मह़ज शासक को बदलने का अधिकार निरंकुशता के ख़िलाफ़ सुरक्षा नहीं देता: मुख्य न्यायाधीश

17वें जस्टिस पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान को संबोधित करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि आज़ादी के बाद से हुए 17 आम चुनावों में जनता ने अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभाया है, अब सत्ता को ये साबित करना है कि वे संवैधानिक जनादेश पर खरी उतर रही है.

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जस्टिस एनवी रमन्ना. (फोटो: पीटीआई)

17वें जस्टिस पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान को संबोधित करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा कि आज़ादी के बाद से हुए 17 आम चुनावों में जनता ने अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभाया है, अब सत्ता को ये साबित करना है कि वे संवैधानिक जनादेश पर खरी उतर रही है.

जस्टिस एनवी रमन्ना. (फोटो: पीटीआई)
जस्टिस एनवी रमन्ना. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने कहा है कि महज शासक को बदलने का अधिकार निरंकुशता के खिलाफ सुरक्षा नहीं देता है.

एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कानूनविद् जुलियस स्टोन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि ‘चुनाव, राजनीतिक माहौल, आलोचना और विरोध की आवाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं.’

उन्होंने कहा कि जज जमीनी हकीकतों को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. हालांकि इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि हमें इस बात को लेकर सतर्क रहना चाहिए कि जो सोशल मीडिया पर चल रहा है, जरूरी नहीं कि वो सही ही हो.

सीजेआई ने बीते बुधवार को ‘17वें जस्टिस पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान’ को डिजिटल तरीके से संबोधित करते हुए यह बात कही.

उन्होंने कहा कि आजादी के बाद से हुए 17 आम चुनावों में जनता ने अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है, अब सत्ता के विभिन्न अंगों पर बैठे लोगों की जिम्मेदारी है कि वे ये साबित करके दिखाएं कि वे संवैधानिक मानकों के अनुसार कार्य कर रहे हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘ये माना जाता रहा है कि कुछ सालों में शासक को बदल देने का अधिकार अपने आप में निरंकुशता के खिलाफ सुरक्षा नहीं प्रदान करता है. यह विचार कि जनता परम संप्रभु है, मानवीय गरिमा और स्वायत्तता की धारणाओं में भी पाए जाते हैं. सार्वजनिक विचार-विमर्श, जो तर्कसंगत और उचित दोनों हो, को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए यह एक सार्थक लोकतंत्र के लिए आवश्यक है.’

सीजेआई रमना ने कहा कि न्यायपालिका को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, विधायिका या कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, वरना ‘कानून का शासन’ भ्रामक हो जाएगा. उन्होंने साथ ही न्यायाधीशों को सोशल मीडिया के प्रभाव के खिलाफ आगाह किया.

जस्टिस रमना ने कहा, ‘नए मीडिया उपकरण जिनमें किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर बताए जाने की क्षमता हैं, लेकिन वे सही और गलत, अच्छे और बुरे और असली तथा नकली के बीच अंतर करने में असमर्थ हैं. इसलिए ‘मीडिया ट्रायल’ मामलों को तय करने में मार्गदर्शक कारक नहीं हो सकते.’

उन्होंने कहा, ‘अगर न्यायपालिका को सरकार के कामकाज पर निगाह रखनी है तो उसे अपना काम करने की पूरी आजादी की जरूरत होगी. न्यायपालिका को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, विधायिका या कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, वरना ‘कानून का शासन’ भ्रामक हो जाएगा.’

उन्होंने कहा, ‘साथ ही न्यायाधीशों को भी सोशल मीडिया मंचों पर जनता द्वारा व्यक्त की जाने वाली भावनात्मक राय से प्रभावित नहीं होना चाहिए.’

एनवी रमाना ने कहा कि न्यायाधीशों को इस तथ्य से सावधान रहना होगा कि इस प्रकार बढ़ा हुआ शोर जरूरी नहीं कि जो सही है उसे प्रतिबिंबित करता हो.

उन्होंने कहा, ‘कार्यपालिका के दबाव के बारे में बहुत चर्चा होती है, एक चर्चा यह शुरू करना भी अनिवार्य है कि कैसे सोशल मीडिया के रुझान संस्थानों को प्रभावित कर सकते हैं.’

कोविड-19 महामारी के कारण पूरी दुनिया के सामने आ रहे ‘अभूतपूर्व संकट’ को देखते हुए सीजेआई ने कहा, ‘हमें आवश्यक रूप से रुक कर खुद से पूछना होगा कि हमने हमारे लोगों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ‘कानून के शासन’ का किस हद तक इस्तेमाल किया है.’

उन्होंने कहा, ‘मुझे लगने लगा था कि आने वाले दशकों में यह महामारी अभी और भी बड़े संकटों को सामने ला सकती है. निश्चित रूप से हमें कम से कम यह विश्लेषण करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए कि हमने क्या सही किया और कहां गलत किया.’

कानून के शासन के चार सिद्धांतों पर जोर देते हुए सीजेआई ने कहा कि पहले सिद्धांत के तहत ‘कानून स्पष्ट और सुलभ होने चाहिए’.

जज ने कहा, ‘यह मूलभूत बिंदु है कि जब कानूनों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है, तो लोगों को कम से कम यह पता होना चाहिए कि कानून क्या हैं. इसलिए कानून गुप्त नहीं हो सकते, क्योंकि कानून समाज के लिए होते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘इस सिद्धांत का एक और निहितार्थ यह है कि उन्हें सरल, स्पष्ट भाषा में लिखा जाना चाहिए.’

तीसरे सिद्धांत का उल्लेख करते हुए, जो कानून के शासन का मार्गदर्शन करता है, उन्होंने ने कहा कि कानूनों के निर्माण और इसके सुधार में लोगों को भाग लेने का अधिकार होना चाहिए.

मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘हम लोकतंत्र में रहते हैं. लोकतंत्र का सार ही यह है कि उसके नागरिकों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन कानूनों में भूमिका निभानी होती है, जो उन्हें नियंत्रित करते हैं. भारत में यह चुनावों के माध्यम से किया जाता है, जहां लोगों को संसद का हिस्सा बनने वाले लोगों का चुनाव करने के लिए अपने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का प्रयोग करने का अधिकार मिलता है. अब तक हुए 17 आम चुनावों में, लोगों ने सत्ताधारी दल को बदल बदला है.’

सीजेआई एनवी रमना ने कहा, ‘बड़े पैमाने पर असमानताओं, अशिक्षा, पिछड़ेपन, गरीबी और कथित अज्ञानता के बावजूद स्वतंत्र भारत के लोगों ने खुद को बुद्धिमान साबित किया है. जनता ने अपने कर्तव्यों का बखूबी निर्वहन किया है. अब उन लोगों की बारी है जो राज्य के प्रमुख अंगों का संचालन कर रहे हैं, यह विचार करने के लिए कि क्या वे संवैधानिक जनादेश पर खरा उतर रहे हैं.’

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