स्मृति शेष: लाल बहादुर वर्मा इतिहास की आंदोलनकारी और विचारधर्मी भूमिका के समर्थक थे. वे किताब से ज़्यादा इंसानों में विश्वास करते थे. केवल बैठे रहकर वे किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करते थे, वे भारत के हर लड़ते हुए मनुष्य के साथ खड़े थे.
प्रसिद्ध इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का 17 मई की सुबह देहरादून में निधन हो गया. लाल बहादुर वर्मा यानी जीवन प्रवाह में बहता हुआ एक एक्टिविस्ट इतिहासकार. एक रंगकर्मी और संपादक, जो आजीवन दोस्तियां बनाने और निभाने में यकीन करता रहा.
छात्रों का एक चहेता अध्यापक और विश्व साहित्य का अनुवादक, जो हम सभी से खुद को गंभीरता से लेने का बार-बार आग्रह करता रहा. जो एक बेहतर समाज में बेहतर इंसान के लिए ज़रूरी सांस्कृतिक आंदोलन चलाने के लिए जीवन भर समर्पित रहा.
उन्होंने अपने व्यक्तित्व और स्वभाव के बारे में ‘कथन’ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में ठीक ही कहा था कि ‘मैं अकादमिक और साहित्यिक होते हुए भी एक्टिविस्ट रहा हूं. जब गोरखपुर में था, तब भी; जब इलाहाबाद में था, तब भी और अब जबकि देहरादून में रहता हूं तब भी. हालांकि अब मैं बूढ़ा और रिटायर हो गया हूं – मैं एक काम हमेशा करता रहा हूं : दोस्ती करना. आज की दुनिया में जबकि दुश्मनियां बढ़ाई जा रही हैं, दोस्त बनाना एक तरह का एक्टिविज्म है, एक तरह का विद्रोह है, एक तरह के विपक्ष का निर्माण है.’
अकादमिक जीवन और बहुआयामी कृतित्व
गोरखपुर के सेंट एंड्रूज़ कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई करने वाले लाल बहादुर वर्मा ने लखनऊ विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए (1959) करने के बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से ‘आंग्ल-भारतीय (एंग्लो-इंडियन) जाति के विकास’ विषय पर पीएचडी की थी.
इसके बाद फ्रांस के सारबॉन विश्वविद्यालय से ‘इतिहास लेखन की समस्याएं’ शीर्षक शोध प्रबंध पर उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि मिली. जहां प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक रेम आरों उनके शोध-निर्देशक रहे.
अपने जीवन और चिंतन में रेमो आरों के प्रभाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘इतिहास एक जीवनदृष्टि बन सकता है और इतिहास के विद्यार्थी और प्राध्यापक को उसे उत्तरदायित्व समझकर अत्यंत गंभीरता से लेना चाहिए इसकी प्रेरणा विश्वविख्यात विचारक और लेखक रेमों आरों ने दी. उनके शिष्यत्व में जो कुछ सीखा उसने जीवन को सार्थकता दी है. उनका ऋणी रहूंगा- जीवन भर.’
इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने हिन्दी भाषा में विपुल लेखन किया. उन्होंने अनुवाद, संपादन, कथा साहित्य, पेशेवर इतिहास लेखन से लेकर आंदोलनों में बांटे जाने वाले पर्चे लिखे. विश्व इतिहास पर लिखी उनकी पुस्तकें जितना इतिहास के विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय थीं, उतनी ही प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों के बीच.
‘विश्व इतिहास की झलक’ (दो भागों में), ‘इतिहास : क्यों-क्या-कैसे’, ‘अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध’, ‘क्रांतियां तो होंगी ही’, ‘यूरोप का इतिहास’ जैसी इतिहास की उनकी लिखी पुस्तकों को छात्र बहुत ही चाव और प्यार से खरीदते थे.
उन्होंने एरिक हॉब्सबाम, जैक लंडन, विक्टर ह्यूगो, हावर्ड फास्ट, आर्थर मारविक, क्रिस हरमन और बॉब डिलन का अनुवाद किया. ‘भंगिमा’ और ‘इतिहासबोध’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी उन्होंने किया.
‘उत्तर पूर्व’, ‘मई अड़सठ, पेरिस’ और ‘जिंदगी ने एक दिन कहा’ नामक तीन उपन्यास लिखे. इतना ही नहीं उन्होंने ‘अपने को गंभीरता से लें’, ‘मानव मुक्तिकथा’, ‘भारत की जनकथा’ जैसी अनेक पुस्तिकाओं का लेखन और उनका प्रचार-प्रसार किया.
