हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को भारत रत्न देने से क्यों कतरा रही हैं सरकारें?

सचिन तेंदुलकर को महज़ 24 घंटे के अंदर भारत रत्न देने का फैसला लेने वाली सरकारें चार बार सिफारिश के बावजूद मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने का मन अब तक नहीं बना पाई हैं.

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Major Dhyanchand
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सचिन तेंदुलकर को महज़ 24 घंटे के अंदर भारत रत्न देने का फैसला लेने वाली सरकारें चार बार सिफारिश के बावजूद मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने का मन अब तक नहीं बना पाई हैं.

Major Dhyanchand
हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद. (जन्म: 29 अगस्त 1905 – मृत्यु: 03 दिसंबर 1979)

11 अप्रैल 2011 को भाजपा से लोकसभा सांसद मधुसूदन यादव ने तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम को एक ख़त लिखा. इसमें उन्होंने मांग की कि क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया जाए. इसके लिए सरकार द्वारा ‘भारत रत्न’ दिए जाने के नियमों में बदलाव किया जाए और खेलों को भी योग्यता सूची में जोड़ा जाए.

उस समय तक भारत का यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान साहित्य, कला, विज्ञान और जनसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले व्यक्तियों को ही दिया जाता था. इस पत्र का मजमून यह निकला कि खेलों को भी भारत रत्न पाने वाले क्षेत्रों की सूची में जोड़े जाने की बहस छिड़ गई.

चूंकि सचिन तब हर भारतीय के दिल पर राज करते थे. क्रिकेट में बल्लेबाज़ी का लगभग हर रिकॉर्ड अपने नाम कर चुके थे. वे देश में खेलों का पर्याय बन चुके थे. इसलिए सरकार के लिए भी इस मांग को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं रहा.

नतीजतन बड़ी बहस के बाद भारत रत्न दिए जाने के नियमों में संशोधन हुआ. तय हुआ कि किसी भी क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वालों अथवा विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वालों को भारत रत्न से सम्मानित किया जा सकेगा. यहां से खिलाड़ियों को भी यह सम्मान मिलने के दरवाज़े खुल गए.

लेकिन घोषणा के कुछ ही समय के भीतर एक पत्र और लिखा गया. इस बार देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम पत्र लिखने वाले व्यक्ति झांसी से कांग्रेस सांसद और केंद्रीय राज्यमंत्री प्रदीप जैन थे. इस पत्र में उन्होंने लिखा कि सरकार को हॉकी के जादूगर कहलाए जाने वाले मेजर ध्यानचंद के खेलों में योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.

उन्होंने लिखा, ‘ध्यानचंद भले ही 34 साल पहले गुज़र चुके हों, लेकिन उनकी उपलब्धियां ज़िंदा हैं. वे हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी का पर्याय हैं. वे तत्काल भारत रत्न पाने के हक़दार हैं.’

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मेजर ध्यानचंद. (फोटो साभार: लेट्स इंस्पायर डॉट कॉम)

इस मांग के समर्थन पत्र पर 81 अन्य सांसदों ने भी हस्ताक्षर किए थे जिनमें शशि थरूर, मोहम्मद अज़हरुद्दीन, सीपी जोशी, राज बब्बर, संजय निरूपम, मीनाक्षी नटराजन जैसे बड़े नाम भी शामिल थे. इसके बाद देश भर में बहस छिड़ गई कि पहले भारत रत्न किसे दिया जाए? हॉकी के जादूगर और क्रिकेट के भगवान आमने-सामने थे.

सचिन को अगर आधुनिक दौर में खेलों का पर्याय माना गया तो अपने दौर में ध्यानचंद भी वह नाम थे जिन्होंने भारत को खेलों में पहचान दिलाई. क्रिकेट में भारत की औपचारिक शुरुआत से सालों पहले उन्होंने अपने करिश्माई खेल से भारत को ओलंपिक में स्वर्ण पदक दिला दिया था.

