विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश भाजपा में ‘राजनीतिक अस्थिरता’ का संक्रमण शुरू हो गया, जिसके केंद्र में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं. भाजपा-आरएसएस के नेताओं के मंथन के बीच सवाल उठता है कि हाल के दिनों में ऐसा क्या हुआ कि उन्हें यूपी का रण जीतना उतना आसान नहीं दिख रहा, जितना समझा जा रहा था.
विधानसभा चुनाव के ठीक नौ महीने पहले कोविड की दूसरी लहर के उतरते-उतरते उत्तर प्रदेश भाजपा में ‘राजनीतिक अस्थिरता’ का संक्रमण शुरू हो गया, जिसके केंद्र में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं. योगी आदित्यनाथ की नेतृत्व क्षमता, प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठने लगे और कहा जाने लगा कि उनके नेतृत्व में भाजपा यूपी का चुनाव नहीं जीत पाएगी.
उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा तेज हो गई. लखनऊ और दिल्ली में भाजपा-आरएसएस के शीर्ष नेताओं के मिलन हुए, बैठकें हुई और आखिरकार योगी को भी दो दिवसीय दौरे पर दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष से ‘शिष्टाचार मुलाकात’ करनी पड़ी और ‘मार्गदर्शन प्राप्त’ करना पड़ा.
योगी आदित्यनाथ के दिल्ली जाने के एक दिन पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद भाजपा में शामिल हुए. भाजपा में शामिल होते ही उन्हें बड़े ब्राह्मण नेता के रूप में पेश किया जाने लगा.
दिल्ली और लखनऊ में हुई बैठकों और मुलाकतों का निचोड़ यह निकलकर आया है कि भाजपा और आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व इस बात को लेकर चिंतित है कि योगी आदित्यनाथ भाजपा विधायकों, सांसदों और मंत्रियों को साथ लेकर नहीं चल रहे हैं. वे सहयोगी दलों की भी उपेक्षा कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री के नजदीकी आईएएस अफसर एके शर्मा, जिन्हें दो वर्ष पहले रिटायर कर यूपी में एमएलसी बना कर भेजा गया, उन्हें यूपी कैबिनेट में मंत्री नहीं बनाया गया और उनसे मुख्यमंत्री ने मिलना तक पसंद नहीं किया. प्रदेश में नौकरशाही बुरी तरह हावी है और जनप्रतिनिधि हाशिये पर चले गए हैं.
कोविड की दूसरी लहर को थामने में मुख्यमंत्री बुरी तरह असफल रहे और श्मशान में जलती चिताएं, गंगा नदी में बहती लाशें व नदी किनारे दफन शवों की तस्वीरों वैश्विक मीडिया की सुर्खियां बनी. विधायक, सांसद और मंत्री पत्र लिखते रहे कि ऑक्सीजन, अस्पताल बेड की कमी से लोग मर रहे हैं और वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
कोविड की दूसरी लहर के बीच में हुए पंचायत चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई और बिना किसी तैयारी के चुनाव लड़ी सपा को अनपेक्षित रूप से बड़ी सफलता मिली. लखनऊ, अयोध्या, वाराणसी जैसे जगहों पर भी जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में भाजपा को बुरी हार का सामना करना पड़ा.
मीडिया और अपनी पार्टी के भीतर से आ रही आलोचनाओं से योगी आदित्यनाथ बेपरवाह बने रहे. उन्होंने प्रदेश का दौरा शुरू कर दिया और यह कहा जाने लगा कि उनकी सक्रियता और नीतियों ने कोविड की दूसरी लहर को नियंत्रित कर लिया.
मीडिया में विज्ञापनों, इंटरव्यू और ‘प्रायोजित खबरों’ के जरिये यह बताया गया कि ‘यूपी में सब ठीक है और योगी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने असाधारण उपलब्धियां’ हासिल की हैं, लेकिन इसके बावजूद प्रदेश में भाजपा संगठन और सरकार में बड़े बदलाव की चर्चा थमी नहीं बल्कि तेज होती गई.