लाल बहादुर वर्मा द्वारा लिखी गईं आत्मकथाएं ‘जीवन प्रवाह में बहते हुए’ और ‘बुतपरस्ती मेरा ईमान नहीं’ उनके व्यापक सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं की बानगी देती हैं. इन आत्मकथा में वे अपनी कमजोरियां सीमाओं के प्रति भी पर्याप्त सजग हैं. अपनी खामियों को वे पाठकों के सामने साहस के साथ निर्विकार होकर रखते हैं, स्वीकार करते हैं. यही ईमानदारी और साहस उनके लेखकीय और अकादमिक जीवन की विशिष्ट पहचान रही है.
इतिहास लेखन पर केंद्रित उनकी किताब ‘इतिहास के बारे में’ पढ़ते हुए हर बार कुछ नई अंतर्दृष्टि मिलती है. यह किताब अतीतग्रस्तता और इतिहासबोध के बीच गहरे अंतर को बड़ी स्पष्टता के साथ पाठकों के समक्ष रखती है. साथ ही, यह किताब इतिहास की प्रासंगिकता और उसकी अर्थवत्ता को गहराई से रेखांकित करती है. इतिहास को सामान्य पाठकों से, आमजन से जोड़ती है.
अकारण नहीं कि लाल बहादुर वर्मा लिखते हैं कि ‘जो समाज का सचेत साक्षात्कार कर रहे हैं, जिन्हें सरोकार है और जो समाज की वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हैं. उन्हें ‘है’ और ‘होना चाहिए’ के बीच के अंतर और एक से दूसरे तक की यात्रा के महत्व और उसमें निहित कठिनाइयों का एहसास होगा. इसलिए वे इतिहास संबंधी समस्याओं को समझना चाहेंगे ताकि उनका हल ढूंढा जा सके. क्योंकि इतिहास की समस्याओं को समझने और उन्हें हल करने का सवाल स्वयं समाज को समझने और बदलने के सवाल से जुड़ा हुआ है.’
यहां एक बात रेखांकित की जानी चाहिए कि उनकी किताबें प्रायः सस्ती ही रहीं. वे हमेशा सोचते थे कि हर पढ़ने-लिखने वाले को सस्ती और उत्कृष्ट किताबें और छात्रों को बेहतरीन पाठ्य पुस्तकें मिलनी चाहिए.
उन्होंने इतिहास के अकादमिक ग्रंथ लिखने के बजाय पतली, सुंदर और उत्कृष्ट किताबें सृजित कीं. अकादमिक स्तर पर भी, उन्होंने अफवाहों की भूमिका, मौखिक इतिहास के स्वरूप और प्रविधियों पर लिखा.
वे ‘इतिहास में जन’ से ‘जन में इतिहास’ की ओर उत्तरोत्तर आगे बढ़ने के हामी थे. जन इतिहास के प्रति उनका गहरा लगाव उनके द्वारा वर्ष 1994 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के अलीगढ़ अधिवेशन के ‘भारतेतर इतिहास संभाग’ में दिए उस भाषण में भी झलकता है, जिसका शीर्षक ही है ‘जन के लिए इतिहास: फ्रांसीसी क्रांति पर फ्रांसीसी इतिहास लेखन की एक झलक.’
इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि अपनी पुस्तक ‘यूरोप का इतिहास’ को मेहनतकशों और आम लोगों को समर्पित करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘समर्पित उन्हें जिनकी मेहनत ने इतिहास को गति और दिशा दी है पर जिनका अधिकांश इतिहास पुस्तकों में ज़िक्र तक नहीं होता.’
आंदोलनों की राह में
लाल बहादुर वर्मा ने 1960 के दशक में फ्रांस में पीएचडी की थी. लाल बहादुर वर्मा ने फ्रांस में विद्यार्थियों के आंदोलन (मई 1968) को बहुत नजदीक से देखा था कि कैसे पूरी दुनिया को विद्यार्थी बदल देना चाहते थे. उन्होंने अपने पूरे अध्यापकीय जीवन में इसे याद रखा. विद्यार्थियों पर उनका बहुत भरोसा था. उनका हमेशा मानना था कि यही लोग हैं जो समाज में वास्तविक बदलाव लाएंगे.
बाद में उनके इस संसार में विश्वविद्यालय की पारंपरिक चौहद्दी खत्म हो गयी और किसान, मजदूर, स्त्रियां, झुग्गियों में रहने वाले लोग, वेश्याएं, वैकल्पिक जेंडर के लोग- सब उनकी चिंता के केंद्र में आ गए. उन पर कुछ बोलने से पहले वे उनसे मिले. उनसे बात की, उनका दुख-दर्द जाना और तब जाकर उनके बारे में एक पंक्ति लिखी होगी.