देश में क्रिकेट जब अपने शैशवकाल में था तब भारत हॉकी में तीन ओलंपिक स्वर्ण पदक अपने नाम कर चुका था. वर्ष 1928, 1932 और 1936 ओलंपिक जीत में मेजर ध्यानचंद भारत के वो तुरूप के इक्के साबित हुए थे जिसका तोड़ किसी भी विपक्षी टीम के पास नहीं था.

क्रिकेट में जो मुकाम सर डॉन ब्रेडमैन का रहा, उस दौर में वही मुकाम ध्यानचंद का था. ब्रेडमैन भी उनके खेल की प्रशंसा किए बग़ैर नहीं रह सके थे. यहां तक कि जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने जब ध्यानचंद को खेलते देखा तो वे उनके ऐसे मुरीद हुए कि अपने देश से खेलने का ही न्योता दे दिया. उनके बनाए कई रिकॉर्ड आज तक टूटे नहीं हैं. यह ध्यानचंद के खेल की ही जादूगरी थी कि उनकी हॉकी स्टिक की जांच तक की नौबत आ गई थी.

इसलिए जब खिलाड़ियों को भारत रत्न देने का रास्ता खुला तो ध्यानचंद का दावा किसी भी दृष्टि में सचिन से कम नहीं था. लेकिन कई नाटकीय घटनाक्रम के बाद 2013 में सचिन को तो भारत रत्न से सम्मानित कर दिया गया लेकिन ध्यानचंद का इंतज़ार अब भी जारी है.

उनकी याद में हर साल उनके जन्मदिवस (29 अगस्त) को राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है. इस दिन खिलाड़ियों को खेल पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है. उनके नाम पर खेल में आजीवन उपलब्धि के लिए खेल मंत्रालय द्वारा मेजर ध्यानचंद पुरस्कार दिया जाता है.

विडंबना देखिए कि उनके नाम पर पुरस्कार बांटे जा रहे हैं लेकिन जिस पुरस्कार और सम्मान के वे हक़दार हैं, उन्हें वह नहीं दिया जा रहा है. 2011 से हर वर्ष खेल दिवस या ध्यानचंद के जन्मदिवस के समय हॉकी जगत और खेल जगत उनके लिए भारत रत्न की मांग उठाता है.

ध्यानचंद के बेटे और स्वयं 1975 की विश्वविजेता भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा रहे अशोक ध्यानचंद 2012 से ही खेल मंत्रालय और सरकार से अपने पिता को भारत रत्न दिए जाने की मांग कर रहे हैं. लेकिन खेल मंत्रालय और सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. वे ध्यानचंद को महान तो बताते हैं पर शायद भारत रत्न देना नहीं चाहते हैं.

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(फोटो साभार: फैन्स आॅफ हॉकी)

2012 से अब तक खेल मंत्रालय चार बार ध्यानचंद के नाम की सिफारिश भारत रत्न के लिए कर चुका है. नियमों में बदलाव के ठीक बाद पहली बार 2012 में सुनने में आया कि खेल मंत्रालय ने मेजर ध्यानचंद और पर्वतारोही तेनजिंग नोर्गे के नामों की सिफारिश भारत रत्न के लिए की है. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी.

नियमों में बदलाव के अगले दो साल तक वह चुप्पी साधे रही. इस दौरान सचिन बनाम ध्यानचंद की बहस चलती रही. सचिन के लिए जहां सरकार लामबंद नज़र आ रही थी तो ध्यानचंद के लिए कुछ पूर्व हॉकी खिलाड़ी और उनके बेटे अशोक कुमार ने मोर्चा संभाल रखा था.

अशोक कुमार की अगुआई में छह-सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल 12 जुलाई 2013 को खेलमंत्री जितेंद्र सिंह से मिला. नतीजतन खेल मंत्रालय ने ध्यानचंद के नाम को आगे बढ़ाया.

तत्कालीन खेल सचिव पीके दवे ने तब मीडिया में कहा, ‘भारत रत्न के लिए ध्यानचंद के नाम की सिफारिश का पत्र पहले ही प्रधानमंत्री को भेज दिया गया है. इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान के लिए मंत्रालय ने सिर्फ ध्यानचंद के नाम की सिफारिश की है. प्रधानमंत्री को भेजी गई इस सिफारिश का आगे अध्ययन किया जाएगा, जिसके बाद इसे राष्ट्रपति को स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा.’

