पारुल खक्कर की कविता एक पारंपरिक गुजराती हिंदू मन का विस्फोट है. उसमें तात्कालिकता का आवेग है, कविता रचने का कोई कलात्मक प्रयास नहीं. वह शोक गीत है, मर्सिया है. गुजरात के समाज में ऐसी कविता अगर फूट पड़े तो अस्वाभाविक लगना ही स्वाभाविक है.
पारुल खक्कर की एक छोटी-सी कविता से गुजरात में तूफ़ान आ गया है. गुजरात के लिए यह अस्वाभाविक माना जा रहा है.
वैसे गुजराती में तूफ़ान शब्द का इस्तेमाल 2002 और उसके बाद एक दूसरे अर्थ में सुना था.ऑटोवाले हों या कोई और, 2002 में 28 फरवरी के बाद जो हिंसा हुई उसे तूफ़ान ही कहते मिले. तूफ़ान आया था, चला गया या थम गया.
हिंदी के हिसाब से सोचकर अजीब लगा कि 2002 के संहार, हिंसा का जिक्र एक कुदरती हादसे की तरह हो. लेकिन गुजराती से धीरे-धीरे परिचित होने के बाद समझ में आया कि तूफ़ान यानी उपद्रव. फिर भी 2002 के पांच साल बाद लोगों को कहते सुना कि अब कोई दिक्कत नहीं .यह भी सुना और बार-बार सुना कि तूफ़ान के चलते ही अमन है!
एक तूफ़ान आया और उसके चलते बाद में आया अमन का राज. गुजरात की ज़िंदगी सम पर चलने लगी. एक गुजरात में दो गुजरात बन गए हैं, बॉर्डर गुजराती का एक शब्द है, एक मसले पर दो लोग आंख मिलाकर बात नहीं कर पाते लेकिन गुजरात में सब कुछ मज़े में चलता रहा.
आंखों के आगे सयाजी राव यूनिवर्सिटी जैसा संस्थान बर्बाद हो गया, गुजरात को फर्क नहीं पड़ा. वह तरक्की की राह पर बढ़ता रहा. अपने ही समाज को लेकर एक मिथ्याभिमान लोगों ने पाल लिया. मिथ्या गर्व गुजरात का स्वभाव बन गया.
रवीश कुमार ने नोटबंदी के बाद सूरत के व्यापारियों से हुई बातचीत के बाद लिखा कि नोटबंदी और जीएसटी से वे भले ही टूट गए लेकिन गुजरात के गौरव की रक्षा अभी भी उनका पहला कर्तव्य था. इसीलिए सूरत के इलाके से भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित सीटें मिलीं.
इस आत्महंता समाज से कैसे बात करें? शायद इसी खीझ में एक सभा में हार्दिक पटेल ने कहा, ‘हम गुजरातियों को माथे पर लिख लेना चाहिए: मैं गुजराती हूं, मैं मूर्ख हूं.’
गुजरात आलोचना, आत्मालोचना जैसे शब्द भूल गया. यह कहने का कोई लाभ नहीं कि भारतीय समाज के सबसे बड़े आलोचक गांधी की भूमि कहलाने की जिद करते हुए भी आलोचना उसका स्वभाव नहीं. उसी का क्यों कहें? और राज्य, और समाज भी इस ग्रंथि के शिकार होंगे ही.
शंख घोष ने 2002 में ही बंगाल को चेतावनी दी थी: गुजरात क्या सिर्फ गुजरात तक सीमित रहेगा? वह कोलकाता की गलियों में धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा है, यह उन कवि नेत्रों ने तब भय के साथ देखा था.
गुजरात में चैन है. कोई प्रश्न नहीं है. वह श्रीकांत वर्मा का ‘मगध’ है. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. 3 साल पहले कुछ नौजवानों से बात करते वक्त उस बेचैनी का एहसास हुआ जो उस समाज में है तो लेकिन जिसका सामना वह नहीं करना चाहता.
