विधानसभा चुनाव से कुछ महीनों पहले बसपा ने शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनावी मैदान में उतरने का निर्णय लिया है. बीते कई चुनावों में बसपा के प्रदर्शन और बसपा सुप्रीमो मायावती के अप्रत्याशित फैसलों के आलोक में राजनीतिक जानकार इस गठबंधन को लेकर ज़्यादा आशांवित नहीं हैं.
अगले साल के विधानसभा चुनावों के सिलसिले में उत्तर प्रदेश में किसी भी दल से गठबंधन करने से इनकार करती आ रही मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने रविवार को पंजाब में एक बार फिर शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनाव मैदान में जाने का फैसला किया तो कई लोगों को गत लोकसभा चुनाव में उसके द्वारा समाजवादी पार्टी से दोबारा किए गए गठबंधन की याद आई, जिसमें उसे 2014 के लोकसभा चुनाव के शून्य के मुकाबले ग्यारह सीटों का फायदा हुआ था, जबकि समाजवादी पार्टी पांच सीटों पर ही सिमटी रह गई थी.
हम जानते हैं कि इसके बावजूद मायावती ने पहला मौका हाथ आते ही वह गठबंधन तोड़ डाला था, और तभी से वे इस ‘तर्क’ के आधार पर किसी नये गठबंधन से इनकार करती आ रही हैं कि ऐसे गठबंधनों से बसपा को कोई लाभ नहीं होता. कारण यह कि वह तो अपने वोट जिसे चाहे ट्रांसफर करा देती है, लेकिन सहयोगी दल उसे अपने वोट नहीं दिलवा पाते.
अब उनसे पूछा जा सकता है कि क्या उनका यह तर्क सिर्फ उत्तर प्रदेश के लिए है? अगर नहीं तो क्या वे एक बार फिर बसपा का नुकसान कराने के लिए शिरोमणि अकाली दल से दोबारा गठबंधन कर रही हैं? अगर हां, फिर वह किस उम्मीद के सहारे यह ऐलान कर रही है कि शिरोमणि अकाली दल से मिलकर वह पंजाब को कांग्रेसी कुशासन के भ्रष्टाचार व घोटालों से मुक्त करा देगी?
फिलहाल, अब यह एक खुला हुआ तथ्य है कि बसपा इन दिनों अपनी मुख्य आधार भूमि उत्तर प्रदेश तक में ढलान पर है. देश के इस सबसे बड़े राज्य के 2007 के विधानसभा चुनाव में पूरे बहुमत से सत्ता में आने के बाद उसने ‘यूपी हुई हमारी है, अब दिल्ली की बारी है’ जैसे मंसूबे बांध लिए थे. लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में एंटी-इनकंबेंसी की शिकार होकर उसकी सरकार सत्ता से बाहर क्या गई, उसे सपनों तक से महरूम कर गई.
कई प्रेक्षक कहते हैं कि उसने इस तरह अपने सपने तब भी नहीं खोये थे, जब ‘कांशीराम की नेक कमाई, मायावती ने बेच खाई’ जैसी तोहमतें झेल रही थी. लेकिन बीती शताब्दी के आखिरी दशक में गढ़े गए अपने पलटीमार सिद्धांत के तहत राजनीति करती-करती अब वह इतनी संदिग्ध हो चली है कि उन बहुजनों, जिनके हित में सारे अवसरों के उपयोग के लिए उसने पलटीमार राजनीति का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, तक को भी यह समझने में कठिनाई होती है कि वह अपने लिए कब कौन-सा पक्ष या विपक्ष चुन लेगी या सुप्रीमो मायावती कब, किस नेता से नाराज होकर उसे पार्टी से निकाल बाहर करेंगी.
फिलहाल, उन्होंने पार्टी विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और विधायक रामअचल राजभर को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. ये दोनों ही बसपा के गढ़ माने जाने वाले अंबेडकरनगर जिले के हैं और पार्टी के संस्थापक कांशीराम के वक्त से ही उसकी नींव की ईंट माने जाते रहे हैं.
अब वे अपने क्षेत्रों में उसके खिलाफ शक्तिप्रदर्शन कर रहे हैं तो याद किया जा सकता है कि ‘यूपी हुई हमारी है’ के दिनों में मायावती देश के दूसरे प्रदेशों में बसपा की जमीन तलाशने का कोई भी मौका नहीं गंवाती थीं. लेकिन न उन्हें वहां जमीन तलाशने में सफलता मिली और न वे उत्तर प्रदेश की सत्ता पर ही अपना कब्जा बनाए रख पाईं.
तबसे अब तक लगातार कई चुनावी शिकस्तों के चलते ज्यादातर लोग उसे व्यवस्था परिवर्तन तो क्या, जो कभी उसका नारा हुआ करता था, राजनीतिक परिवर्तन की वाहक भी नहीं मानते.
आश्चर्य नहीं कि पंजाब के लिए उसके गठबंधन के ऐलान के बाद प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट इरफान ने अपने एक कार्टून में उसकी सुप्रीमो मायावती को सुखबीर सिंह बादल से यह कहती हुई दिखाया कि ले जाइये, शायद हमारा हाथी आपके ही काम आ जाए, यहां उत्तर प्रदेश में तो यूं ही जंजीरों में बंधा खड़ा रहता है. जानना चाहिए कि हाथी बसपा का चुनाव चिह्न है, जिसे अपनी एक पलटी के समय वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश और गणेश तक बना चुकी हैं.
