शैलजा टीचर प्रसंग बताता है कि माकपा में व्यापक जनमत को लेकर कोई विशेष सम्मान नहीं है. वह जनमत को पार्टी लाइन के आगे नहीं मानती है. इसी हठधर्मिता के कारण वो सिंगूर और नंदीग्राम में जनता के विरोध के बावजूद अपनी लाइन पर अड़ी रही और बर्बाद हो गई. सत्ता चली गई, लाइन बची रह गई!
केरल में शैलजा टीचर को मंत्रिमंडल में शामिल न किए जाने पर जो बहस उठ खड़ी हुई है, उससे 2004 का एक वाकया याद आ गया. भारतीय जनता पार्टी की पराजय हुई थी और वामपंथी दलों के साथ कांग्रेस नीत गठबंधन की जीत.
कई मित्र, जिन्हें अब सिविल सोसाइटी कहा जाने लगा है, जी-जान से अपने साधनों की औकात से ज्यादा इस विजय के लिए काम करने के बाद उसका सुफल देखकर स्वाभाविक ही उल्लासित थे.
यह खुशफहमी उस क्षण तो वे पाल ही सकते थे कि इस विजय में कुछ हमारा भी हिस्सा है. सो, हमारी बात भी राजनीतिक दल सुनेंगे, यह उम्मीद कुछ ज्यादा न थी. हम यह चाहते थे कि वाम दल भी सरकार में शामिल हों. केंद्रीय सरकार को प्रगतिशील नीतियों के लिए प्रेरित करने में वाम दलों की मौजूदगी से आसानी होगी, यह ख्याल था.
दिल्ली में माकपा की सर्वोच्च निर्णयकारी इकाई की बैठक उसके केंद्रीय दफ्तर में होने वाली थी. हमने तय किया कि सामूहिक तौर पर हम वहां जाएंगे और औपचारिक तौर पर पार्टी के शीर्ष नेताओं से अनुरोध करेंगे कि वे सरकार में शामिल होने पर विचार करें.
हम दफ्तर के मुख्य द्वार के बाहर खड़े होकर भीतर जा रहे नेताओं को अपना अनुरोध पत्र दे रहे थे. हममें से कुछ को उनमें से कुछ नेता जानते थे, लेकिन मैं यह देखकर हैरान था कि कोई नेता ठहरकर किसी का अभिवादन भी स्वीकार नहीं कर रहा था. सबके चेहरे भावशून्य थे और वे पर्चा देने वाले पर बिना निगाह डाले बस पर्चा लेकर आगे बढ़ जा रहे थे.
याद है कि बिमान बसु ने कुछ तिरस्कार, कुछ व्यंग्य के भाव से कहा कि आप पहले पार्टी में शामिल हों, फिर सुनेंगे. एक नेता लेकिन रुक गया. वे थे ज्योति बासु. आम तौर पर उन्हें मुस्कुराते नहीं देखा गया है. जब वे रुके तो हम उनके चारों तरफ इकठ्ठा हो गए.
वे किंचित हास्य के साथ अंग्रेज़ी में बोले, ‘आप तो जानते ही हैं हमारी पार्टी में सारे निर्णय जनतांत्रिक तरीके से लिए जाते हैं.’ और फिर वे बढ़ गए. हल्की-सी हंसी की लहर उठी. ज्योति बाबू के व्यंग्य को सबने पकड़ लिया.
पार्टी ने उनके बारे में भी एक बार जनतांत्रिक निर्णय लिया था जिसे ज्योति बाबू ने बड़ी भूल बतलाया था. ऐतिहासिक भूल! ज्योति बसु से बड़े कद का नेता उस समय शायद पार्टी में कोई न था. ऐसा नेता जिसे संसदीय जनतंत्र में लंबे समय तक सरकार चलाने का अनुभव हो.
भारतीय जनता पार्टी के अलावा अन्य राजनीतिक दलों में तकरीबन सर्वमान्य थे. गैर माकपा दलों में भी उनकी बात गंभीरता से सुनी जाती थी. लेकिन जब यह प्रस्ताव आया कि वे केंद्रीय सरकार का नेतृत्व प्रधानमंत्री के रूप में करें, उनकी पार्टी ने इसके खिलाफ फैसला किया.
पार्टी ने संदेश दिया कि कोई व्यक्ति बड़ा नहीं है, इतना बड़ा तो नहीं ही कि पार्टी से ऊपर उसे समझ लिया जाए. गैर माकपा दल ज्योति बाबू को नेतृत्व के लिए कह रहे थे, पार्टी को नहीं. हमसे मुस्कुराकर ज्योति बसु ने इसी प्रसंग की तरफ संकेत किया था.
बाद में जब सीताराम येचुरी के तीसरी बार राज्यसभा सदस्य बनने की बात उठी और कांग्रेस पार्टी ने संकेत किया कि वह उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करेगी तो फिर पार्टी ने सिद्धांत का हवाला देकर मना कर दिया. दो बार से ज्यादा कोई भी, वह कोई भी क्यों हो, राज्यसभा में नहीं भेजा जा सकता.
पार्टी ने यह न सोचा कि क्यों दूसरे दल येचुरी को संसद में चाहते थे. संसद में मजबूत आवाजें कम होती जा रही थीं और येचुरी जैसे अनुभवी राजनेता के रहने से विपक्ष की मुखरता और प्रामाणिक होती. लेकिन पार्टी ने इसे देखने से भी इनकार कर दिया.
