माघ कृष्ण चतुर्दशी को काशी में गणेश चतुर्थी का मेला भी लगने लगा जिसमें विघ्नहर्ता, बुद्धिनिधान और विद्या के रक्षक के रूप मे बड़े देवता बन कर स्थापित हो चुके थे.
काशी को अपने यहां आदिदेव शिव की नगरी का दर्जा दिया गया है. पर देश की लगभग सबसे पुरानी इस नगरी के इतिहास की कई पर्तें हैं. और वैसा ही है यहां के उस देवकुल का इतिहास भी.
कभी यहां यक्ष और नाग देवता पूजे जाते थे. पर उस समय का लिखित नहीं सिर्फ मौखिक इतिहास ही मिलता है. फिर शिव आए और धीमे-धीमे नाग और यक्ष उनके सहचर गण बन कर शैव परंपरा का हिस्सा बन गए.
विद्वान (वासुदेव शरण अग्रवाल) लिखते हैं कि काशी की कुंडली में व्यापार और धर्म यह दो ग्रह उच्च के पड़े हैं, लिहाज़ा यह नगरी जितनी आध्यात्मिक है, उतनी ही (बदलते समय से तालमेल करने में) व्यावहारिक भी.
5वीं सदी ईसा पूर्व के पास हरिकेश नाम के यक्ष ने धीमे-धीमे शैव और यक्ष धर्म में समझौता कराया और यक्ष नागों के साथ शिव तथा उनके कई गणों की पूजा का प्रचार किया.
कई बड़े यक्ष नाग देवता अब गण बनाकर शिव के दरबार में शामिल कर लिए गए जिनमें गणेश भी थे जिनको महाकाल या प्रधान गण की पदवी दी गई थी.
डॉ. मोतीचंद्र के अनुसार यहां कोई विदेघ माथव और उनके पुरोहित गौतम आर्यों की अग्नि होम से जुड़ी यज्ञ परंपरा लेकर पश्चिम से करीब 200 शताब्दी ईसा पूर्व में आए. उससे (ईसा से 800-200 साल) पहले तक यहां के लोग नागों और यक्षों की ही पूजा करते थे.
यक्षों को बीर और उनके देवस्थान को चौरा कहा जाता था. (बीर शब्द विपुल से निकला है जो अपभ्रंश में बिउल बना जिससे बुल्ला शब्द भी बना है.) काशी के कर्कोटक बाग और लहुराबीर सरीखे देवस्थल उसी परंपरा की तरफ इशारा करते हैं.
समय बदला और काशीखंड (अध्याय 62) में शैव धर्म के ऊपर अब वैष्णव धर्म के हावी होने से जुड़ी एक मज़ेदार कहानी आती है . दिवोदास नाम के एक अहंकारी राजा ने शिव को छोड़ बाकी सब यक्ष नाग देवताओं को नगर से निकाल बाहर किया. पर इन देवताओं (और ज़ाहिर है उनके अनुयायियों) के कूच के साथ धर्मनगरी और व्यापार का केंद्र बन गई काशी की संपन्नता भी कूच करने लगी.
तब काशीवासियों को कृतार्थ करते हुए शिव के मुख्य गण और बुद्धिमान सलाहकार बन गए गणेश ने (जो तब तक शिव के बेटे नहीं माने जाते थे) हरिकेश यक्ष की ही तरह नई और पुरानी परंपरा के बीच मेल मिलाप कराया था.
एक ब्राह्मण (जो दरअसल विष्णु थे) को बुलाया गया जिनकी सलाह से दिवोदास ने बाहर निकाले (गैरवैष्णव) देवताओं को वापस बुलवा लिया. देव कैबिनेट के इस फेरबदल के बीच गणेश गणाधिपति बने और कई अन्य गण मुद्गरधारी यक्ष बनकर शिव मंदिरों के बाहर द्वारपाल बना कर खड़े किए गए. झगड़ा ख़त्म हुआ!
बाद में राजा दिवोदास किन्हीं वजहों से ख़ुद काशीनगरी छोड़ गए, पर शिव प्रमुख देवता बने रहे जिनके तत्वावधान में तमाम नए पुराने देवता किसी न किसी नए ओहदे पर रखे गए और गणेश सहित धर्मनगरी काशी को धनधान्य से संपन्न बनाते रहे.