हालांकि इस दौरान सचिन तेंदुलकर को यह पुरस्कार दिए जाने की मांग बहुत ज़ोरों पर थी लेकिन मंत्रालय ने जो संकेत दिए उससे लगा कि ध्यानचंद ही पहले खिलाड़ी होंगे जो यह पुरस्कार पाएंगे. लेकिन नवंबर 2013 में सचिन ने संन्यास की घोषणा कर दी और केंद्र सरकार ने सचिन को रिटायरमेंट का तोहफा देने के लिए ध्यानचंद को नज़रअंदाज़ कर दिया.

अपनी मांग के समर्थन में पूर्व हॉकी खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करके प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपा. सवाल उठाया कि सचिन के साथ ध्यानचंद को भी सम्मानित करने में क्या बुराई है? लेकिन नतीजा सिफ़र रहा.

2014 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ पर नई सरकार का भी ध्यानचंद पर ध्यान नहीं गया. हां, यह ख़बरें ज़रूर आईं कि गृह मंत्रालय ने ध्यानचंद का नाम प्रधानमंत्री को प्रस्तावित किया है.

यह जानकारी गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने लोकसभा में दी थी. लेकिन भारत रत्न तब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित मदन मोहन मालवीय को मिला. इस तरह तीसरी बार फिर हॉकी के जादूगर का जादू सरकारी तंत्र के सामने नहीं चला. अब इस साल जून में चौथी कवायद शुरू हुई. खेल मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर ध्यानचंद को भारत रत्न देने का आग्रह किया.

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मेजर ध्यानचंद. (फोटो साभार: मिड डे)

खेल मंत्री विजय गोयल ने कहा, ‘हॉकी के जादूगर नाम से मशहूर मेजर ध्यानचंद को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिलाने की मंत्रालय की यह नवीनतम कोशिश है. इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा है. ध्यानचंद को मरणोपरांत यह सम्मान देना देश को उनकी सेवाओं की सच्ची श्रद्धांजलि होगी.’

यहां प्रश्न उठता है कि जब दो बार कांग्रेस के कार्यकाल में और एक बार भाजपा के कार्यकाल में ध्यानचंद के संबंध में प्रधानमंत्री कार्यालय प्रस्ताव भेजा जा चुका है तो नवीनतम प्रस्ताव भेजे जाने की क्या ज़रूरत है? क्या उसी प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जा सकता था? उन प्रस्तावों में क्या कोई अलग मांग है? उनमें भी तो यही मांग है कि ध्यानचंद को भारत रत्न मिले. फिर इस कवायद को बार-बार शून्य से शुरू करने की सरकार की यह मंशा सवालों को जन्म देती है.

इस मामले में वर्तमान और पूर्ववर्ती केंद्र सरकार दोनों का ही रुख़ अस्पष्ट और संदिग्ध रहा है क्योंकि जिस ध्यानचंद को केंद्र में रखकर खेल दिवस मनाया जा रहा है, खेल पुरस्कार वितरित किए जा रहे हैं, खेल आयोजन हो रहे हैं, मैदानों के नाम रखे जा रहे हैं, फिर ऐसा क्या है कि भारत रत्न देने के मामले में सरकारों की नज़रों से वही ध्यानचंद ओझल हो जाते हैं?

क्यों कभी सरकारों के अंदर से उन्हें यह सम्मान देने की बात नहीं उठी है? मांग हमेशा उनके परिजन, पूर्व हॉकी खिलाड़ियों, खेल जगत और खेल प्रेमियों की ओर से उठी है. जब भी खेल मंत्रालय या गृह मंत्रालय ने ध्यानचंद का नाम आगे बढ़ाया है तो वह इन्हीं के दवाब में बढ़ाया है.