यह विश्वास करने के कारण हैं कि अपने हाथी के उत्तर प्रदेश में इस तरह बंध जाने के ही कारण मायावती ने पंजाब के गठबंधन में बेहद जूनियर पार्टनर होना स्वीकार किया है. इस पार्टनरशिप में बसपा 117 विधानसभा सीटों में से महज बीस पर किस्मत आजमाएगी, शेष 97 पर शिरोमणि अकाली दल लड़ेगा.
प्रसंगवश, उत्तर प्रदेश के 23-24 प्रतिशत के मुकाबले पंजाब में दलितों की 32 प्रतिशत आबादी है और वह कांशीराम की जन्मस्थली भी है. ऐसे में मायावती ‘दलित की बेटी’ या दलितों की सबसे बड़ी नेता की अपनी छवि बचाकर रख पाई होतीं तो वे कभी इस गठबंधन को कुबूल नहीं करतीं. लेकिन अब ‘हारे को हरिनाम’ के हालात में वे करें भी तो क्या?
उन्हें मालूम है कि पंजाब के दलित मतदाता उनकी बसपा को अपनी एकमात्र राजनीतिक पहचान के रूप में देखते ही नहीं. इसलिए अब तक वह वहां दो बार ही प्रभावी चुनावी प्रदर्शन कर पाई है.
1992 के विधानसभा चुनाव में उसने विधानसभा की नौ सीटें जीती थीं और 1996 में अकाली दल से गठबंधन कर लड़ने के बाद लोकसभा की तीन सीटें. उसके बाद से वह राज्य के दलित मतदाताओं की विश्वासभाजन बनने को तरसती ही आई है.
ऐसे में सवाल मौजूं है कि वह शिरोमणि अकाली दल को अपने कौन से वोट ट्रांसफर करके जीत दिला देगी? खासकर जब भाजपा ने, भले ही शिरोमणि अकाली दल के बिना उसे राज्य में बड़ी ताकत नहीं माना जाता, दलित को मुख्यमंत्री बनाने का शिगूफा छेड़ रखा है और अकाली दल के दलित उपमुख्यमंत्री बनाने के वायदे की काट के लिए कांग्रेस भी मतदाताओं से वैसा ही वादा कर रही है.
शिरोमणि अकाली दल को भी बसपा से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं होगी कि वह किसानों के मुद्दे पर भाजपा से उसके अलगाव से हुए नुकसान की भरपाई कर दे. लेकिन अभी तो हालत यह है कि प्रेक्षक इस गठबंधन की उम्र को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं और बसपा व शिरोमणि अकाली दल दोनों को अपने मतदाताओं को यकीन दिलाना पड़ रहा है कि उनका तलाक नहीं होगा.
उनके यह यकीन दिला पाना इस कारण बहुत मुश्किल है कि हरियाणा का घटनाक्रम ज्यादा पुराना नहीं हुआ है, जहां बसपा ने कमोबेश उसी रफ्तार से साझीदार बदले थे, जिस रफ्तार से फैशन शो में परिधान बदले जाते हैं.
कह सकते हैं कि पंजाब की राजनीतिक हवा उत्तर प्रदेश जैसी नहीं है. वहां सत्तारूढ़ कांग्रेस जबरदस्त अंतर्कलह में उलझी है तो मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी और भाजपा को अभी अपनी चुनावी रणनीति तय करनी है. ऐसे में कई बार राज्य की सत्ता संभाल चुके शिरोमणि अकाली दल ने गठबंधन का ऐलान कर उन पर प्राथमिक बढ़त तो हासिल ही कर ली है.
प्रेक्षकों के अनुसार, शिरोमणि अकाली दल के भाजपा कहें या राजग से अलगाव के बाद राज्य के विधानसभा चुनाव में चतुष्कोणीय मुकाबलों की जो उम्मीद की जा रही थी, इस नये गठबंधन से बदलकर त्रिकोणीय हो सकती है और भाजपा की उपस्थिति कुछ शहरी सीटों तक सिमट सकती है. यानी चुनाव नतीजे अप्रत्याशित भी हो सकते हैं.
वैसे पंजाब में प्रायः हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन की परंपरा है. अकाली-भाजपा गठबंधन ने 2012 में इस परंपरा को तोड़कर लगातार दूसरा जनादेश पा लिया था. लेकिन पिछले चुनाव में वह खुद को एंटी-इनकंबेंसी से नहीं ही बचा सका.
सवाल है कि क्या इस बार कांग्रेस खुद को उससे बचा पाएगी, जब खुद कांग्रेस में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विरुद्ध असंतोष मुखर है? अगर नहीं तो चुनाव नतीजे इस पर निर्भर करेंगे कि उससे निराश मतदाता किस दल और नेता में विश्वास जताते हैं?
आम आदमी पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में चमत्कारिक प्रदर्शन किया था, लेकिन उसके बाद से लगातार अंतर्कलह से उसने अपनी साख गंवाई ही है और भाजपा की तरह उसके पास भी प्रभावशाली नेता का अभाव है.
ऐसे में कई प्रेक्षक यह भी कह रहे हैं कि चुनावी मुकाबला कहीं सीधा होकर कांग्रेस व शिरोमणि अकाली दल के बीच सिमट गया और त्रिशंकु विधानसभा की उम्मीद खत्म हो गई तो मायावती व बसपा नतीजे आने से पहले ही नाउम्मीद हो जाएंगे, क्योंकि जितना मजा उन्हें उन्हें ‘किंग’ या ‘किंगमेकर’ बनने में आता है, किसी और चीज में नहीं आता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)