उन्होंने कहा कि वे पढ़ना चाहते हैं लेकिन किताबें नहीं मिलतीं उन्हें. हिंदी की किताबें अहमदाबाद में मुश्किल से मिलती हैं. हम एक पुस्तकालय के पास बात कर रहे थे. उन्होंने कहा कि इसमें गोलवलकर तो भरे हुए हैं लेकिन न तो आंबेडकर हैं, न मार्क्स. उनकी ज्ञान पिपासा को शांत करने का या और तीव्र करने का कोई सामूहिक उपाय अहमदाबाद का समाज कर रहा हो, इसके उदाहरण नहीं.
गुजरात में जीवंत रंगमंच का अभाव है. उसी तरह यह आश्चर्य की बात है कि इतनी संपन्नता के बावजूद और मुंबई से इतनी कुरबत के बाद भी गुजराती सिनेमा की कोई अलग दमदार उपस्थिति नहीं है. फिर भी बड़ोदा या अहमदाबाद की सड़कों पर चक्कर लगाते आप इस एहसास इसे नहीं बच सकते कि वह है एक विरोधाभासी समाज.
नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिज़ाइन, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, सेप्ट, इसरो, स्पेस एप्लीकेशन सेंटर, दर्पण, दोशी-हुसेन गुफा, सयाजी राव यूनिवर्सिटी और इनके अलावा जाने कितने संग्रहालय और स्थापत्य के विरल उदाहरण. ये सब आधुनिकता के प्रतीक हैं. बल्कि भारत में आधुनिक चेतना के संवाहक भी. फिर गुजरात को क्या हुआ?
जब हम आधुनिकता कहते हैं तो उसे परस्पर सहिष्णुता और आदर के गुणों के बिना नहीं समझ सकते. आधुनिकता अपने दायरे, हर प्रकार के दायरे का अतिक्रमण करने का या उसका विस्तार करने का आमंत्रण भी है.
वह आत्म को परिभाषित करने का नया तरीका है. आत्म हमेशा ही तुलनात्मक होगा, अपर्याप्त होगा और उसके विस्तार की संभावनाएं कभी ख़त्म न होंगी. यातायात और संप्रेषण के साधनों में क्रांति के बाद अन्य के प्रति उत्सुकता और उसके प्रति उत्तरदायित्व की भावना भी आधुनिकता की संवेदना के घटक हैं.
गुजरात में इसके लिए तमाम संभावनाएं थीं. गांधी के शैक्षिक उपयोग के बारे में सोचा जा सकता था. जिन संस्थानों का जिक्र पहले किया गया, उनमें पूरे भारत और विदेश से छात्र और अध्यापक, शोधार्थी आते-जाते रहते और अनेक ने तो गुजरात को अपना घर ही बना लिया. लेकिन उससे गुजराती चेतना का विस्तार हुआ हो, इसके प्रमाण नहीं. या यह बात हर संस्कृति और समाज पर लागू होती है, यह कहकर इस समस्या से पीछा छुड़ा लिया जाएगा?
मित्र सत्या शिवरामन से बात करते हुए इस बात पर भी ध्यान गया कि भारत के किसी भी दूसरे हिस्से से कहीं अधिक गुजरातियों का भारत से बाहर की दुनिया से परिचय है. कहां नहीं हैं वे?
अफ्रीका के बिना गुजरात की कल्पना नहीं की जा सकती. किसी भी अच्छे गुजराती की तरह अपना करिअर बनाने वकील मोहनदास करमचंद गांधी अफ्रीका गए. अगर गांधी भारतीयों को स्थानीय अश्वेत अफ्रीकियों के मुकाबले श्रेष्ठ व्यवहार के योग्य मानते थे तो यह गुजराती रवैया ही था.