2012 में पहली बार ध्यानचंद के बेटे ने मांग की, विभिन्न खेलों के कई पूर्व खिलाड़ियों ने मांग की, 82 सांसदों का हस्ताक्षरित पत्र प्रधानमंत्री के पास पहुंचा. दूसरी बार नाम तब बढ़ाया जब पूर्व खिलाड़ियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने खेल मंत्री से मिलकर दबाव बनाया.

तीसरी बार सरकार बदल गई थी पर परिस्थितियां वही थीं. विभिन्न मंचों से उठ रही मांग को दबाने के लिए झूठा आश्वासन दिया गया. और अब फिर से वही हालात बने. कुछ महीने पहले ही संसद में राज्यसभा सांसद और पूर्व हॉकी खिलाड़ी दिलीप टिर्की ने मांग उठाई.

समाजवादी पार्टी से राज्यसभा सांसद चंद्रपाल यादव ने भी शून्यकाल के दौरान मुद्दा राज्यसभा के संज्ञान में लाते हुए कहा, ‘मेजर ध्यानचंद को ब्रिटिश सरकार और एडोल्फ हिटलर ने भी सम्मानित किया, लेकिन इसी देश में उन्हें सही सम्मान नहीं मिल पा रहा. उन्होंने भारतीय हॉकी की दुनिया भर में अलग पहचान बनाई थी.’

इस दौरान खिलाड़ी और खेल प्रेमी फिर से जंतर-मंतर पर जुटे थे. यह इसी दबाव की परिणति मानी जाएगी कि विजय गोयल ने मीडिया में आकर ध्यानचंद का नाम भारत रत्न के लिए प्रस्तावित करने की बात कह दी लेकिन नाम तो प्रस्तावित पहले भी हुआ, पर क्या मांग पूरी हुई?

आश्चर्य होता है कि ध्यानचंद सरकारी आयोजनों और सरकारी फाइलों में तो मौजूद हैं, खेल दिवस पर उनकी प्रतिमा को माला तो पहनाई जाती है, भाषण में उनकी प्रतिभा का खूब गुणगान भी किया जाता है, लेकिन उन्हें भारत रत्न भी दिया जाना है, सरकार को यह बात पत्र लिखकर, जंतर-मंतर पर धरना देकर, रैली निकालकर या मीडिया में बयानबाजी करके याद दिलाई जाती है.

क्या सरकार को मालूम नहीं कि नियम बदल गए हैं. खेल क्षेत्र में भी अब भारत रत्न दिया जाता है? वर्तमान सरकार का यह तर्क ज़रूर हो सकता है कि ध्यानचंद स्वर्ग सिधार चुके हैं और उनकी उपलब्धियों को अरसा बीत गया है, इसलिए उन्हें नज़रअंदाज़ किया जा रहा है. लेकिन फिर यही बात पंडित मदन मोहन मालवीय पर भी लागू होती है.

सच तो यह है कि ध्यानचंद राजनीति के लिए किसी काम के नहीं, इसलिए वे भारत रत्न नहीं, बस राजनीति के शिकार बने हैं. संप्रग की पूर्ववर्ती सरकार ने पहले ही मन बना लिया था कि खेलों का पहला भारत रत्न सचिन को ही देना है. वह बस इस इंतज़ार में थी कि सचिन कब संन्यास लें.

इस दौरान ध्यानचंद के लिए उठ रही मांग को शांत करने के लिए खेल मंत्रालय उनके नाम की सिफारिश की बात कहता रहा और दो सालों का समय निकाल दिया.

आरटीआई एक्टिविस्ट हेमंत दुबे को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी से तो यही सिद्ध होता है. उन्हें प्राप्त दस्तावेज़ बताते हैं कि सचिन को भारत रत्न देने का फैसला महज़ 24 घंटे में कर लिया गया था.

साल 2014 में समाचार एजेंसी आईएएनएस से बातचीत में उन्होंने कहा था कि 14 नवंबर 2013 से शुरू वेस्टइंडीज के ख़िलाफ़ सचिन के विदाई टेस्ट के पहले ही दिन पीएमओ ने दोपहर 1:35 बजे खेल मंत्रालय से तत्काल तेंदुलकर का बायोडाटा मांगा. खेल मंत्रालय ने शाम 5:23 बजे तक पीएमओ को ईमेल के ज़रिये सचिन का बायोडाटा भेज भी दिया.