भाजपा-आरएसएस के बीच इस मंथन से यह सवाल खड़ा हुआ कि आखिर हाल के दिनों में ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने यह पाया कि यूपी का रण जीतना उतना निरापद नहीं है जितना समझा जा रहा है?
बंगाल के चुनाव के परिणाम आने तक योगी आदित्यनाथ भाजपा के सबसे चहेते स्टार प्रचारकों में थे और उन्हें त्रिपुरा, केरल, तेलंगाना जैसे दक्षिण के राज्यों में भी सभाओं लिए भेजा जाता था जहां वे हिंदी में भाषण करते थे.
यह प्रचारित किया जाता था कि यूपी के बाहर भी वे बेहद लोकप्रिय हैं और उनकी सभाओं का असर होता है. बंगाल चुनाव में भी उन्होंने रैलियां की लेकिन बंगाल चुनाव का परिणाम और कोविड की दूसरी लहर ने सब कुछ जैसे बदलकर रख दिया. प्रधानमंत्री के भावी दावेदारों में गिने जाने वाले योगी आदित्यनाथ के बारे में यह चर्चा शुरू हो गई कि मार्च 2022 में होने वाले चुनाव में अपना गढ़ भी बचा पायेंगे या नहीं?
दरअसल बंगाल की हार ने भाजपा को करारा झटका दिया है. इससे उसका आत्मविश्वास हिल गया है. इसलिए यूपी में वह किसी तरह की चूक नहीं करना चाहती है. यही कारण है कि कोविड संक्रमण से जूझ रही जनता को राहत पहुंचाने में ताकत लगाने के बजाया उसने चुनावी तैयारी शुरू कर दी है.
भाजपा को पता है कि राज्यों के चुनाव में अक्सर उसे कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ा है. झारखंड में उसे सत्ता गंवानी पड़ी. बिहार में उसे किसी तरह मुश्किल लड़ाई में सफलता मिली और सरकार बन गई लेकिन वहां कमजोर सफलता के कारण ही भाजपा और जदयू में अंतर्विरोध बढ़ता जा रहा है. हरियाणा में भी उसे गठबंधन सरकार बनानी पड़ी है. असम में भाजपा जरूर वापसी करने में कामयाब हुई.
कोविड की दूसरी लहर को थामने में योगी सरकार की विफलता
यूपी सरकार कोविड की दूसरी लहर को थामने में बुरी तरह विफल रही है भले ही वह इसे नियंत्रित करने में अपनी सफलता का ढिंढोरा पीट रही है. योगी सरकार को कोविड की दूसरी लहर के आने और उसका सामना करने की कोई तैयारी नहीं थी.
यहां तक कि कोविड की पहली लहर के दौरान बने कोविड अस्पताल बंद कर दिए गए थे. अस्पताल बेड, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और चिकित्सक व पैरामेडिकल स्टाफ और दवाइयों का पहले से कोई इंतजाम नहीं थी. इसलिए जब कोविड की दूसरी लहर आई तो पूरा तंत्र असहाय बन गया.
गांवों से लेकर शहर तक कोई जगह कोविड की विनाशकारी मार से नहीं बची. कोविड के इलाज का जिम्मा निजी अस्पतालों को सौंप दिया गया, जहां लोगों को ढंग का इलाज भी नहीं मिला और वे शोषण के शिकार भी हुए.
प्रदेश सरकार प्रभावी कदम उठाने के बजाय अप्रैल माह में पंचायत चुनाव कराने में जुटी रही. पंचायत चुनाव कोविड संक्रमण के लिए सुपर स्प्रेडर साबित हुआ. तीन हजार से अधिक निर्वाचन कर्मियों की कोविड संक्रमण से मौत हो गई.
सरकार की पूरी ताकत कोविड से हुई मौतों को छुपाने में लगी रही. श्मशान में जलती चिताओं की तस्वीर लेने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया तोे गंगा की तटों पर दफनाए गए हजारों शवों को ‘पूर्व से चली आ रही परंपरा’ बताया गया.
