संपादकीय: कोविड संकट में सरकार के नाकाम प्रबंधन की जांच के लिए एक स्वतंत्र आयोग की ज़रूरत है

कोविड-19 की दूसरी लहर ने जिस राष्ट्रीय आपदा को जन्म दिया है, वैसी आपदा भारत ने आजादी के बाद से अब तक नहीं देखी थी. इस बात के तमात सबूत सामने हैं कि इसे टाला जा सकता था और इसके प्राणघातक प्रभाव को कम करने के लिए उचित क़दम उठाए जा सकते थे.

/
कोविड महामारी के दौर में लोगों की मौत का सिलसिला लगातार जारी है. दिल्ली के शवदाह गृह का हाल. (फोटो: रॉयटर्स)

कोविड-19 की दूसरी लहर ने जिस राष्ट्रीय आपदा को जन्म दिया है, वैसी आपदा भारत ने आजादी के बाद से अब तक नहीं देखी थी. इस बात के तमात सबूत सामने हैं कि इसे टाला जा सकता था और इसके प्राणघातक प्रभाव को कम करने के लिए उचित क़दम उठाए जा सकते थे.

कोविड महामारी के दौर में लोगों की मौत का सिलसिला लगातार जारी है. दिल्ली के शवदाह गृह का हाल. (फोटो: रॉयटर्स)
कोविड महामारी के दौर में लोगों की मौत का सिलसिला लगातार जारी है. दिल्ली के शवदाह गृह का हाल. (फोटो: रॉयटर्स)

ऐसे में जबकि सार्स-सीओवी-2 वायरस की विनाशकारी दूसरी लहर थमने का नाम नहीं ले रही है, सुप्रीम कोर्ट और कई उच्च न्यायालय देशभर में एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के भीषण कुप्रबंधन के विभिन्न आयामों पर सुनवाई कर रहे हैं.

जहां उच्च न्यायालय मुख्य तौर पर ऑक्सीजन, दवाइयों और अस्पताल में बिस्तरों की कमी से जूझ रहे लोगों को फौरी राहत संबंधी आयामों पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 से मिलने वाले जीवन के अधिकार के विस्तार के तौर पर स्वास्थ्य के अधिकार के बड़े सवाल को उठाया है.

ये चर्चाएं स्वागतयोग्य हैं, लेकिन इसके साथ ही जरूरत एक औपचारिक न्यायिक आयोग के गठन की भी है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के कम से कम तीन सेवारत न्यायाधीश हों, और जो इस बात की विस्तृत जांच करे कि आखिर भारत की कोविड-19 प्रबंधन प्रणाली धराशायी होकर इस दयनीय स्थिति में कैसे आ गई.

सरकार और इसके नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लिए गए या नहीं लिए गए असंवेदनशील फैसलों के कारण अपनी जान गंवाने वाले लोगों के लिए कम से कम इतना करना तो हमारा कर्तव्य बनता है.

Wire-Hindi-Editorial-1024x1024

कोविड-19 की दूसरी लहर ने जिस राष्ट्रीय आपदा को जन्म दिया है, वैसी आपदा भारत ने आजादी के बाद से अब तक नहीं देखी है और इस बात के तमात सबूत सामने आ रहे हैं कि यह टाला जा सकता था और इसके प्राणघातक प्रभाव को कम करने के लिए उचित कदम उठाए जा सकते थे.

कोविड की पहली लहर के सामने हर जगह, यहां तक कि समृद्ध देशों की भी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था नाकाफी साबित हुई. लेकिन, दूसरी और तीसरी लहर का सामना करने वाले किसी भी देश ने इस तरह की अराजकता और मृत्यु के ऐसे तांडव का सामना नहीं किया, जैसा कि हम आज भारत में कर रहे हैं.

न ही आधिकारिक स्तर पर राजनीतिक लाभ के लिए कोरोना विस्फोट का संभावित कारण बनने वाले आयोजनों को हरी झंडी दिखाने वाली कातिल मानसिकता का ही कहीं ऐसा प्रदर्शन किया गया.

आज दुनिया में हो रहा हर दूसरा संक्रमण भारत से रिपोर्ट किया जा रहा है और देश के कई हिस्सों में टेस्ट पॉजिटिविटी दर 30 फीसदी से ज्यादा है. यह एक अलग मसला है कि टेस्टिंग का बुनियादी ढांचा खुद ही भीषण दबाव में है और मृत्यु के आधिकारिक आंकड़े वास्तविक से काफी कम हैं.

दूसरी लहर की तीव्रता का अंदाजा इस सामान्य आंकड़े से लगाया जा सकता है कि एक करोड़ आधिकारिक मामले का आंकड़ा छूने में भारत को 12 महीने का वक्त लगा, वहीं एक करोड़ से दो करोड़ का आंकड़ा सिर्फ चार महीने में पार हो गया.

सरकार ने इस लहर का पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया और जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए गए, इस सवाल का जवाब दिया जाना जरूरी है.

भारतीय सार्स-को वी-2 जीन सीक्वेंसिंग समूह, जिस पर कि देश में वायरस के प्रकारों की पहचान और उसके आचरण का अध्ययन करने का दायित्व है, के सदस्य राकेश मिश्रा ने हाल ही में कहा कि मार्च की शुरुआत में ही विशेषज्ञों ने ‘वास्तविक खतरे और एक डरावनी स्थिति की संभावना’ को लेकर आगाह कर दिया था.’

यह स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन द्वारा ‘वैश्विक महमारी का खेल खत्म’ होने का विजयी मुद्रा में ऐलान किए जाने से ठीक पहले की बात है.