लोकप्रिय धर्मों का भी एक जीवनचक्र होता है. पर नए के आने के बाद पुराना भी उसी में समा जाता है और कभी-कभी झलक मारता रहता है. जिस तरह यक्ष नाग पूजा की जगह कभी यज्ञ परंपरा वाले वैदिक धर्म ने ले ली थी, उसी तरह वैदिक धर्म के बुझते क्षणों में बौद्धधर्म आया और उसके प्रणेता गौतम बुद्ध ने काशी के पास सारनाथ से नए धर्म का प्रवर्तन किया.
बौद्ध धर्म जल्द ही पुरानी यज्ञ परंपरा के कर्मकांड और जाति-पांति की रूढ़ियों को लांघता हुआ आम जन का धर्म बन गया. पर शिव की पूजन परंपरा भी जारी रही. अब हरिकेश यक्ष महाराज हरसू बरम बन कर भभुआ में जा विराजे और पिछड़ी जातियों के देवता बन गए.
मत्स्य पुराण के अनुसार गणेश और कोई नहीं, महायक्ष कुबेर का ही गण रूप हैं. वह विनायक, वक्रतुंड, गजतुंड जैसे कुछ और यक्षों को भी नाम देता है जो सबके सब आज गणेश के ही नाम बन कर उनमें समाहित हो चुके हैं.
गणेश का विघ्ननाशक विनायक नाम पहले पहल 11वीं-12वीं सदी के पास सुनाई देता है. लगभग इसी समय स्मार्त हिंदुओं के पुरोहितों ने वीतराग तपस्वी शिव का एक भरापूरा परिवार भी बना दिया. और उसके सदस्यों में अनेक नामवाली पार्वती, स्कंद और गणेश तथा नंदी शामिल किए गए.
परिवार बनना था कि आम जनता के बीच (इसी समय लिखे गए लिंगपुराण के अनुसार) शिव की लोकप्रियता शिखर पर जा पहुंची और देवता नाग असुरों में उनके मंदिर बनाने की होड़ लग गई.
यह पुराण मात्र गणेश उर्फ विनायक के ही पांच मंदिरों का ज़िक्र करता है: ढुंढि, कोण विनायक, देवढि विनायक, हस्ति विनायक और सिंदूर विनायक. सबमें मिष्ठान्नप्रेमी ब्राह्मणों ने भोग लगाने को लड्डू चढ़ाने का विधान किया था.
माघ कृष्ण चतुर्दशी को काशी में गणेश चतुर्थी का मेला भी लगने लगा जिसमें विघ्नहर्ता, बुद्धिनिधान और विद्या के रक्षक के रूप मे बड़े देवता बन कर स्थापित हो चुके गणेश को लड्डू चढ़ाने को बड़ी तादाद में विद्यार्थियों के दिन भर खड़े रहने का ज़िक्र भी मिलता है.
18वीं 19वीं सदी तक शिव नगरी में आने वाले हर तीर्थयात्री के लिए पहले उनके मुख्य गणों: भैरव और विनायक के दर्शन का जो विधान तब काशी ने रचा था, वह काशी सहित सभी ज्योतिर्लिंगों तथा शिव नगरियों पर आज तक लागू है.
तैंतीस करोड़ देवताओं के देश में कुछ सौ आर्येतर यक्ष नाग देवताओं का सहअस्तित्व चकित नहीं करता. महामायूरी जैसे बौद्धग्रंथ भी तसदीक करते हैं कि बौद्ध धर्म के फलने-फूलने के साथ इलाके में गणेश (महाकाल), मणिभद्र और पुण्यभद्र सरीखे यक्ष गृहस्थ जनता द्वारा खूब पूजे जाते रहे.
यही मिश्रित परंपरा शैव साधुओं के साथ उत्तराखंड तक जा पहुंची जहां आज भी नीती घाटी में मणिभद्र यक्ष और अल्मोड़ा में यक्षिणी देवी उर्फ जाखन देवी (बतौर दुर्गा) के मंदिर बने हुए हैं. शिव के एक अन्य गण, घंटाकर्ण भी बद्रीनाथ के वैष्णव मंदिर की परिक्रमा में (बिना धड़) विराजित हैं.
यह सब साबित करता है कि हमारे यहां धर्म के नाम पर कट्टरता बहुत दिन नहीं चल सकती. राजा या मठाधीश या राजनेता जो करें, देश का जनसामान्य बड़ी सहजता से हर युग के देवताओं को किसी नए अवतार के रूप में बिठाता और एकरूप कर देता है.
दिवोदास भाग जाते हैं, पर व्यावहारिक गणेश बने ही नहीं रहते दिल्ली से राजस्थान तक परीक्षा में बेहतर अंक या वीज़ा दिलवाने और मानसिक रोग मिटाने का भरोसा भी देते हैं.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं.)