हेमंत बताते हैं, वहीं बायोडाटा नियमानुसार सचिन से नहीं मांगा गया, बल्कि खेल मंत्रालय ने पीएमओ से भेजे गए फॉर्मेट के अनुसार ख़ुद बायोडाटा तैयार कर लिया. अगले ही दिन ज़रूरी कार्यवाही पूरी कर प्रधानमंत्री ने इसे मंज़ूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को मंज़ूरी देने में देर नहीं लगाई और 16 नवंबर को मैच ख़त्म होते ही सचिन को भारत रत्न देने की घोषणा कर दी गई.

हेमंत ने आगे कहा, ‘17 जुलाई 2013 को खेल मंत्रालय द्वारा मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने की विधिवत सिफारिश प्रधानमंत्री को भेजी गई थी, लेकिन महीनों पुरानी ध्यानचंद से जुड़ी सिफारिश पर तो विचार तक नहीं किया गया.’

इस पूरे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि तत्कालीन सरकार की कभी मंशा ही नहीं थी कि ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए. इसलिए 24 घंटे का काम 24 महीने में भी नहीं हो सका. वहीं सचिन को तरजीह देने का कारण यही था कि जल्द समय में होने वाले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस सचिन के चेहरे को भुनाना चाहती थी.

सचिन तब एक ब्रांड थे. करोड़ों भारतीयों की आंखों का नूर थे और क्रिकेटप्रेमी देश में ध्यानचंद कबके भुलाए जा चुके थे. चुनावी समर में वे किसी काम के नहीं थे. कांग्रेस ने फायदा देखा. पहले तो सचिन के सिर भारत रत्न का ताज पहनाया, फिर राज्यसभा भिजवाया.

यही काम भाजपा के नेतृत्व वाली नई सरकार ने भी किया. ध्यानचंद के चेहरे में उन्हें वो तेज नहीं दिखा जिसे भुनाया जा सके. इसलिए उनके नाम की सिफारिश का झांसा देकर विभिन्न मंचों से उठ रही मांग को दबाए रखा. और ऐन मौके पर अटल बिहारी वाजपेयी और मदन मोहन मालवीय का नाम आगे बढ़ाकर अपना एजेंडा सेट कर लिया.

ध्यानचंद पर किस कदर राजनीति हुई इसे इस तरह भी समझिए कि सचिन को भारत रत्न मिलने के बाद खेल मंत्री इस बात को ही नकार गए कि कभी ध्यानचंद के नाम की भी सिफारिश की थी.

वहीं भाजपा के नेता भी सरकार बनाने के बाद ध्यानचंद को भूल गए. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2011 में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सिफारिश की थी कि ध्यानचंद को भारत रत्न मिले.

सार्वजनिक मंच से उन्होंने कहा था, ‘खेल जगत का पहला भारत रत्न हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को दिया जाना चाहिए. उन्होंने दुनिया में देश का मान बढ़ाया. सचिन तेंदुलकर भी बेमिसाल हैं और लाखों लोगों की आंखों के तारे हैं. पर यह सम्मान पहले ध्यानचंद को ही मिले क्योंकि उन्होंने ही हॉकी को पहचान दी है.’ इसी तरह उमा भारती भी तब मुखर रहीं. लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने सरकार बनने पर ध्यानचंद को भारत रत्न दिलाने की घोषणा भी की.

