलीबारी प्रकरण समेत विभिन्न मामलों पर अन्नाद्रमुक को घेरा.
स्टालिन ने आरोप लगाया कि अन्नाद्रमुक ने केंद्र की ‘चापलूसी’ करके तमिलनाडु के हितों को ताक पर रखा.
इसके अलावा द्रमुक की चुनाव प्रचार मुहिम भी बहुत सोच-समझकर तैयार की गई थी और यह चुनाव से कई महीने पहले ही शुरू कर दी गई थी.
अन्नाद्रमुक ने जब भाजपा से हाथ मिलाने की घोषणा की तो स्टालिन ने अन्नाद्रमुक पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया और कहा था, ‘अन्नाद्रमुक के एक भी उम्मीदवार को जीत नहीं मिलनी चाहिए, क्योंकि यदि अन्नाद्रमुक का कोई उम्मीदवार जीतता है, तो यह केवल भाजपा की जीत होगी.’
अतीत में द्रमुक 2006-11, 1996-2001, 1989-91, 1971-76 और 1967-71 के दौरान राज्य पर शासन कर चुकी है.
पुदुचेरी में एनआर कांग्रेस का परचम, पहली बार भाजपा रहेगी सरकार का हिस्सा
पुडुचेरी में 30 सीटों की विधानसभा वाले इस केंद्र शासित प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी के नेतृत्व वाले ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस (एआईएनआरसी) 10 सीटें जीतीं और भाजपा की छह सीटों के साथ राजग ने बहुमत के लिए आवश्यक 16 के जादुई आंकड़े को पा लिया.
इस जीत के सूत्रधार एनआर कांग्रेस प्रमुख एन. रंगासामी हैं, जिनके सिर पर पुदुचेरी के मुख्यमंत्री का ताज रखा जाएगा. पुदुचेरी में एनआर कांग्रेस, भाजपा और ऑल इंडिया अन्ना दविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था.
पूर्व मुख्यमंत्री और एनआर कांग्रेस प्रमुख एन. रंगासामी ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन अपनी परंपरागत थत्टनचावडी सीट से ही उन्हें जीत मिल सकी. यहां उन्होंने सीपीआई उम्मीदवार के. सेतु सेल्वम को हराया.
इसके अलावा रंगासामी ने यनम सीट से भी चुनाव लड़ा था, जहां निर्दलीय उम्मीदवार गोल्लापल्ली श्रीनिवास से हार का सामना करना पड़ा.
बहरहाल इस केंद्र शासित प्रदेश में पहली बार भाजपा सरकार को हिस्सा बनने जा रही है. विधानसभा चुनाव में उसने छह सीटें जीतकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई.
इससे पहले पुदुचेरी की विधानसभा में भाजपा का प्रतिनिधि 1990 में पहुंचा था.
भाजपा के जिन प्रमुख नेताओं ने जीत दर्ज की, उनमें पूर्व लोक निर्माण विभाग के मंत्री ए. नमासिवायम भी शामिल हैं. चुनाव से कुछ महीने पहले उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की उपस्थिति में भगवा दल का दामन थाम लिया था.
उन्होंने मन्नाडीपेट विधानसभा सीट से जीत हासिल की. इससे पहले वह विलियनूर और उझावरकरायी सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.
उनके बाद कांग्रेस के कई विधायकों और नेताओं ने या तो भाजपा या फिर एआईएनआरसी का दामन थाम लिया था.
भाजपा के जिन उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की उनमें कामराज नगर से ए. जॉन कुमार, नेल्लिथेपे से उनके पुत्र रिचर्ड्स जॉन कुमार, कालापेट से एआईएनआरसी के पूर्व विधायक पीएमएल कल्याणसुंदरम, मानावेली से ई. सेलवम और औसुडू जे सर्वनन कुमार शामिल हैं.
भाजपा को इस चुनाव में उसके अध्यक्ष की हार के रूप में एक झटका भी लगा. प्रदेश अध्यक्ष वी. सामीनाथन को लावसपेट से कांग्रेस के उम्मीदवार एम वैथीनाथन के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा.
कांग्रेस ने यहां की 14 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन उनमें से दो (माहे और लॉसपेट) ही जीत का स्वाद चख सके. कांग्रेस के सहयोगी द्रविड़ मुनेत्र कषगम को छह सीटों पर जीत मिली.
छह निर्दलीय उम्मीदवारों को भी चुनाव में जीत हासिल हुई है. केंद्र शासित प्रदेश के इतिहास में यह पहला मौका है जब छह निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की.
साल 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 15 सीटों पर जीत हासिल की थी. इसके अलावा ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस ने आठ, एआईएडीएमके को चार और डीएमके को दो सीटें मिली थीं.
हालांकि यहां की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. ऐन चुनाव से पहले इस साल 21 फरवरी को विधायकों के लगातार इस्तीफा देने के चलते 30 सदस्यीय पुदुचेरी विधानसभा में सत्ताधारी कांग्रेस-डीएमके गठबंधन के विधायकों की संख्या घटकर 11 हो गई थी, जबकि विपक्षी दलों के 14 विधायक थे.