पूरी दुनिया का दर्द उनका सहोदर था. वास्तव में वे इतिहास की आंदोलनकारी और विचारधर्मी भूमिका के समर्थक थे. वे किताब से ज्यादा व्यक्तियों में विश्वास करते थे. केवल बैठे रहकर वे किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करते थे.
अपने रिटायरमेंट के बाद वे भारत के हर लड़ते हुए मनुष्य के साथ खड़े थे. अभी कुछ समय पहले वे किसानों के मोर्चे में शामिल होने गए थे. अकारण नहीं कि उनका विश्वास था कि ‘इतिहास आदमी के इंसान बनने के जद्दोजहद का दस्तावेज़ है.’
बतौर दोस्त लाल बहादुर वर्मा
इलाहाबाद में मेंहदौरी कॉलोनी स्थित उन्होंने अपना मकान 2016 में बेच दिया था. पहले वे दिल्ली में कुछ दिन रहे फिर वे देहरादून चले गए. फिर वहां उन्होंने एक छोटा-सा मकान खरीदा और वर्तमान में वहीं रह रहे थे.
इस बीच सर्दियों से बचने के लिए वे किसी बेहतर जगह चले जाते थे जैसे केरल. लाल बहादुर वर्मा भारत में जहां जाते, अविश्वसनीय रूप से उनको जानने वाले लोग वहां जरूर होते, उनके मित्र होते. कोई उनका ‘परिचित’ नहीं था. जो था, वह उनका ‘मित्र’ ही होता.
उन्होंने एक राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्य के रूप में मित्रता को विकसित किया था. कार्ल मार्क्स और भगत सिंह की तरह उन्होंने मित्रता को समाज निर्माण की प्रक्रिया के रूप में समझा था. यह उनका कोई सैद्धांतिक आग्रह भर नहीं था बल्कि उन्होंने इसे अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतारकर दिखाया था.
इलाहाबाद, गोरखपुर, दिल्ली, देहरादून, मणिपुर सहित भारत के प्रत्येक हिस्से में हजारों लोग ऐसे हैं जो बहुत आसानी से कह सकते हैं कि ‘हां, लाल बहादुर वर्मा मेरे दोस्त हैं.’
मार्च 2019 में यमुना नदी के किनारे इलाहाबाद में एक बड़ा आयोजन हुआ था. बिल्कुल अनौपचारिक. विषय था: दोस्ती. जिसमें शरीक थे युवा, किशोर, बच्चे और लाल बहादुर वर्मा की उम्र के लोग. सबने दोस्ती पर बात की.
उन्होंने दोस्ती को भारतीय समाज की जकड़न और उच्चताक्रम को तोड़ने के एक औज़ार के रूप में देखा था. यह कोई अनायास नहीं था कि जब कोई उनसे जुड़ता था तो उसके दोस्त, फिर दोस्तों के दोस्त उनसे जुड़ते चले जाते थे.
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि ‘कथन’ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में ‘दोस्ती से उनका क्या आशय है,’ यह सवाल पूछे जाने पर लाल बहादुर वर्मा ने कहा था कि ‘दोस्ती का मतलब कोई पार्टी या संगठन बनाना नहीं है. दोस्ती का मतलब है एक-दूसरे को भला इंसान मानना, एक-दूसरे पर विश्वास और भरोसा करना, एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होना और धर्म, जाति, पेशे, स्टेटस, विचारधारा, राजनीति, खान-पान, रहन-सहन आदि के तमाम भेद होते हुए भी दोस्ती करना और उसे निभाना. मैं फेसबुक वाली दोस्ती की नहीं, आभासी दुनिया वाली दोस्ती की नहीं वास्तविक दोस्ती की बात कर रहा हूं. मैं दोस्तों से बाहर ही नहीं मिलता, उनके घर जाकर भी मिलता हूं, उन्हें अपने घर बुलाकर भी मिलता है मतभेद होते हुए भी मैं उनसे बातें और बहसें करता हूं. इस तरह मैं और मेरे दोस्त कोई लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन मुझे उम्मीद है कि अगर कभी सच और झूठ, न्याय और अन्याय, मानुषिकता और अमानुषिकता के सवाल पर कोई लड़ाई हुई, तो मैं और मेरे दोस्त तमाम मतभेदों के बावजूद सत्य, न्याय और मनुष्यता के पक्ष में खड़े होकर लड़ेंगे. लड़ेंगे और जीतेंगे भी.’
इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने इतिहास बोध, दोस्ती और संवाद का जो सिलसिला शुरू किया था, वह ज़रूर आगे बढ़ेगा. अलविदा सर. ज़िंदाबाद.
(शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं और रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो रह चुके हैं.)