मिश्रा ने द वायर  को बताया कि ऐसा नहीं हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके सलाहकारों ने इस बारे में न बताया हो.

अगर यह सच है कि प्रधानमंत्री की निजी जिम्मेदारी और सही मायनों में आपराधिक लापरवाही और बढ़ जाती है, क्योंकि उन्होंने न केवल सामान्य बुद्धि बल्कि विशेषज्ञों की सलाह को भी नजरअंदाज करते हुए बड़ी-बड़ी चुनावी सभाओं और हरिद्वार में कुंभ मेले का आयोजन होने दिया और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की तैयारी को बेहतर बनाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया.

आंकड़े बताते हैं कि मार्च और अप्रैल महीने में 90 लाख लोगों ने कुंभ मेले में शिरकत की. कोविड-19 के प्रसार में इसकी भूमिका पर विशेष तकनीकी जांच बिठाए जाने की जरूरत है.

हरिद्वार से लौटे लोगों का प्राणघातक असर उत्तरी भारत के ग्रामीण इलकों में हर दिन महसूस किया जा रहा है.

मोदी ने बीच लड़ाई में ही कोविड-19 पर जीत की समय से पूर्व घोषणा कर दी और इसका नतीजा यह हुआ कि केंद्र के कोविड-19 टास्क फोर्स, जिसने पहले ही नियमित बैठकें करना बंद कर दिया था, ने दूसरी लहर का आना तय होने के बावजूद रोग प्रबंधन के अहम पहलुओं से अपनी नजरें हटा ली.

अक्टूबर, 2020 से लगभग 5 महीने तक राहत के तौर पर भारत में नए संक्रमणों के मामले तुलनात्मक तौर पर कम रहे. दुनिया के बाकी देशों ने पहली और दूसरी लहर के बीच के समय का इस्तेमाल सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर करने और अपनी जनता के लिए ज्यादा से ज्यादा वैक्सीन सुनिश्चित करने में किया.

मोदी सरकार ने इन दोनों ही मोर्चे पर ढिलाई बरती. यह न केवल ऑक्सीजन और दवाइयों जैसे अहम स्वास्थ्य जरूरतों की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित कराने में नाकाम रही, बल्कि इसने आवश्यक संख्या में कोविड के टीकों का प्री-ऑर्डर भी नहीं किया.

भारत के ‘फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड’ (विश्व का दवाई आपूर्तिकर्ता) होने के दावे को देखते हुए दूसरी भूल खासतौर पर दुखदायी है.

संक्रमण की वर्तमान लहर कुछ ही हफ्तों में अपने आप ही मंद पड़ सकती है, मगर सवाल है कि क्या हम फिर से अपने पुराने ढर्रे पर लौट जाएंगे?

इस संकट से मजबूत होकर उभरने का एक तरीका अतीत में की गई गलतियों को स्वीकार करना शुरू करना है. यह सुनिश्चित करने के लिए कि भविष्य में ऐसी गलतियां दोहराई न जाएं, स्वतंत्र वैज्ञानिक सहायता के साथ एक औपचारिक जांच आयोग का गठन किया जाना जरूरी है.

यह आत्ममंथन की भावना के साथ किया जाना चाहिए. इस आयोग को पिछले एक साल के अहम फैसले – सरकार की शुरुआती प्रतिक्रियाओं (बिना नोटिस अचानक लॉकडाउन समेत) से लेकर सघन देखभाल का विस्तार करने के लिए लगाई गई प्रणाली, इसकी वैक्सीन नीति, डेटा संग्रह, पीएम-केयर्स के जरिए फंड इकट्ठा करना, राज्यों को चिकित्सा संसाधनों का आवंटन, मीडिया और यहां तक कि रोगियों की आवाजों को दबाने की कोशिशें, सरकारी और मंत्रिस्तरीय घोषणाओं की प्रकृति और उनका औचित्य तक – जिस तरह से लिए गए, उसकी पड़ताल करनी चाहिए.

ऐसे आयोग के पास सभी संबंधित अधिकारियों को बुलाने या दस्तावेजों को मंगाने का अधिकार होना चाहिए साथ ही उन सलाहों-सूचनाओं को भी देखने की शक्ति होनी चाहिए जो निर्णय लेने के हर चरण पर अधिकारियों द्वारा मांगे गये या उन्हें आधिकारिक या गैर आधिकारिक विशेषज्ञों द्वारा प्राप्त हुए.

यह कहने की जरूरत नहीं है कि जांच आयोग को अपनी कार्यवाही बगैर समय गंवाए और खुले में करनी चाहिए. बंद लिफाफे या कैमरे के सामने सुनवाई की यहां कोई गुंजाइश नहीं है.

कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि अतीत में उठाए गए कदमों की जवाबहदेही करने की जगह लोगों की जिंदगियों को बचाना हमारी प्राथमिकता होना चाहिए.

हालांकि, सिर्फ अतीत में उठाए गए कदम ही नहीं, बल्कि वर्तमान के फैसले भी समस्याओं को बढ़ा रहे हैं, मगर फिर भी यह प्रस्तावित आयोग थोड़े समय बाद भी अपना काम शुरू कर सकता है. लेकिन फैसला लेने वाले और उन्हें लागू करने वाले हर व्यक्ति को अभी से इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उनके सभी कार्यों की समीक्षा होने वाली है.

प्रधानमंत्री एक पारदर्शी जांच में रोड़ा अटका सकते हैं, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इस देश को घुटने पर ला दिया है, उसे देखते हुए कोई और विकल्प नहीं है.

अंतिम सत्य यही है कि एक आदमी की पद-प्रतिष्ठा को होने वाले नुकसान की तुलना में लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगियां ज्यादा कीमती हैं.

(अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)