मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी केन-बेतवा लिंक परियोजना के तहत मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले में 10 गांवों को विस्थापित किया जाना है. ग्रामीणों का कहना है कि पहले से ही तमाम बुनियादी सुविधाओं के बिना चल रही उनकी ज़िंदगी को यह प्रोजेक्ट यातनागृह में तब्दील कर देगा. उन्हें यह डर भी है कि तमाम अन्य परियोजनाओं की तरह उन्हें उचित मुआवज़ा नहीं मिलेगा.
(इंटरन्यूज़ के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से की गई यह रिपोर्ट केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना पर छह लेखों की शृंखला का अंतिम भाग है. पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा व पांचवा भाग यहां पढ़ सकते हैं.)
छतरपुर /पन्ना: अमना अहिरवाल अब 70 साल के हो चुके हैं. जब दिल्ली में बैठी सरकार देश को विश्वगुरु बनाने का ख्वाब दिखा रही है, वे अब भी अपने गांव में सड़क और मोबाइल नेटवर्क पहुंचने का सपना देख रहे हैं.
पन्ना टाइगर रिजर्व के भीतर उनकी एक छोटी-सी झोपड़ी है, बारिश की बूंदे टप-टप करके उनकी चारपाई को पूरी तरह गीला कर देती है, वे अपनी फटी हुई लुंगी को समेटते हुए दोनों पैरों को करीब लाकर एक कोने में बैठ जाते हैं और अपने अतीत में झांकने लगते हैं.
उस जमाने में उन्हें 50 पैसे मजदूरी मिलती थी. तब तो अधिकतर आबादी की यही स्थिति थी. लेकिन धीरे-धीरे लोगों की आय रुपये से सैकड़ों, हजारों और लाखों में पहुंच गई, लेकिन अहिरवाल के लिए कुछ भी नहीं बदला. आज यदि उन्हें कभी हल्का बुखार हो जाता है तो उसकी दवा के लिए भी करीब 15 किलोमीटर पथरीले रास्तों से चलकर जाना होता है. विकास उनके गांव तक पहुंच पाया नहीं और अब तो उनके सिर से छत भी छिनने का खतरा मंडरा रहा है.
मोदी सरकार ने अपने महत्वाकांक्षी केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के तहत मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित अमना अहिरवाल के सुकवाहा समेत 10 गांवों को विस्थापित करने की योजना बनाई है.
विडंबना ये है कि इस प्रोजेक्ट के तहत 35,000 करोड़ रुपये से भी अधिक की राशि खर्च कर बांध, बैराज, नहर, पावरहाउस इत्यादि बनाए जाने हैं, लेकिन इस कार्य के लिए जिनकी जमीनें ली जाएंगी उन्हें आज तक एक अदद मोबाइल टावर भी नसीब नहीं हो सका.
दिल्ली में यदि कुछ समय के लिए इंटरनेट बंद किया जाता है तो उसे ‘आपातकाल’ की संज्ञा दे दी जाती है, मीडिया से लेकर फेसबुक, ट्विटर तक मामला पूरी तरह से वायरल जाता है, लेकिन सुकवाहा के लोगों के पास एक अदद कॉल करने के लिए भी नेटवर्क नहीं है.
गांव से करीब पांच किलोमीटर दूर जंगल में एक मोड़ पर मोबाइल नेटवर्क आ जाता है, ग्रामीणों के रोजमर्रा में एक काम यह भी है कि वे यहां आकर कुछ देर के लिए अपने प्रियजनों से बात कर पाते हैं. यदि कोई बाहर का व्यक्ति कॉल लगाकर यहां के लोगों से संपर्क चाहे तो यह नामुमकिन से कम नहीं है.
मोदी सरकार की तमाम योजनाएं जैसे कि आवास, शौचालय, उज्जवला, बिजली, डिजिटल इंडिया इत्यादि की यहां कोई पहुंच नहीं है. मनरेगा के तहत भी लोगों को कोई काम नहीं मिल रहा है. लॉकडाउन के दौरान जब करोड़ों प्रवासियों के लिए योजना संजीवनी बनी थी, ऐसे वक्त में भी यहां के गांव वाले इसके लाभ से महरूम ही रहे.