अपने बाद के अनुभव, शिक्षा और नैतिकता के कारण गांधी ने इससे खुद को उबार लिया लेकिन अफ्रीका से गुजरात की रिश्ता उपयोगितावादी ही बना रहा. आप्रवासी होने से दूसरे समाजों के प्रति कोई आदर भाव या स्वीकार का भाव आया हो, इसका सबूत गुजरात में नहीं मिलता.
दूसरों के प्रति उदारता और सहानुभूति भी व्यापक सामाजिक गुण नहीं बन पाए. आखिर युगांडा से ईदी अमीन के अत्याचार के कारण भागकर ब्रिटेन में शरण पाने वाले गुजराती परिवार की सदस्य हैं ब्रिटेन की आज की गृह सचिव प्रीति पटेल. लेकिन वे ब्रिटेन का दरवाजा बाहर से आने वालों के मुंह पर बंद करने की सबसे बड़ी पैरोकार हैं, किसी भी कठोर ब्रिटिश राष्ट्रवादी से अधिक कठोर.
उनके परिवार को शरण मिल गई. इसमें शायद उन्हीं का कोई गुण रहा हो. बाद के लोग, दूसरे देशों के इस गुण से रहित हैं इसलिए प्रीति पटेल के पिता, माता को जो जगह ब्रिटेन ने दी, वे खुद अब किसी को नहीं देना चाहतीं.
गुजरात का दुनिया से यह लेनदेन 150 साल से भी पहले से चल रहा है. यह अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका तक विस्तृत है. इसका लाभ इस समाज को हुआ है, इससे वह इनकार नहीं कर सकता.
लेकिन क्या इसके कारण कोई अंतरराष्ट्रीय संवेदनात्मक तंतु गुजराती चेतना में जुड़ पाया है? या यह शुद्ध व्यावसायिक रिश्ता है, सिर्फ लेनदेन का?
वे खुद कई समाजों में बाहरी हैं और उन्हें उन समाजों ने जगह दी है , हर तरह की भागीदारी के लिए उन्हें मौक़ा दिया है, इस बात का खुद बाहरी होने की उनकी समझ पर कोई असर पड़ा है?
ये सवाल सारे समाजों के प्रसंग में किए जा सकते हैं. लेकिन गुजरात को जो यह लाभ बाकी भारतीय समाजों के मुकाबले किसी भी कारण से अधिक मिला उसका उसने क्या उपयोग किया? या वह खुद को एक विशेषाधिकार संपन्न समाज मानने लगा?
दुनियावी और आर्थिक मामलों में गुजराती समृद्धि ने क्या उसे आध्यात्मिक रूप से संकुचित और स्वार्थी समाज में बदल दिया? ये प्रश्न संभव है सतही लगें और हो सकता है कि इनमें सरलीकरण भी हो लेकिन गुजराती समाज के दूसरों के प्रति अवज्ञापूर्ण रवैये और खुद को विशेषाधिकार संपन्न समाज मानने के पीछे क्या कारण हैं?
अपने विशेषाधिकार बोध के कारण ही इस समाज को अटपटा नहीं लगा जब केदारनाथ में 2013 में आई बाढ़ के वक्त इस राज्य का मुख्यमंत्री आपदाग्रस्त उत्तराखंड में जा धमका और आफत में फंसे उत्तराखंड राज्य को किसी मदद की देने की जगह उसने वहां से डींग हांकी कि कुछ ही घंटों में 80 इनोवा गाड़ियों से 15,000 गुजरातियों को बाढ़ से सुरक्षित बाहर निकाल लिया है.
इस बेपर की उड़ान की सत्यता को छोड़ भी दें, तो भी इसमें छिपी या प्रकट स्वार्थपरता को नज़रअंदाज नहीं कर सकते. सिर्फ गुजरातियों की फिक्र करके वापस उड़ जाने वाले नरेंद्र मोदी को कुछ वक्त बाद भारत अपना प्रधानमंत्री बनाने वाला था. लेकिन वह गुजराती ही रहा.