पंचायत चुनाव में हार की टीस
पंचायत चुनाव में हार को भाजपा पचा नहीं पा रही है. बिहार चुनाव संपन्न होते ही पूर्व कृषि मंत्री राधामोहन सिंह को यूपी का प्रभारी बना दिया गया और उनकी अगुवाई में पंचायत चुनाव में सफलता की रणनीति बनने लगी. हर जिले में भाजपा ने जीत की रणनीति बनाई थी लेकिन इस रणनीति में एक चूक हो गई.
भाजपा ने तय किया कि जिला पंचायत सदस्य चुनाव में वह इस बार सांसद, विधायक, मंत्रियों के नजदीकियों और रिश्तेदारों को चुनाव में नहीं उतारेगी. वह कार्यकर्ताओं को प्रत्याशी बनाएगी. संगठन के लिहाज से यह ठीक निर्णय था लेकिन इसका दूसरा उल्टा परिणाम यह हुआ कि जिलों के सांसद, विधायकों, मंत्रियों व प्रभावशाली नेताओं ने जिला पंचायत चुनाव में रुचि नहीं ली और प्रत्याशियों को उनके भरोसे छोड़ दिया.
यही कारण है कि कई ऐसे जिले हैं जहां मंत्रियों के क्षेत्र में एक भी सीट भाजपा नहीं जीत पाई है. इसकी वजह से जिला पंचायत अध्यक्ष सीट पर कब्जा करने का मंसूबे पर भी पानी फिरता नजर आ रहा है.
पिछड़ी और दलित जातियों में कमजोर होती पकड़
अंदरखाने से छनकर आ रही खबरों के अनुसार, भाजपा और आरएसएस का मूल्यांकन है कि सिर्फ हिंदुत्व के एजेंडा से यूपी का बेड़ा पार नहीं होगा. पिछड़ी और दलित जातियों को भी उसी तरह अपने साथ रखना होगा जैसे विधानसभा चुनाव 2017 और लोकसभा चुनाव 2019 में किया गया था.
योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद वे पिछड़ी जातियां और दलित जातियां उपेक्षित महसूस करने लगीं जिन्होंने चुनाव में भाजपा का साथ दिया लेकिन उन्हें सरकार व संगठन में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला. ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जल्द ही सरकार से अलग हो गई.
अपना दल की अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री नहीं बनाया गया और प्रदेश में भी उनकी पार्टी की उपेक्षा हुई. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में साथ आई निषाद पार्टी भी सार्वजनिक रूप से बयान देने लगी कि उसे सरकार में प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा रहा है. भाजपा निषादों से किया गया वादा पूरा नहीं कर रही है. इनमें से कई दलों की सपा से बढ़ती नजदीकियां पर राजनीतिक गलियारे में चर्चा का विषय बनी हुई हैं.
इन छोटे दलों के साथ रिश्ते ठीक करने की पहल भाजपा ने शुरू भी कर दी है. योगी आदित्यनाथ के आने के पहले निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद और उनके सांसद पुत्र से गृह मंत्री अमित शाह ने मुलाकात की. अपना दल की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल से भी शाह की भेंट हुई.
दरअसल मुख्यमंत्री योगी इन राजनीतिक ताकतों को बहुत तवज्जो नहीं दे रहे थे क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी कट्टर हिंदुत्व नेता की छवि यूपी में आराम से भाजपा को फिर से सत्ता दिला देगी. इसलिए वे राजनीति के केंद्र में आ रही दलित व पिछड़ी जातियों के संगठन और उनके नेताओं को बहुत अहमियत नहीं देते रहे हैं.
याद करिए जब बसपा से निकले बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा में शामिल किया गया था तो इसका सबसे तीखा विरोध योगी आदित्यनाथ ने ही किया था. इसी तरह उनके ही इलाके में तेजी से उभर रही निषाद पार्टी को वे साथ लाने के बजाय उससे टकराव ही मोल ले लिया जिसका नतीजा रहा कि गोरखपुर की लोकसभा सीट पर 2018 में हुए उपचुनाव में भाजपा की हार हुई. एक साल बाद भाजपा नेतृत्व ने निषाद पार्टी की अहमियत समझी और उसे अपने साथ ले आई.