इसके बाद विश्वास मत प्रस्ताव पर मतदान से पहले मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी ने इस्तीफा दे दिया था और केंद्र शासित प्रदेश की कांग्रेस नीत सरकार गिर गई थी.
विजयन के नेतृत्व ने केरल में एलडीएफ को यूडीएफ पर शानदार जीत दिलाई
मुख्यमंत्री पिनराई विजयन का दशकों का राजनीतिक कौशल उनके नेतृत्व वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) को रविवार को घोषित विधानसभा चुनाव परिणाम में मिली शानदार जीत का एक प्रमुख कारण है. राज्य में करीब चार दशक से एलडीएफ और यूडीएफ एक-एक कार्यकाल के लिए सत्ता में आते थे, ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी गठबंधन ने लगातार दो बार चुनाव जीता है.
राज्य विधानसभा चुनाव के लिए मतदान छह अप्रैल को हुए थे.
एलडीएफ की इस ऐतिहासिक जीत के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, जिनमें सरकार की ओर से मुफ्त में चावल बांटने, कोविड-19 का बेहतर प्रबंधन जैसी तमाम चीजें शामिल हैं.
कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी और भाजपा की परंपरागत वाम विरोधी नीतियों ने भी एलडीएफ को आसानी से जीतने में मदद की है. एलडीएफ ने 140 में से 87 सीटें जीती हैं.
माकपा (सीपीआईएम) 62 सीटों पर जीत हासिल कर राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. भाकपा (सीपीआई) को 17 सीटों पर जीत मिली. दूसरी ओर विपक्षी कांग्रेस ने 21 सीटों पर कब्जा जताया और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने 15 सीटों पर विजय हासिल की है. केरल में भाजपा का खाता भी नहीं खुल सका.
वहीं चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है. भाजपा नीत राजग ने केरल में कम से कम 35 सीटें जीतने का दावा किया था, लेकिन रविवार को आए परिणामों में पार्टी का पत्ता पूरी तरह साफ हो गया. यहां तक कि पार्टी के लोकप्रिय उम्मीदवार ई. श्रीधरन और पार्टी के राज्य प्रमुख के. सुरेंद्रन भी जीत नहीं सके हैं.
केरल में सांप्रदायिक राजनीति की कोई जगह नहीं है: विजयन
केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने विधानसभा चुनाव में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) की ऐतिहासिक जीत को जनता को समर्पित किया और कहा कि यह साबित हो गया है कि राज्य में सांप्रदायिक राजनीति की कोई जगह नहीं है.
कांग्रेस नीत यूडीएफ और भाजपा नीत राजग तथा मीडिया के दक्षिणपंथी धड़े पर केरल सरकार को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए विजयन ने कहा कि लोगों ने वामदलों को निर्णायक जनादेश देकर दुष्प्रचार को खारिज कर दिया.
विजयन ने संवाददाताओं से कहा कि राज्य के सांप्रदायिक ताने-बाने को कायम रखने के लिए वाम शासन का बने रहना जरूरी है.
केरल में अपनी एकमात्र सीट भी जीतने में नाकाम रही भाजपा, श्रीधरन एवं राज्य प्रमुख भी हारे
केरल विधानसभा चुनाव में कम से कम 35 सीटें जीतने का दावा करने वाली भाजपा रविवार को अपनी एकमात्र नेमोम सीट भी नहीं बचा पाई और ‘मेट्रोमैन’ के नाम से प्रसिद्ध ई. श्रीधरन और पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख के. सुरेंद्रन समेत उसके सभी बड़े उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा.
राज्य की राजधानी स्थित नेमोम सीट पर पुन: जीत हासिल करने की जिम्मेदारी मिजोरम के पूर्व राज्यपाल कुमानम राजशेखरन के कंधों पर थी, लेकिन वह 2016 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने वाले पार्टी नेता ओ. राजागोपाल की तरह जादू चलाने में नाकाम रहे और उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नेता और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) उम्मीदवार वी. सिवनकुट्टी ने 3,949 मतों के अंतर से राजशेखरन को हराया. इससे पहले 2016 में सिवनकुट्टी को राजागोपाल ने मात दी थी.
नेमोम सीट पर जीत बरकरार रखना भगवा दल के लिए प्रतिष्ठा की बात थी, क्योंकि सत्तारूढ़ माकपा ने 140 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को पैर जमाने से रोकने से कोई कसर नहीं छोड़ी.
चुनाव से मात्र एक सप्ताह पहले मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने कहा था कि माकपा राज्य में भाजपा की एकमात्र सीट को भी इस बार छीन लेगी.
अपनी एकमात्र नेमोम सीट हारने के अलावा भगवा दल पलक्कड़, मालमपुझा, मांजेश्वरम और काझाकुट्टम जैसी अहम सीटों पर भी खास प्रदर्शन नहीं कर पाई.
88 वर्षीय श्रीधरन ने पलक्कड़ सीट पर शुरुआती बढ़त हासिल कर ली थी, लेकिन अंतत: युवा विधायक शफी परमबिल ने उन्हें 3,859 मतों के अंतर से हरा दिया.