सपा सांसद चंद्रपाल यादव के अनुसार वर्तमान प्रधानमंत्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग की थी. लेकिन आज भाजपा की सरकार बने तीन साल हो गए. ये सभी नेता ध्यानचंद को भुला चुके हैं.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi addressing at the flagging off ceremony of “Run For Rio”, at Major Dhyan Chand National Stadium, in New Delhi on July 31, 2016. The Minister of State for Youth Affairs and Sports (I/C), Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation, Shri Vijay Goel and the Secretary, Ministry of Youth & Sports, Shri Rajiv Yadav are also seen.
पिछले साल रन फार रियो कार्यक्रम के दौरान मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीआईबी)

ख़ुद को खेल हितैषी साबित करने के लिए साल में एक बार उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण ज़रूर कर देते हैं. पर अगर उन्हें भारत रत्न देना होता तो बार-बार नाम प्रस्तावित करने की नौबत नहीं आती. जंतर-मंतर पर धरना देकर मांग नहीं की जाती.

यहां ग़ौर करना होगा कि वर्तमान प्रधानमंत्री खेलों को लेकर संवेदनशील होने की बात करते हैं, ट्विटर और ‘मन की बात’ के ज़रिये खेल और खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने का कहते हैं, पर भारत में खेलों और राष्ट्रीय खेल की नींव रखने वाले खिलाड़ी के लिए हो रही मांग से अनभिज्ञ है.

क्या ऐसा संभव है? क्यों उन्हें ध्यानचंद के लिए जंतर-मंतर पर धरना देते पूर्व खिलाड़ी और खेल प्रशंसक दिखाई नहीं देते? वे अपने शपथ ग्रहण समारोह में ध्यानचंद के बेटे को तो बुलाते हैं लेकिन फिर भी उन्हें क्यों ध्यानचंद के उसी बेटे का अपने पिता के सम्मान के लिए संघर्ष दिखाई नहीं देता?

या फिर ये कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खेल प्रेम महज़ दिखावा है और खेलों की लोकप्रियता भुनाकर अपने राजनीतिक हित साधना है! जिसके चलते वे केवल उन खेलों और खिलाड़ियों की उपलब्धि पर बात करते हैं जो वर्तमान में जनमानस में लोकप्रियता के शिखर पर हैं.

राष्ट्रीय स्तर के हॉकी कोच अजय बंसल कहते हैं, ‘कुछ समय पहले हमने दद्दा (मेजर ध्यानचंद) के लिए प्रदर्शन किया था. उस समय मैंने दद्दा के बेटे अशोक ध्यानचंद को कहा था कि हम अवॉर्ड क्यों मांग रहे हैं. उनकी शख़्सियत इतनी बड़ी है कि उन्हें तो यह सम्मान बिन मांगे ही मिल जाना चाहिए.’

बात सही भी है. सरकारी फाइलों में और इतिहास में जिस शख़्सियत को हम महान बताते हैं, आज उसे एक सम्मान दिलाने के लिए उसके परिजन नेताओं के आगे गिड़गिड़ाने पर मजबूर हैं.

ध्यानचंद की उपलब्धियां काफी होनी चाहिए थीं उन्हें यह सम्मान दिलाने के लिए. लेकिन इस संबंध में सरकारी उदासीनता एक सवाल को जन्म देती है कि क्या इस पूरे घटनाक्रम में ध्यानचंद का कद सरकार ने छोटा नहीं किया है? क्या यह मरणोपरांत उनका उपहास बनाने और उन्हें अपमानित करने जैसा नहीं है?

अशोक कुमार का भी यही दर्द कई मर्तबा सार्वजनिक मंचों पर भी छलका है. 2015 में ब्रिटिश संसद में मेजर ध्यानचंद को ‘भारत गौरव सम्मान’ से नवाज़ा जाना था. तब वे मीडिया से मुखातिब होते हुए बोले, ‘उन्हें ब्रिटिश संसद में सम्मानित किया जा रहा है. दुनिया उनके फन का लोहा मान रही है, लेकिन उन्हें अपने ही देश में उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.’

अंत में, उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान एक बार एक बात कही थी जो मेजर ध्यानचंद के संदर्भ में हमेशा सटीक मानी जाएगी. उन्होंने कहा था, ‘मेरे पिता भारत के पहले खेल सितारे थे और हमेशा रहेंगे. भले ही सरकार उन्हें ‘भारत रत्न’ सम्मान दे या न दे.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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