भाजपा विधायकों का असंतोष और नौकरशाही का वर्चस्व
योगी आदित्यनाथ पर एक आरोप यह भी है कि उनकी सरकार में नौकरशाही का वर्चस्व है और उसकी वजह से ही सरकार और संगठन में दूरी बढ़ती चली जा रही है. इसी कारण भाजपा विधाययों में अंसतोष बढ़ता जा रहा है जिसका विस्फोट नवंबर 2019 में विधानसभा के अंदर देखने को मिला जब 200 से अधिक विधायक धरने पर बैठ गए थे.
लखनऊ में मार्च 2021 के दूसरे पखवाड़े में प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति में बलिया जिले के पूर्व विधायक राम इकबाल सिंह ने किसानों के सवाल पर बोलते हुए अपनी सरकार को सवालों के घेरे में ला दिया. उन्होंने यहां तक कहा दिया थाने और तहसील भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं. उन्हें बोलने से रोकने की कोशिश हुई लेकिन वह नहीं रुके. उनके भाषण को हाल में मौजूद विधायकों, भाजपा नेताओं ने ताली बजाकर भरपूर समर्थन दिया.
नौकरशाही के वर्चस्व का आलम यह है कि अफसर सांसदों-विधायकों के फोन तक नहीं उठाते हैं, उनकी बात सुनना दूर है. निजी बातचीत में भाजपा विधायक अपनी इस असहायता को अक्सर रोना रोते हैं.
सीतापुर के भाजपा विधायक राकेश राठौर ने वायरल ऑडियो-वीडियो में अपना जो दर्द बयान किया है वह भाजपा के अधिकतर विधायकों की पीड़ा है.
किसान आंदोलन से उपजा डर
भाजपा-आरएसएस की चिंता किसान आंदोलन के उत्तर प्रदेश में पड़ने वाले प्रभाव को लेकर भी है. राकेश टिकैत को यूपी सरकार ने जिस तरह से गिरफ़्तार करने की कोशिश की उससे किसान आंदोलन में नई जान व ताकत आ गई. राकेश टिकैत पूरे देश के किसान नेता बन गए. इस घटना ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नई हलचल पैदा कर दी.
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा ने जाट और मुसलमानों में जो दूरी पैदा की थी, वह मिट गई और वे एक मंच पर आ गए. राष्ट्रीय लोक दल को भी किसान आंदोलन से नई ताकत मिली और उसने अपनी खोयी ताकत हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई बड़ी-बड़ी पंचायतों, भाजपा नेताओं के विरोध और जिला पंचायत चुनाव के परिणामों ने पुष्टि की है कि भाजपा को यहां 2014, 2017 और 2019 की सफलता को फिर से दोहरा पाना लोहा चबाने जैसा साबित होगा.
कोविड की दूसरी लहर के पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी किसान आंदोलन का विस्तार होने लगा था. बाराबंकी और बस्ती जिले के मुंडेरवा में नरेश टिकैत और बलिया जिले के मनियर में राकेश टिकैत की सभाओं में अच्छी-खासी संख्या में किसान जुटे.
इन सभाओं ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में विभिन्न किसान संगठनों को सक्रिय कर दिया और वे आपस में समन्वय बनाकर आगे बढ़ने लगे. कोविड की दूसरी लहर ने इस पर प्रयास को रोक दिया लेकिन स्थिति सामान्य होते ही किसान आंदोलन के तेज होने की संभावना है.
युवाओं, शिक्षकों-कर्मचारियों में बढ़ता असंतोष
किसानों के अलावा बेरोजगारी के सवाल को लेकर युवाओं और विभिन्न मांगों को लेकर शिक्षक व कर्मचारी संगठनों में काफी गुस्सा है. यह गुस्सा विभिन्न तरह के आंदोलनों में प्रकट होता रहा है.
इलाहाबाद में भर्ती परीक्षाओं में गड़बड़ी, भर्ती परीक्षाओं के रुके हुए परिणाम, आरक्षण घोटाले को लेकर लगातार आंदोलन होते रहे हैं. बेरोजगारी को लेकर चलने वाले आंदोलन का केंद्र इलाहाबाद रहा है और युवाओं ने इसे अपने दम पर यूपी का प्रमुख सवाल बनाने में सफलता हासिल की है.