अभिनेता से सांसद बने सुरेश गोपी त्रिशूर में शुरुआत में कई दौर की गणना के बाद पहले स्थान पर बने हुए थे, लेकिन अंतिम परिणाम आने तक वह तीसरे स्थान पर खिसक गए. पूर्व केंद्रीय मंत्री केजे अल्फोंस भी कांजीराप्पल्ली में खास प्रदर्शन नहीं कर पाए और हार गए.
भाजपा की राज्य इकाई के प्रमुख के. सुरेंद्रन मांजेश्वरम और कोन्नी दोनों सीटों से हार गए, जिसके कारण पार्टी के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा हो गई.
वरिष्ठ नेता शोभा सुरेंद्रन को भी काझाकूट्टम से हार का सामना पड़ा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह, निर्मला सीतारमण एवं राजनाथ सिंह जैसे केंद्रीय मंत्रियों तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई भाजपा नेताओं ने प्रचार किया था और सबरीमला और ‘लव जिहाद’ जैसे मामले उठाए थे.
भाजपा ने चुनाव में कम से कम 35 सीट जीतने का दावा किया था, लेकिन वह खाता भी नहीं खोल पाई.
राज्य में मजबूत नेतृत्व के अभाव में चुनावी दौड़ में पिछड़ा यूडीएफ
केरल में ताबड़तोड़ प्रचार, सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा और सोना तस्करी का मामला भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) को राज्य विधानसभा चुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं दिला पाया क्योंकि पिनराई विजयन के नेतृत्व के सामने राज्य में उसके पास कोई मजबूत चेहरा नहीं था.
विधानसभा चुनाव में यूडीएफ के उम्मीद के अनुरूप प्रदर्शन नहीं करने को कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए भी एक झटके के तौर पर देखा जा रहा है, जिन्होंने प्रचार के दौरान यूडीएफ को एक भरोसेमंद ताकत के तौर पर पेश करने की कोशिश की थी जो इस दक्षिणी राज्य में भाजपा के उभार को जवाब दे सकता है.
नतीजों ने यह भी दिखाया कि कई उम्मीदवारों को नए चेहरों से बदलने के पार्टी आला कमान के फैसले को भी लोगों ने खारिज कर दिया.
विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन के ठीक बाद कांग्रेस को ‘आई’ और ‘ए’ गुट की खींचतान झेलनी पड़ी.
पार्टी के वरिष्ठ नेता के. सुधाकरन ने खुले तौर पर ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) महासचिव (संगठन) केसी वेणुगोपाल और वरिष्ठ नेता रमेश चेन्नीथला तथा ओमन चांडी पर हमला बोलते हुए आरोप लगाया कि पार्टी की सभी समस्याओं के लिए वे ही जिम्मेदार हैं.
भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार को देखते हुए कई जिलों में मुस्लिम और ईसाई बहुल क्षेत्रों में अल्पसंख्यक वोटों पर ज्यादा ध्यान देना भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के खिलाफ गया.
चुनाव में भाजपा की बढ़त को रोकने के लिए अल्पसंख्यकों ने यूडीएफ की बजाय वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) पर दांव लगाने को तवज्जो दी.
पूर्व मुख्यमंत्री ओमन चांडी और नेता विपक्ष रमेश चेन्नीथला के नेतृत्व में यूडीएफ सबरीमला मुद्दे और माकपा के नेतृत्व वाले गठबंधन पर लगाए गए सोना तस्करी व भाई-भतीजेवाद के आरोपों पर निर्भर नजर आया. हालांकि नतीजों से साफ है कि आरोपों का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा.
यूडीएफ ने 2019 के लोकसभा चुनाव में केरल में बड़ी जीत हासिल की थी और उसे इन चुनावों में भी अपने शानदार प्रदर्शन को दोहराने की उम्मीद थी.
यूडीएफ और भाजपा ने एलडीएफ के खिलाफ अपना प्रचार अभियान सोना तस्करी घोटाले पर केंद्रित रखा.
केरल विधानसभा में 11 महिला विधायक चुनी गईं
केरल विधानसभा में 2001 के बाद पहली बार महिला विधायकों का प्रतिनिधित्व बढ़कर दोहरे अंक में पहुंचा है. छह अप्रैल को 140 सदस्यीय सदन के लिए हुए चुनाव में 11 महिलाएं विधानसभा के लिए निर्वाचित हुई हैं.
निर्वाचन आयेाग के आंकड़े के मुताबिक, चुनावों में 103 महिलाओं ने किस्मत आजमाई थी, जिनमें से केवल 11 निर्वाचित हुई हैं.
साल 2016 के चुनावों में आठ महिला विधायक चुनी गई थीं.
आंकड़ों के मुताबिक, 1996 में केरल में 13 महिला विधायक चुनी गई थीं.
इस वर्ष सत्तारूढ़ एलडीएफ से दस महिला विधायक निर्वाचित हुई हैं, वहीं विपक्षी यूडीएफ से एक महिला विधानसभा में प्रतिनिधित्व करेगी.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)