सुप्रीम कोर्ट पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य राणाजीत मुखर्जी की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिन्होंने अयोग्य क़रार देने संबंधी याचिकाओं के समय पर निस्तारण की मांग की थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते गुरुवार को कहा कि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत सदन के अध्यक्ष द्वारा अयोग्य करार देने संबंधी याचिकाओं के समय पर निस्तारण के लिए कानून बनाने की जिम्मेदारी विधायिका की है.
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की पीठ ने कहा, ‘हम कानून कैसे बना सकते हैं? यह संसद का मामला है.’
न्यायालय पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य राणाजीत मुखर्जी की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिन्होंने अयोग्य करार देने संबंधी याचिकाओं के समय पर निस्तारण के लिए अध्यक्षों के वास्ते दिशानिर्देश बनाने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया था.
सुनवाई के दौरान वकील अभिषेक जेबराज ने कहा कि निर्धारित समय सीमा के तहत अयोग्य करार देने संबंधी याचिकाओं पर फैसला देने के लिए दिशा निर्देश बनाने के वास्ते याचिका दायर की गयी है.
उन्होंने कहा, ‘हम चाहते हैं कि एक निर्धारित समय सीमा तय की जाए क्योंकि अध्यक्ष अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला नहीं दे रहे हैं और दसवीं अनुसूची के तहत समय रहते फैसले नहीं ले रहे हैं.’
इस पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘मैंने कर्नाटक विधायक मामले में पहले ही अपनी राय दे दी है. उस मामले में भी यह मुद्दा उठा था और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भी इसी पर अपनी दलीलें रखी थीं. हमने संसद पर यह फैसला छोड़ दिया था.’
पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा कि क्या उन्होंने फैसला पढ़ा है. इस पर जेबराज ने कहा कि उन्होंने फैसला नहीं पढ़ा है.
पीठ ने कहा, ‘आप फैसला पढ़िए और फिर वापस आइए. हम दो हफ्तों के बाद मामले पर सुनवाई करेंगे.’
शीर्ष अदालत ने विधायकों की अयोग्यता के मुद्दे पर सुनवाई करते हुए 13 नवंबर 2019 को कहा था कि अध्यक्ष के पास यह बताने की शक्ति नहीं होती कि कोई विधायक कब तक अयोग्य करार रहेगा या उसे चुनाव लड़ने से रोकने की शक्ति नहीं होती.
सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष केआर रमेश कुमार द्वारा 15वीं विधानसभा के कार्यकाल के अंत तक 17 विधायकों को अयोग्य घोषित करने के फैसले का जिक्र कर रहा था.
वैसे तो शीर्ष अदालत ने अयोग्यता को बरकरार रखा था, लेकिन साथ ही यह भी कहा था, ‘ यह स्पष्ट है कि अध्यक्ष को दसवीं अनुसूची के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए किसी व्यक्ति को अयोग्य घोषित करने की अवधि को इंगित करने या किसी को चुनाव लड़ने से रोकने की शक्ति नहीं दी गई है.’
शीर्ष अदालत ने कहा था कि लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक विचारों के बीच संतुलन बनाए रखने में अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, लेकिन अब ये बहुतायत में हो रहा है कि ‘अध्यक्ष तटस्थ होने के संवैधानिक कर्तव्य के खिलाफ काम करने लगे हैं.’
न्यायालय ने कहा था कि अध्यक्ष को सौंपी गई संवैधानिक जिम्मेदारी का ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए और उनके राजनीतिक जुड़ाव फैसले के रास्ते में आड़े नहीं आ सकते हैं.
कोर्ट ने यह भी कहा था कि राजनीतिक दल खरीद-फरोख्त और भ्रष्ट आचरण में लिप्त पाए जा रहे हैं, जिसके कारण नागरिकों को स्थिर सरकारों से वंचित किया जाता है.
इन बातों को संज्ञान में लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘इन परिस्थितियों में, संसद को दसवीं अनुसूची के कुछ पहलुओं को मजबूत करने पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है, ताकि ऐसी अलोकतांत्रिक प्रथाओं को हतोत्साहित किया जा सके.’
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)