हाल के दिनों में कई संगठन बेरोजगारी व युवाओं के मुद्दे पर सोशल मीडिया में सक्रिय रहे हैं और उन्हें अच्छा समर्थन मिला है. मुख्यमंत्री के जन्मदिवस को बेराजगार दिवस मनाने का आंदोलन भी सोशल मीडिया में टॉप ट्रेंड करता रहा.
पंचायत चुनाव में कोविड संक्रमण से बड़ी संख्या में शिक्षकों, कर्मचारियों की मौत ने भी इन तबकों में सरकार के खिलाफ आक्रोश तेज कर दिया है.
शिक्षक और कर्मचारी संगठन पहले से ही नई पेंशन व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन करते रहे हैं. हाल में ‘उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा अधिकरण विधेयक’को पास करने और उसको लागू करने के प्रयासों ने उनका गुस्सा और बढ़ा दिया है. शिक्षक संगठनों ने चेतावनी दी है कि इस विधेयक के खिलाफ वे किसान आंदोलन की तरह शिक्षक आंदोलन खड़ा करेंगे.
शिक्षक-कर्मचारी संगठन जानते हैं कि योगी सरकार ने चार वर्ष तक उनकी मांगों पर कार्रवाई करने की बात तो दूर उसे सुना तक नहीं है. शिक्षक-कर्मचारी संगठनों की आवाज दबाने के लिए लगातार तीन बार से एस्मा लागू किया जाता रहा है. इसलिए इस बार वे आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं.
संविदा कर्मियों-शिक्षा मित्र, आशा, एएनएम, आंगनबाड़ी अनुदेशक, मदरसा शिक्षक भी अपनी मांगें को लेकर सरकार पर दबाव बढ़ा रहे हैं. अब जबकि चुनाव में नौ महीने बचे हैं, उनकी मांगों को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल होगा जिसका खामियाजा उसे चुनाव में भुगतना पड़़ सकता है.
योगी चेहरा होंगे लेकिन बागडोर दिल्ली के हाथ में होगी
इन सभी स्थितियों का विश्लेषण भाजपा-आरएएसएस ने किया है और इसकी काट भी ढूंढने की कोशिश कर रही है. हालिया सियासी हचचल इसी चिंता और मंथन का परिणाम है.
भाजपा-आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व फिलहाल यूपी में नेतृत्व परिवर्तन का खतरा नहीं उठाना चाहता क्योंकि उसके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है और यह समय भी अब बड़े बदलाव के लिए उपयुक्त नहीं है.
दूसरा कारण यह है कि योगी आदित्यनाथ, त्रिवेंद्र सिंह रावत या सर्वानंद सोनेवाल नहीं हैं. उन्हें हटाए जाने से बड़ा नुकसान हो सकता है, भले ही वे बगावत के स्तर पर न जाएं जैसा कि वे अतीत में करते आए हैं. इसलिए लगता है कि फिलहाल असंतुष्ट भाजपा नेताओं और सहयोगी दलों को केंद्र और प्रदेश सरकार में जगह देकर उन्हें खुश किया जाएगा.
जितिन प्रसाद जैसे नेताओं को भाजपा में लाकर और संभवतः मंत्री पद देकर यह मैसेज दिया जाएगा कि भाजपा ब्राह्मणों की बड़ी हितैषी है. साथ ही यह तय हो गया है कि यूपी चुनाव में योगी आदित्यनाथ चेहरा जरूर होंगे लेकिन उन्हें खुली छूट भी नहीं होगी. चुनाव की पूरी बागडोर अमित शाह ही संभालेंगे.
हिंदू युवा वाहिनी का विलोप और योगी की भाजपा पर निर्भरता
योगी आदित्यनाथ को राजनीतिक करिअर 23 वर्ष का है. वह सबसे पहले 1998 में सांसद बने. वह लगातार पांच बार सांसद चुने गए. इस दौरान केंद्र और यूपी में भाजपा की सरकार रही लेकिन योगी को सरकार में जगह नहीं मिली. संगठन में भी उनको कोई ओहदा नहीं मिला.