हाल के समुद्री तूफ़ान के बाद गुजराती प्रधानमंत्री ने सिर्फ गुजरात का हवाई जायज़ा लिया, न करीबी महाराष्ट्र का और न दूसरे राज्यों का. किसी को अटपटा भी नहीं लगा.
तब इकोनॉमिक टाइम्स के अभीक बर्मन ने नरेंद्र मोदी की इस डींग की पोल खोली थी और समझाया था कि यह शुद्ध झूठ था. लेकिन गुजरातियों ने इस पर गर्वपूर्वक यकीन किया. और तब अपने गुजरातीकरण की तरफ बढ़ रहे भारत के मीडिया ने जोर-शोर से इस झूठ को प्रसारित किया.
भारतीय सेना को यह कहकर शर्मिंदा किया गया कि जब नरेंद्र मोदी कुछ घंटों में बीहड़ पहाड़ी रास्तों से बाढ़ के बीच 15,000 हजार गुजरातियों को बाहर निकाल सकते हैं तो सेना ऐसा क्यों नहीं कर सकती!
बिहार के मुख्यमंत्री को भी लज्जित किया गया: देखो एक वह है और एक तुम हो! तब नीतीश के कंठ में आवाज़ थी. सो,उन्होंने कहा कि वे मोदी की तरह रैंबो नहीं हैं!
गुजरात में सप्रयास और जानबूझकर झूठ को सच मानने या सच को झूठ साबित करने का यह पहला उदाहरण न था. 2002 में मुसलमान विरोधी हिंसा के बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात गौरव यात्रा निकाली और पूरे राज्य में गुजरातियों को समझाया कि जिस क़त्ल, लूटमार, बलात्कार की बात की जा रही है वह कुछ नहीं, बस गुजरात को बदनाम करने की बाहरी लोगों की साजिश है.
जिस जनसंहार में गुजराती लोगों ने खुद हिस्सा लिया था उसकी चर्चा को ही वे खुद को बदनाम करने का षड्यंत्र मानने लगे. वह जैसे कोई तूफ़ान हो जो खुद ही आया था, उनकी कोई भूमिका उसमें नहीं थी. जिनका संहार हुआ उन्हें वे शिकायती ठहराने लगे. इंसाफ की मांग को ही नाइंसाफी मान लिया गया.
एक समाज इस प्रकार आत्मछल में जीने की आदत डाल सकता है. सूख गई साबरमती में नर्मदा का जल डालकर उसे जीवित बनाए रखने का भ्रम भी इस प्रवृत्ति का सूचक है.
साबरमती के किनारे को पूरी तरह सीमेंट से जड़कर बनाए गए रिवर फ्रंट को सांस्कृतिक उपलब्धि मान बैठे समाज का आत्मबोध क्या साबरमती की तरह ही सूख गया है, यह प्रश्न साबरमती के किनारे खड़े होकर उस नदी की स्मृति की तरह मन में कौंधता है.
वही सांस्कृतिक छल अब पूरे देश पर आरोपित किया जा रहा है. साबरमती रिवर फ्रंट के लिए जिम्मेदार वास्तुकार बिमल पटेल को बनारस की सांस्कृतिक और ऐतहासिक चेतना को विकृत करने का काम सुपुर्द किया गया है. और वही बिमल पटेल अब दिल्ली को क्षत-विक्षत कर रहे हैं.
गुजरात के इस स्मृतिलोप या स्मृतिनिरपेक्षता का कुछ रिश्ता उसमें भरती जा रही हिंसा से है. 2007 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद सामाजिक मनोविज्ञान के आचार्य आशिस नंदी ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक छोटा-सा लेख लिखा. नंदी का गुजरात से स्नेह का रिश्ता है. यह लेख पीड़ा के साथ लिखा गया है.