गांव में एक सरकारी स्कूल है, जिसकी बदहाली उसकी दीवारों पर लिखी हुई है. युवाओं का कहना है कि अगर मौका मिलता तो वे और पढ़ते, लेकिन विकास की परिधि से उन्हें बाहर रखकर पांचवी तक ही शिक्षा दी गई.
अहिरवाल को लगता है कि ये प्रशासन की सोची-समझी साजिश है. उन्होंने जानबूझकर यहां विकास नहीं कराया, ताकि वे इस परियोजना के लिए लोगों को आसानी से भगा सकें.
उन्होंने कहा, ‘जब पूरे संसार में व्यवस्था हो सकती है तो यहां क्यों नहीं हुई. हम तो रोते रहे, लेकिन हमारी किसी ने न सुनी. इस परियोजना के नाम पर यहां के सारे विकास कार्य रोक दिए गए. सरकार कह रही है कि वे बांध बनाकर लोगों को पालेंगे, लेकिन हमारी व्यवस्था कौन करेगा, हमें कौन पालेगा, हमारा तो सब कुछ खत्म हो रहा है न.’
ये पूछने पर कि क्या वे अपने गांव को छोड़ना चाहते हैं, उन्होंने कहा, ‘देखो, हमारे यहां एक कहावत है कि ‘घर छोड़े विपदा पड़े श्रीमान’. जब हमारे दादा-परदादा यहीं रहते आए हैं, तो हम क्यों यहां खुश नहीं रहेंगे, कौन अपने घर को छोड़कर जाना चाहता है. चिड़िया को अपना घोसला ही पसंद होता है, दिन भर भले ही वो कहीं उड़े, लेकिन दाना चुगकर वो वापस तो वहीं आती है.’
सरकार ने उन्हें विस्थापित करने की तो घोषणा कर दी है, लेकिन अभी तक ग्रामीणों को कोई जानकारी नहीं दी गई है कि उन्हें कितना मुआवजा मिलेगा.
अहिरवाल ने कहा, ‘अगर सही मुआवजा नहीं मिलेगा तो विद्रोह तो होगा ही. ऐसा थोड़े ही है कि हम चुपके से उठेंगे और चले जाएंगे. हमें मुआवजे के रूप में जमीन चाहिए, आजीविका के पैसे चाहिए, बच्चों को पालने के लिए पैसे चाहिए, सरकार को प्रति एकड़ पर कम से कम 30 लाख रुपये देने चाहिए.’
सुकवाहा के बगल में ही दौधन गांव है. स्थानीय लोग इसे अपनी भाषा में इसे ढौढ़न कहते हैं. इसी के नाम पर केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के तहत विवादित दौधन बांध बनाया जाना है, जो 77 मीटर ऊंचा और 2,031 मीटर लंबा होगा. इसमें कम से कम 7,648 करोड़ रुपये का खर्चा आएगा.
इसके अलावा 221 किलोमीटर लंबी केन-बेतवा लिंक नहर बनाई जाएगी, जिसके जरिये केन का पानी बेतवा बेसिन में लाया जाएगा. साथ ही 1.9 किलोमीटर और 2.5 किलोमीटर लंबी दो सुरंग भी बनाई जाएगी.
इस बांध के बनने के चलते 9,000 हेक्टेयर भूमि डूबेगी, जिसमें से सबसे ज्यादा 5,803 हेक्टेयर क्षेत्र पन्ना टाइगर रिजर्व का होगा. इसी रिजर्व क्षेत्र में दौधन गांव स्थित है, नतीजतन यह भी डूबेगा.
इसे लेकर 45 वर्षीय शांति देवी काफी चिंतित रहती हैं. उनका दूसरी बार विस्थापन होने वाला है. इससे पहले प्रशासन ने विकास का वादा कर उनके मायके को हटाया था, लेकिन आज भी वे मुआवजे के लिए चक्कर काट रहे हैं.