पार्टी की इसकी परवाह नहीं थी कि राज्यसभा में जनता का स्वर कमजोर होगा, वह अपनी लाइन के न टूटने को लेकर प्रतिबद्ध थी. पार्टी ने इसे लेकर क्या बहस हुई, यह तो हमें नहीं मालूम. लेकिन इन दोनों प्रसंगों से यही मालूम हुआ कि पार्टी लकीर की फ़कीर है.
दूसरे, उसे व्यापक जनमत को लेकर कोई विशेष सम्मान नहीं है. वह जनमत को पार्टी लाइन के आगे हेठा मानती है. क्या लोग उसे बताएंगे कि क्या ठीक है क्या गलत.
इस हठधर्मिता के कारण पार्टी सिंगूर और नंदीग्राम में जनता के विरोध के बावजूद अपनी लाइन पर अड़ी रही और बर्बाद हो गई. सत्ता चली गई, सब कुछ नष्ट हो गया, लाइन बची रह गई.
शैलजा टीचर के प्रसंग में भी सिद्धांत का हवाला दिया जा रहा है. यह कि यह पार्टी कुछ चेहरों के बल पर नहीं चलती. वह एक व्यवस्था है. सारे मंत्री ही नए लाए जा रहे हैं, फिर शैलजा ही क्यों अपवाद रहें!
शैलजा रिकॉर्ड मत हासिल करके वापस विधानसभा में लौटी हैं, इसमें भी उनकी जगह पार्टी के योगदान पर जोर दिया जा रहा है. वे इस महामारी में जनता का भरोसा कायम रखने वाला चेहरा और स्वर थीं, यह हिचकिचाते हुए ही माना जा रहा है.
बताया जा रहा है कि किसी एक व्यक्ति को तंत्र के ऊपर तरजीह देना उचित नहीं है. क्या अकेले वे कोरोना वायरस संक्रमण को संभाल सकती थीं, यह तर्क दिया जा रहा है.
इसकी तार्किक परिणति यह होगी कि नेतृत्व जैसी कोई चीज़ ही नहीं हो सकती. शैलजा को मंत्री न बनाने पर जो आलोचना हुई है, उसमें आश्चर्य नहीं कि प्रायः माकपा की पूर्व नेत्री गौरी अम्मा की याद की गई है.
यह बताया गया है कि कैसे गौरी अम्मा के नाम पर चुनाव लड़कर पार्टी ने जीतने के बाद उन्हें धता बताते हुए ईके नयनार को मुख्यमंत्री पद सुपुर्द कर दिया. बाद में वे पार्टी से निकाल भी दी गईं.
गौरी अम्मा की लोकप्रियता के करीब अगर कोई पहुंच सकीं तो वे शैलजा हैं. क्या इसी कारण उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई?
जे. देविका ने ठीक कहा कि हमेशा विछिन्नता के जरिये ही प्रगति नहीं होती है. निरंतरता इतनी भी बुरी चीज़ नहीं. आप निरंतरता और विछिन्नता का संतुलन भी कर सकते हैं. खासकर इस महामारी के समय जिसने राज्य की जनता का विश्वास हासिल किया है, उसे झटके से हटा देना बुद्धिमत्ता नहीं.
दूसरे व्यक्ति के महत्त्व से इनकार करना बेवकूफी है. व्यक्ति को अमूर्त प्रक्रियाओं और तंत्र के अधीन कर देना या उनमें शेष कर देना वास्तव में कार्ल मार्क्स की समझ के खिलाफ जाना है.
एक व्यक्ति का बनना, उसका सार्वजनिक व्यक्तित्व निर्माण लंबी और श्रमसाध्य प्रक्रिया है. उसमें सिर्फ उसका निवेश नहीं है, जाने कितनों का निवेश है. जब आप उसकी उपेक्षा करते हैं तो इन सबकी अवहेलना करते हैं. लेकिन यह कहा जाना चाहिए कि यह कोई माकपा ही करती हो, ऐसा नहीं. दूसरे दल भी यह करते हैं.
शैलजा के प्रसंग में सबने यह कहा है कि यह महिलाओं के सही प्रतिनिधित्व का प्रश्न भी है. सवाल यह नहीं कि इस मंत्रिमंडल में भी महिलाएं हैं. सवाल यह भी एक है कि एक महिला मंत्री, जिसने पिछले 5 वर्षों में एक हैसियत हासिल कर ली है उनकी तुलना किसी भी दूसरी महिला से नहीं की जा सकती है.
इसमें एक चतुराई छिपी है. वह है महिला को संख्या में तब्दील कर देना और उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह ओझल कर देना. सभी एक प्रकार से पार्टी के स्वर हैं, अपने आप में कुछ नहीं.
देविका ठीक कहती हैं कि जब अपनी मेहनत के बल पर शैलजा दूसरों से आगे निकल गई दिखती हैं, उन्हें रोक देना और कहना कि नई महिलाओं को मौक़ा देना ज़रूरी है, बेईमानी से अधिक कुछ नहीं. अगर व्यक्ति कुछ नहीं, पार्टी ही सब कुछ है और हमेशा नए को जगह देनी चाहिए तो यह सिद्धांत मुख्यमंत्री पर भी लागू किया जा सकता है.
यहां प्रश्न व्यक्ति का नहीं व्यक्तित्व की उपेक्षा का है. शैलजा को सरकार में शामिल न किए जाने पर केरल की जनता में भी जो नाराज़गी दिखलाई पड़ी है, पार्टी उसकी उपेक्षा करके पहले के प्रसंगों की तरह ही भारी गलती कर रही है. चूंकि वह 5 साल के लिए है, इसका उस पर असर न होगा यह मात्र सुविधावादी तर्क है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)