उन्होंने गुजराती मध्य वर्ग के भीतर हिंसक धार्मिक राष्ट्रवाद के प्रति बढ़ते आग्रह को देखकर चिंता जाहिर की थी. यह समाज किसी के प्रति सहानुभूति रखने, किसी के दुख से संवेदित होने में असमर्थ होता जा रहा है, यह उन्होंने नोट किया था.
इस पर विचार करने की जगह बुजुर्ग नंदी पर मुकदमा दायर कर दिया गया और उन्हें इसके लिए क्षमा मांगने पर मजबूर किया गया. क्षमा नंदी ने मांग ली, जैसे गैलीलियो ने किया था लेकिन उस क्षमा याचना से यह सत्य बदल नहीं गया था कि पृथ्वी सूर्य के गिर्द चक्कर लगाती है उसी तरह गुजरात का सत्य जो नंदी ने बतलाया था खंडित नहीं हो जाता.
जहां हमदर्दी की गुंजाइश कम हो जाए वहां भाषा भी कारोबारी ही रह जाती है. सत्य की आकांक्षा से रहित भाषा में कविता कैसे संभव है?
गुजराती भाषा के मर्मज्ञ और गांधी साहित्य के विशेषज्ञ मेरे मित्र, जिनका नाम जानबूझकर ही नहीं ले रहा ताकि वे आशिस नंदी की तरह प्रताड़ित न हों, अफ़सोस के साथ कहते रहे हैं कि गुजराती भाषा में हाल के समय में कोई सर्जनात्मक संभावना खोजना श्रम व्यर्थ करना है. शायद यह एक सिनिकल, निराशावादी सरलीकरण है.
आशिस नंदी ने गुजराती मध्यवर्ग के चित्त के संकुचन पर हताशा जाहिर की थी. उस मन से जो गुजरात से दूर गंगा में प्रवाहित शवों के दृश्य से विचलित होकर एक कविता फूट पड़े, यह गुजरात के लिए भी खबर थी.
कविता एक पारंपरिक गुजराती हिंदू मन का विस्फोट है. उसमें तात्कालिकता का आवेग है. कविता रचने का कोई कलात्मक प्रयास नहीं. वह शोक गीत है, मर्सिया है, यह कहा गया है.
उससे ज्यादा वह क्षोभ की अभिव्यक्ति है. इसकी ताकत गुजराती में ही जाहिर होती है. जीभ पर लगे सारे पहरे जो अन्यथा सावधान क्षणों में कुछ शब्दों को कविता में आने से रोक देते दुखपूर्ण क्रोध ने तोड़ दिए हैं:
एक साथ सब मुर्दे बोले ‘सब कुछ चंगा-चंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
ख़त्म हुए श्मशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आंखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
नित लगातार जलती चिताएं
राहत मांगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियां
कुटती छाती घर-घर
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
‘मेरा साहेब नंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
गंगा गुजरात की नदी नहीं है लेकिन जैसा नेहरू ने कहा था, गंगा भारत की नदी है. गंगा का गुजरात में राष्ट्रवादी इस्तेमाल तो किया गया है जैसे बाकी प्रतीकों का भी, वह अयोध्या हो या राम. गंगा उस राष्ट्रवादी बांध को तोड़कर मानवता की भूमि पर प्रवाहित होने लगे, यह गुजरात के लिए घटना है.
इस कविता से इसलिए एक सकता-सा छा गया. गुजराती साहित्यिक समाज में खामोशी ने इसका स्वागत किया. लेकिन जो गुजरात की बेहिसी से बेदिल थे, उन्हें इस कविता में उम्मीद दिखलाई पड़ी.
आनन-फानन में इस कविता का हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी और दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ और यह कविता आग की तरह सोशल मीडिया के जरिये फैल गयी. पारुल खक्कर की इस कविता की यह वेदना शायद एक मानववादी विचार में परिणत हो!