वे कहती हैं कि सरकार ने न तो जगह दिया और न ही पैसा. अब एक बार और वे विस्थापन के उस भयावह दर्द को झेलने के लिए तैयार नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘हमें एक जगह से उठाकर दूसरी जगह फेंक दिया जाता है. हमारी स्थिति नहीं बदलती है. ये कैसा विकास है.’
देवी ने आगे कहा, ‘इस गांव को एक बार नजर दौड़ाकर देख लीजिए, कोई कहेगा कि हमें इंसान समझा जाता है. यहां यदि आदमी बीमार हो जाए, अगर उसकी जेब में चार-पांच हजार रुपये नहीं हैं तो वो अस्पताल नहीं पहुंच पाएगा, इलाज का जो लगेगा वो अलग है. इस जंगल में हम इतने पैसे कहां से लाएंगे. यहां आज तक एक बिजली का बल्ब तो जल नहीं पाया. जब यहां बांध बन सकता है, तो ये भी हो सकता था.’
आलम ये है कि जिन्हें जीवन भर बिजली नहीं मिल पाई, अब बताया जा रहा है कि उनकी जमीनों को लेकर सरकार बिजली का उत्पादन करेगी. दौधन बांध में 78 मेगावॉट की बिजली भी बनाई जाएगी.
गांव से करीब 700 मीटर की दूरी पर केन नदी बह रही है, जिसके पानी को बेतवा नदी में भेजकर सरकार सिंचाई एवं पीने के पानी की व्यवस्था करने का दावा कर रही है, लेकिन यहां के ग्रामीणों के लिए स्वच्छ पानी मिलना अभी भी स्वप्न है.
इस नदी पर आश्रित रहने वाला यहां का आदिवासी समुदाय सरकारी उपेक्षा का शिकार है. गांव की जर्जर पगडंडियों से होते हुए नदी से पानी भरकर लाने का काम महिलाओं को ही करना पड़ता है. यह उनके लिए एक अंतहीन श्रम है.
इन्हीं परेशानियों के चलते 40 वर्षीय कला कभी पढ़ नहीं पाईं, लेकिन उनकी बड़ी इच्छा थी कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करें. लेकिन वे नाराजगी भरे लहजे में कहती हैं, ‘गांव का स्कूल तो बस देखने के लिए बना है, पढ़ने के लिए नहीं.’
जबकि विस्थापन को लेकर उनका कहना है, ‘हम यहां से जाना तो नहीं चाहते हैं, लेकिन हमारे जीवन को बहुत पीड़ादायक बना दिया गया है. अच्छा होता कि यहीं विकास हो जाता, यहीं सुविधा मिल जाती. अपनी भूमि छोड़ने पर कष्ट तो होता ही है, कौन अपना घर छोड़कर जाना चाहेगा. सरकार मुआवजा देकर अगर भगा भी देगी तो भी वहां कोई सुविधा नहीं हो पाएगा, अपना घर, अपना ही होता है.’
गांव के 75 वर्षीय भूरा कुमार ने अपना पूरा जीवन इन्हीं पेड़ों के बीच व्यतीत किया है, लेकिन आज यहां मूलभूत सुविधाएं भी मयस्सर न होने के कारण वे अब अपने मिट्टी के प्रति मोह भी नहीं बचा पाए हैं. इतने सालों से इसी स्थिति में रहने से वे अब आजिज आ चुके हैं.
उन्हें लगता है कि जंगल की खुशहाल जिंदगी को सरकारों ने बांध परियोजना के चलते यातनागृह में तब्दील कर दिया है. अपने बच्चों का भविष्य बनाने के लिए जंगल छोड़कर भागना ही उन्हें एकमात्र रास्ता दिखाई पड़ता है.
हालांकि अभी तक मुआवजे को लेकर उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गई है.
उन्होंने कहा, ‘अपना घर छोड़ने में डर तो लगता ही है, पता नहीं सरकार हमें कहां ले जाएगी, किस स्थिति में रखेगी. हम तो भागना नहीं चाहते थे, हम तो यहीं रहते, जैसे जीवन चल रहा था, चलता रहता. लेकिन जब बांध से सब कुछ डूब जाएगा तो हम क्या करेंगे.’
