उत्तर प्रदेश: ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा की जीत का हासिल क्या है

ज़िला पंचायत चुनाव में मिली विजय पर फूली न समा रही भाजपा भूल रही है कि ज़िला पंचायत अध्यक्षों के अप्रत्यक्ष चुनाव में जीत किसी भी अन्य अप्रत्यक्ष चुनावों की तरह किसी पार्टी की ज़मीनी पकड़ या लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती. कई बार तो संबंधित पार्टी को इससे मनोवैज्ञानिक बढ़त तक नहीं मिल पाती.

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह. (फोटो साभार: ट्विटर/@@swatantrabjp)

ज़िला पंचायत चुनाव में मिली विजय पर फूली न समा रही भाजपा भूल रही है कि ज़िला पंचायत अध्यक्षों के अप्रत्यक्ष चुनाव में जीत किसी भी अन्य अप्रत्यक्ष चुनावों की तरह किसी पार्टी की ज़मीनी पकड़ या लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती. कई बार तो संबंधित पार्टी को इससे मनोवैज्ञानिक बढ़त तक नहीं मिल पाती.

जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में जीत के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बधाई देते भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह. (फोटो साभार: ट्विटर/@@swatantrabjp)

उत्तर प्रदेश में शनिवार को हुए जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कुल 75 में से 67 सीटें जीत ली हैं. उसने उन जिलों में भी अपने प्रतिद्वंद्वियों का कस बल नहीं चलने दिया है, जहां इस चुनाव के वोटरों यानी जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में उसको सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थीं. उन जिलों में भी, जहां उसे सिर्फ 12 फीसदी वोट मिले थे.

ज्ञातव्य है कि हाल में ही संपन्न पंचायतों के त्रिस्तरीय चुनाव में जिला पंचायत सदस्यों की लगभग 3,000 सीटों में से भाजपा को मात्र 580 यानी महज 25 प्रतिशत सीटें मिली थीं, जबकि 782 सीटें पाकर समाजवादी पार्टी प्रथम स्थान पर रही थी. कांग्रेस को 61 तथा बसपा को 361 सीटें मिली थीं और 1266 सीटों पर अन्य दल व निर्दलीय जीते थे.

उस करारी शिकस्त के बावजूद भाजपा ने जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में अपना परचम फहरा दिया है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस चमत्कार का श्रेय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतियों को दे रहे हैं, तो मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को.

यह ओर बात है कि कई जानकार इस चुनाव को चुनाव से ज्यादा जिला पंचायतों पर भाजपा के कब्जे के ऐसे अभियान के रूप में देख रहे हैं, जिसमें अनैतिकताओं की सारी हदें पार कर दी गईं. कैसे?

जानकार कहते हैं कि इससे वाकिफ होने के लिए इतना भर जानना पर्याप्त है कि वोटों की खरीद-फरोख्त के क्रम में एक-एक जिला पंचायत सदस्य के वोट की कीमत पचास लाख तक पहुंचा दी गई और जहां महज खरीद-फरोख्त से काम नहीं चला, वहां सत्ता की हनक और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के भी नाना दांव आजमाए गए.

कई जिलों में विपक्षी प्रत्याशियों को नामांकन ही नहीं करने दिया गया, जबकि कई में उनके प्रस्तावकों व मतदाताओं के उत्पीड़न की कोई सीमा नहीं रहने दी गई.

भाजपा की परंपरागत प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी ने इस चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही उसकी शुचिता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे, जबकि बहुजन समाज पार्टी ने खुद को चुनाव मैदान से ही हटा लिया था.

उसकी सुप्रीमो मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं से इस चुनाव में ताकत जाया करने के बजाय विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लग जाने को कहा तो अपनी बात में यह भी जोड़ा था कि वोटों की खरीद-फरोख्त और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग से परे यह चुनाव ईमानदारी से लड़ा जाता तो उनकी पार्टी इसे जरूर लड़ती.

लेकिन कैसे लड़ा जाता? प्रदेश में दूसरे अप्रत्यक्ष चुनावों की तरह इस चुनाव की शुचिता का हाल भी बुरा ही रहता आया है. इसे यूं समझ सकते हैं कि आज इसमें भाजपा द्वारा सत्ताबल की हनक और धनबल की खनक के अमर्यादित इस्तेमाल का रोना रो रही बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी, जो 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार आने से पहले बारी-बारी से प्रदेश की सत्ता संभाल चुकी हैं, अपनी बारी पर उसके जैसे ही हथकंडे अपनाती रही हैं.

सत्ता में रहते उन्होंने भी इस चुनाव में सत्ता व धन का वैसा ही बदनीयत इस्तेमाल करके सफलता पाई थी, जैसे इस बार भाजपा ने. उन्होंने ऐसा नहीं किया होता और सत्ता में रहते इस चुनाव की पवित्रता की रक्षा को लेकर गंभीर रही होतीं, तो आज उनका रोना इस कदर अरण्यरोदन में न बदलता.