मेरे उन्हीं निराशावादी मित्र ने सावधान किया, बहुत उम्मीद न पालो. अभी गुजराती अखबार भी कोविड के संक्रमण को रोकने में सरकार की विफलता पर उसकी खबर ले रहे हैं. लेकिन क्या ये अखबार जिन्होंने खुलकर मुसलमान विरोधी घृणा का प्रचार किया था, अब उदारवादी दिशा की ओर मुड़ गए हैं?
यह कहना जल्दबाजी होगी. यही बात तो अभी हिंदी अखबारों के बारे में कही जा सकती है. क्या मृत्यु के प्रति इस सत्ता के अपमानपूर्ण रवैये से इन अखबारों का रुख उसकी राजनीति के खिलाफ हो पाएगा? उसकी विचारधारा के खिलाफ जिस विचारधारा में मानव जीवन की अवज्ञा निहित है.
मेहुल देवकाला ने टेलीग्राफ अखबार में इस कविता पर गुजराती साहित्यिक समाज में हुई प्रतिक्रिया पर लिखा है. पारुल कोई व्यवस्था विरोधी कवयित्री नहीं रही हैं. फिर वे इतनी कड़वी कविता कैसे लिख बैठीं जिसमें ‘रंगा-बिल्ला’ जैसा प्रयोग दो नेताओं के लिए किया जा सका है?
गुजरात के दक्षिणपंथी साहित्यिक समाज में पारुल के इरादे पर गहरा शक है. उन पर घटिया हमला किया जा रहा है. लेकिन पारुल को नहीं लगता कि उन्होंने कुछ गलत किया है.
गुजराती साहित्यिक समाज से पारुल खक्कर को कोई समर्थन नहीं मिला है. देवकाला इस चुप्पी से हैरान नहीं. उन्होंने 2015 में देश में बढ़ रही असहिष्णुता पर जब अपील जारी करने के लिए अपनी भाषा के लेखकों से समर्थन मांगा, उन्होंने सामने या फोन पर तो अपना समर्थन दिया लेकिन अपील पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया.
यह हममें से किसी के लिए भी नया नहीं है. 2002 के बाद अप्रैल के महीने में गुजराती साहित्य परिषद् में हुई एक सभा में उपस्थित बड़े लेखकों ने वली गुजराती के मजार के पुनर्निर्माण के प्रस्ताव का भयंकर विरोध किया था. यह देखकर हमारे साथ मौजूद महाश्वेता देवी स्तब्ध थीं.
मुझे याद है कि गुजराती के एक तर्कशील लेखक ने कहा था कि वह मजार सड़क के बीच था, इसलिए उससे यातायात में बाधा होती थी. मजार को ध्वस्त करने के पक्ष में यह चतुर तर्क सुनकर खून खौल उठा था. लेकिन मजार के पुनर्निर्माण का प्रस्ताव आखिर पारित नहीं ही हो सका.
उसी तरह बड़ोदा में वास्तुकारों की एक सभा में जब हिंसा में जलाए या ध्वस्त किए गए स्मारकों के पुनर्निर्माण का प्रस्ताव आया तो एक ने क्रोध में कहा कि आप सिर्फ मुसलमान स्मारकों की बात कर रहे हैं. जिन हिंदू स्मारकों को नुकसान पहुंचा है उनकी भी बात कीजिए.
किसी ने उनसे कहा कि आप ऐसे किसी स्मारक का नाम बता दीजिए. इस पर उनका कहना था कि यह खोजना आपका काम है, वरना आप एकतरफा प्रस्ताव ला रहे हैं! इस धोखेबाजी का क्या जवाब था!
इस समाज में ऐसी कविता अगर फूट पड़े तो अस्वाभाविक लगना ही स्वाभाविक है. लेकिन यह सहज वेदना किसी ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ को जन्म न देगी, यह मानने को मेरा मन तैयार नहीं. आखिर परिवर्तन नियम से नहीं होते.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)