दौधन गांव की घोर अशिक्षा के माहौल के बीच गौरी शंकर यादव ही गां ववालों के कागज पढ़ते हैं. उन्हें विस्थापित करने को लेकर जब अधिकारी लोग आते हैं तो यादव गांव की ओर से बात रखते हैं, बैठकों में जाते हैं.
सिर पर गमछा बांधे, लुंगी और शर्ट पहले मंझोले कद के यादव तमाम असुविधाओं के बाद भी अपने गांव का नाम आते ही गर्व से भर जाते हैं और इसे भारतमाता कहकर संबोधित करते हैं.
उन्होंने कहा, ‘हम 100 वर्षों से भी अधिक समय से यहां रह रहे हैं. वैसे भी आजादी के 70 साल बाद भी इस गांव में उजियारा नहीं आया. मनरेगा के बाद भी यहां किसी को रोजगार नहीं मिलता. जब से इसे टाइगर रिजर्व घोषित किया गया है, हम फिर से गुलाम हो गए. हमारा जीवन इन्हीं जंगलों से चलता था. महुआ बीनते थे, लकड़िया बेचते थे, बांस काटते थे, जो लोग पलायन करके अब दिल्ली जाते हैं, वे यहीं कमा खा लेते थे. लेकिन इसे रिजर्व क्षेत्र घोषित करने के बाद हम अपने मवेशियों को जंगल में चरा भी नहीं पाते हैं.’
गौरी शंकर यादव कहते हैं कि अब वे जंगल की लकड़ी भी नहीं ले पा रहे हैं. ‘ऐसा करने पर जेल में डाल दिया जाता है. हमारा जीवन तो कुएं के अंधकार की तरह है.’
उन्होंने कहा, ‘नदी जोड़ो परियोजना को लेकर कई अधिकारी आ चुके हैं. वे कहते हैं कि तुम्हें ये मिलेगा, वो मिलेगा, वैसे तो कुछ भी लिखित में नहीं दिया है, लेकिन फिर भी वे हमें कितना दे देंगे. यदि एक व्यक्ति को 30 लाख रुपये भी मिलता है तो वो भी कम है, इससे तो छतरपुर में एक फ्लैट भी नहीं मिलेगा.’
यादव ने कहा, ‘जैसे एक वृक्ष को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह नहीं लगा सकते हैं, इसी प्रकार विस्थापन कभी सफल नहीं रहा है. वो हमारे इस प्यारे घोसले को उजाड़ना चाह रहे हैं.’
गांव में कमियों का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि एक तरफ सरकार कहती है कि कोई भी ऐसा गांव नहीं है जिसे हमने रोशन न किया हो, हम लोग तो कहते हैं हमारा गांव देखिए, कहां रोशनी है. हमने तो इस अंधकार में अपना जीवन खपा दिया, कम से कम हमारे बच्चों को तो ये तकलीफ न झेलना पड़े.
उन्होंने कुछ उदाहरण देते हुए कहा कि टाइगर रिजर्व प्रशासन ने अन्य गांवों को भी विस्थापित किया है, लेकिन वे जैसे पहले थे, आज भी उसी स्थिति में हैं. उन्हें बस एक जगह से उठाकर दूसरी जगह फेंक दिया गया है.
यादव ने आखिर में कहा, ‘हम अपनी मातृभूमि को नहीं छोड़ना चाहते हैं. जिस मां की गोद में हमने खेला है, जिस मिट्टी में हम पले-बढ़े हैं, इसे छोड़ने में बड़ा दुख होता है.’
उल्लेखनीय है कि इसी साल मार्च महीने की 22 तारीख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के सहमति ज्ञापन (मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर किए.
इससे पहले दोनों राज्यों के बीच साल 2005 में इस परियोजना को लेकर समझौता ज्ञापन (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) साइन किया गया था. बाद में सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन कई कारणों से ये परियोजना लंबित ही रही.
कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बताते हुए इस प्रोजेक्ट को मंजूरी नहीं प्रदान की थी.
लेकिन मोदी सरकार आने के बाद इसने फिर से तेजी पकड़ी, क्योंकि इस परियोजना की परिकल्पना के तार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से जुड़ते हैं. केंद्र ने इसे पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी की ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ और ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताते हुए नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के दो-तीन साल के भीतर सारे जरूरी विभागों से मंजूरी दिलवा दी.
केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट इस दलील पर आधारित है कि केन नदी में पानी की मात्रा ज्यादा है, इसलिए दोनों नदियों को जोड़कर केन के पानी को बेतवा में पहुंचाया जाएगा, जिससे लोगों को सिंचाई एवं पेयजल का लाभ मिलेगा.
वैसे तो केन और बेतवा दोनों नदियां प्राकृतिक रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, जो अंत में जाकर यमुना में मिल जाती हैं. लेकिन सरकार जिस कृत्रिम तरीके से इन्हें जोड़ना चाह रही है, उसे विशेषज्ञों ने ‘विनाशकारी’ बताया है.
सरकार ने अभी तक न तो उन आंकड़ों को सार्वजनिक किया है और न ही इसकी स्वतंत्र विशेषज्ञों से जांच कराई गई है, जिसके आधार पर वे केन में पानी ज्यादा होने का दावा कर रहे हैं.
दौधन गांव के निवासी रामसेवक यादव पिछले 30 सालों से भी अधिक समय इस नदी को देखते आ रहे हैं. उनका बचपन से लेकर जवानी तक का जीवन इसी के किनारे बीता है. वे कहते हैं कि इस नदी में इतना पानी नहीं रहता है कि इसे कहीं और ले जाया जाए.
उन्होंने कहा कि ठंड आते-आते पानी का जलस्तर इतना नीचे चला जाता है कि यहां से ऊपर पानी ले जाना पहाड़ पर चढ़ाई जैसा होता है.
यादव ने कहा, ‘इसमें पानी बहुत विशेष नहीं रहता है. बारिश होने पर तो जलस्तर बढ़ता है, लेकिन कुछ महीने में जब बारिश कम हो जाती है और ठंड आ जाती है, उसके बाद से तो इसका पानी बहुत नीचे चला जा सकता है. नीचे से ऊपर तक पानी लाना पहाड़ पर चढ़ाई करने जैसा हो जाता है. ये नदी इस स्थिति में नहीं है कि इसका पानी कहीं और ले जाया जाए.’
जब उनसे ये कहा गया कि सरकार कहती है कि यहां पानी ज्यादा है, तो उन्होंने कहा, ‘इनका काम ही है झूठ बोलना. वे हमें हर हालत में यहां से भगाना, बर्बाद करना चाहते हैं. जीवन भर इन्होंने हमें एक सुविधा नहीं दिया, अब हमारा घर भी उजाड़ने पर उतारू हैं.’
खुद विभिन्न सरकारी अध्ययनों में भी केन नदी में पानी की मात्रा को लेकर एक राय नहीं है. साल 1982 से लेकर 2010 के बीच सरकारी विभागों द्वारा ही केन नदी पर कई अध्ययन कराए गए हैं, जिसमें पानी की उपलब्धता को लेकर अलग-अलग आंकड़े सामने निकल कर आए हैं.
इसमें से सबसे कम 4,490 मिलीयन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) से लेकर 6,590 एमसीएम तक पानी इकट्ठा होने के दावे किए गए हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि आखिर इसमें से कौन से आंकड़ों को सही माना जाए और इनकी स्वतंत्र विशेषज्ञों के जरिये जांच भी नहीं कराई गई है.
एक क्यूबिक मीटर में 1,000 लीटर और एक एमसीएम में एक अरब लीटर पानी होता है.
इस परियोजना को लागू कर रही जल शक्ति मंत्रालय की एजेंसी राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (एनडब्ल्यूडीए) भी इस तथ्य को लेकर आश्वस्त नहीं है कि दौधन बांध में 6,590 एमसीएम पानी इकट्ठा होगा.