मिसाल के तौर पर दिसंबर 2010 में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए तो प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार थी. तब सत्ता की ऐसी ही हनक व पैसों की खनक के सहारे बसपा ने जिला पंचायत अध्यक्षों के 71पदों में से 55 जीत लिए थे. तक उसके 23 प्रत्याशी निर्विरोध जीत गए थे, जबकि इस बार भाजपा के 21 ही निर्विरोध जीते हैं. तब सपा को 10, राष्ट्रीय लोकदल को 2, कांग्रेस को 2, भाजपा को एक पद हासिल हुआ था. एक अन्य पद निर्दलीय के खाते में गया था.

इसी तरह समाजवादी पार्टी की अखिलेश सरकार के दौरान सात जनवरी 2016 को जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव हुए, तो सपा ने 74 अध्यक्ष पदों में से 60 जीत लिए. इनमें 36 पर उसने निर्विरोध जीत हासिल की थी. एक माह बाद हुए ब्लॉक प्रमुखों के चुनाव में भी कुल 816 सीटों में से सपा ने 623 सीटें जीत ली थीं, जिनमें 385 पर वह निर्विरोध जीती थी. बसपा को 47, भाजपा 34, कांग्रेस को 10 ब्लॉक प्रमुख सीटें मिली थीं.

इसीलिए कई प्रेक्षक कहते हैं कि चुनावों में अनैतिक प्रतिद्वंद्विता की आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है. जो पार्टियां विपक्ष में रहती हैं, वे इस पर हो-ल्ला जरूर मचाती हैं, लेकिन सत्ता में आईं नहीं कि सब कुछ भूलकर अनैतिकताओं की ताईद करने लग जाती हैं.

इसके चलते प्रदेश ने कई बार राज्यसभा के चुनावों में, जो जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव की ही तरह अप्रत्यक्ष होते हैं, धनबल का भरपूर डंका बजते देखा है, तो उसमें भाजपा के साथ ही इन दोनों और अन्य भाजपा विरोधी पार्टियों की भी कुछ कम भूमिका नहीं है.

इसलिए प्रेक्षक फिलहाल इस पर चकित नहीं हैं कि भाजपा ने इस चुनाव में अनैतिकताओं के नये मानदंड स्थापित कर दिए. वे चकित हैं कि इस तरह परचम फहराकर वह इस कदर फूली-फूली क्यों फिर रही है?

अगर वह यह साबित करने के फेर में है कि पंचायतों के त्रिस्तरीय चुनाव में उसकी शिकस्त से प्रदेश में उसकी अलोकप्रियता के जो निष्कर्ष निकाले जा रहे थे, वे सही नहीं हैं तो भूल रही है कि जिला पंचायत अध्यक्षों के अप्रत्यक्ष चुनाव में जीत दूसरे अप्रत्यक्ष चुनावों की जीत ही तरह किसी पार्टी की जमीनी पकड़ या लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती. कई बार तो संबंधित पार्टी को इससे मनोवैज्ञानिक बढ़त भी नहीं मिल पाती.

उदाहरण के तौर पर, 2010 में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में अभूतपूर्व जीत हासिल करने वाली बसपा 2012 के विधानसभा चुनाव में अपनी मायावती सरकार नहीं बचा पाई थी. विधानसभा सीटों के लिहाज से वह तीन अंकों तक भी नहीं पहुंच सकी थी, 80 पर सिमट गई थी और सपा ने उसकी कलाइयां मरोड़कर पूर्ण बहुमत पा लिया था.

इसी तरह 2016 के जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में सपा की धमाकेदार जीत के बाद फरवरी, 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तीन चौथाई सीटें झटक ली थीं और सपा मात्र 47 सीटों पर सिमट गई थी.

दरअसल, जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में प्रत्येक जनपद में 40 से 80 के बीच जिला पंचायत सदस्य ही वोट देते हैं. चूंकि वे किसी पार्टी के चुनाव चिह्न पर निर्वाचित नहीं होते और न उन पर पार्टी ह्विप लागू होता है, इसलिए उनमें से अधिकांश लोभ-लालच दिए जाने पर दलीय निष्ठा छोड़ देते हैं और आसानी से मैनेज हो जाते हैं. लेकिन विधानसभा के चुनाव में किसी के लिए भी ऐसा करना संभव नहीं होता.

बहरहाल, इस सिलसिले में बसपा सुप्रीमो मायावती ने पिछले दिनों एक बड़ी ही पते की बात कही थी. यह कि जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में जो भी पार्टी और जैसे भी जीते, बसपा कार्यकर्ताओं को उसे लेकर बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि प्रदेश में बसपा की सरकार बनते ही ये सबके सब उसके शरणागत हो जाएंगे. कई लोग इसे प्रदेश की राजनीति की जमीनी हकीकत की कुरूपता से जोड़कर देख रहे हैं तो कई नीतिगत विपक्ष की गैरहाजिरी से जोड़कर.

लेकिन शायद यही समय है, जब हमें यह सोचना भी शुरू कर देना चाहिए कि प्रदेश में राजीव गांधी द्वारा अपने प्रधानमंत्रीकाल में प्रवर्तित पंचायती राज ने उस दौर के बाद कितनी मंजिलें तय कर ली हैं, जिसकी बाबत जनकवि अदम गोंडवी अरसा पहले लिख गए हैं: जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में, परधान बन के आ गए अगली कतार में.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)