योगी ने वर्ष 2000 में हिंदू युवा वाहिनी बनाई और इसके जरिये राजनीतिक कद आगे बढ़ाते गए. जब भाजपा ने उनकी बात नहीं मानी तो हिंदू युवा वाहिनी से उम्मीदवार उतार दिया. करीब दस वर्ष टकराव के बाद आखिरकार भाजपा ने मान लिया कि गोरखपुर और उसके आस-पास के जिलों में योगी आदित्यनाथ के पसंद के अनुसार टिकट दिए जाने लगे.
जब भाजपा में योगी आदित्यनाथ ने अपनी स्वीकार्यता बढ़ा ली, तो वर्ष 2017 के चुनाव में उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी को अपनी महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ा दी. नतीजा हुआ कि हिंदू युवा वाहिनी के बड़े नेता बगावत कर बाहर चले गए.
योगी के मुख्यमंत्री बनने के अब इस संगठन की हालत यह है कि इसके तमाम नेता या तो भाजपा में समायोजित हो गए हैं या उन्होंने अपनी दूसरी राह ढूंढ ली है. निष्क्रिय हो जाने वालों की तादाद ज्यादा है.
योगी को बतौर मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री लंबा कार्यकाल मिला. इसके पहले भाजपा सरकार में किसी मुख्यमंत्री को इतना बड़ा कार्यकाल नहीं मिला था. यह उनके लिए ऐसा मौका था जिसमें वे भाजपा संगठन में अपनी लोकप्रियता और पकड़ बढ़ा सकते थे. पूर्वी उत्तर प्रदेश के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश, बुदेलखंड जैसे इलाकों में भी अपने को स्थापित कर सकते थे लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके.
सचेत रूप से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें संगठन कार्यों से दूर रखा और खुद योगी ने भी संगठन में अपनी पकड़ मजबूत करने में ज्यादा रुचि नहीं दिखाई. योगी आदित्यनाथ ने पूरा ध्यान पूर्वी उत्तर प्रदेश वह भी गोरखपुर पर लगाए रखा. लगभर हर पखवाड़े वह गोरखपुर में नजर आते रहे.
योगी अपने पूरे कार्यकाल में चंद नौकरशाहों पर पूरी तरह निर्भर रहे. नौकरशाहों ने मीडिया मैनेजमेंट कर उन्हें मीडिया में सुर्खियां तो दी लेकिन उन्हें भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं, विधायकों, सांसदों व अपने लोगों से दूर कर दिया. नौकरशाही ने अपने फायदे के लिए उन्हें जमीन की सच्चाई से दूर रखा.
अपनी हर आलोचना को, चाहे व बाहर से आ रही हो या अंदर से, योगी आदित्यनाथ ने उसका दमन किया. यही कारण है कि जनता में उनकी साख तो गिरी ही है, संगठन और सरकार में भी उनके समर्थक कम होते गए. हिंदू युवा वाहिनी के ‘विलोप’ ने उन्हें भाजपा पर ‘निर्भर’ बना दिया.
जाहिर है कि चुनाव बाद नतीजे चाहे भाजपा के पक्ष में आए या खिलाफ, दोनों परिस्थितियों में योगी के राजनीतिक जीवन को एक नया मोड़ मिलेगा, यह निश्चित है.
योगी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से मोदी-शाह भी बखूबी परिचित हैं. इसलिए यूपी चुनाव की तैयारियों के बहाने सचेत रूप से यूपी में नेतृत्व बदलाव की चर्चा को हवा दी गई.
इस प्रकरण से योगी की ‘न झुकने वाली विद्रोही छवि’ को जबर्दस्त धक्का लगा बल्कि यूं कहे कि पहुंचाया गया. ‘दिल्ली’ ने उन्हें एहसास दिला दिया कि ‘दिल्ली’ अभी उनके लिए काफी दूर है और ‘लखनऊ’ में ही वे निरापद नहीं है.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)