द वायर द्वारा प्राप्त किए एग्रीमेंट के ड्राफ्ट से पता चलता है एजेंसी का कहना था कि यहां पर 6,188 एमसीएम पानी इकट्ठा होगा.
इसे लेकर जब मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सवाल ने उठाया कि अप्रैल 2010 के विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में कहा गया है कि यहां पर 6590 एमसीएम पानी जमा होगा, तो इस पर एनडब्ल्यूडीए ने कहा कि नदी की हाइड्रोलॉजी बदलती रहती है, इसलिए इसी आंकड़े को ही रखना ठीक होगा.
सामाजिक कार्यकर्ता और सरदार सरोवर बांध के पुनर्वास योजना की बदहाली को बड़ी करीब से देख चुके अमित भटनागर भी इस बात का समर्थन करते हैं.
उन्होंने कहा, ‘ये एक मूर्खतापूर्ण, अतार्किक और अवैज्ञानिक योजना है. केन नदी नीचे स्थित है, बेतवा ऊपर है, आखिर कैसे केन का पानी बेतवा में जा पाएगा. इससे जो नुकसान होगा, उसका आकलन तो किया ही नहीं जा सकता है. ये इतना समृद्ध क्षेत्र है, इसकी बर्बादी विनाश ही लाएगी.’
भटनागर ने आगे कहा, ‘इस प्रोजेक्ट के तहत सरकार जितना पैसा खर्च कर सिंचाई व्यवस्था बेहतर करने का दावा कर रही है, यदि इसका एक चौथाई भी गांव की छोटी-छोटी परियोजनाओं पर लगा दिया गया होता, तो न पर्यावरण को नुकसान होता और न ही वन्यजीव-मानवजीवन संकट में आता.’
वे कहते हैं कि केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के चलते ही पिछले 15 से अधिक सालों से इस गांव का विकास या निर्माण कार्य पूरी तरह रोक दिया गया है. ये इनके साथ खिलवाड़ है, प्रकृति के साथ खिलवाड़ है.
उन्होंने कहा, ‘कहने को तो 10 गांव विस्थापित होने वाले हैं, लेकिन इसका प्रभाव सिर्फ इन्हीं गांवों, जिलों या प्रदेश में ही नहीं पड़ेगा, बल्कि हम भारतवासी देश के एक सबसे समृद्ध जंगल को खो देंगे और बाद में पछताने पर हाथ में कुछ नहीं आएगा.
इस परियोजना को लागू करने के लिए 6,017 हेक्टेयर वन भूमि को खत्म किया जाएगा, जो कि दस या बीस नहीं, बल्कि 8,427 फुटबॉल फील्ड के बराबर है.
इसके चलते कम से कम 23 लाख पेड़ काटे जाएंगे. इसका मतलब ये है कि मुंबई की आरे कॉलोनी में काटे गए पेड़ों की तुलना में एक हजार गुना (1,078) अधिक पेड़ यहां काटे जाएंगे.
मेट्रो कार शेड बनाने के लिए साल 2020 में आरे कॉलोनी में 2,135 पेड़ काटने के चलते व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुआ, न्यायालयों में याचिकाएं दायर हुई, मीडिया ने खूब कवरेज भी किया, जिसके चलते चुनाव के बाद शिवसेना सरकार को फैसले को पलटना पड़ा था.
पन्ना के जंगलों में सागौन, महुआ, बेलपत्र, आचार, जामुन, खैर, कहवा, शीशम, जंगल जलेबी, गुली, आंवला समेत अन्य प्रमुख प्रजातियों के बड़े पेड़ हैं.
इसके साथ-साथ यहां घड़ियाल अभ्यारण्य और गिद्धों का प्रजनन केंद्र भी गंभीर रूप से प्रभावित होंगे.
इस परियोजना को लेकर शुरूआत से ही बुंदेलखंड निवासी आशीष सागर अपनी खबरों के माध्यम से इसके दुष्प्रभावों को लेकर स्थानीय स्तर पर लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते रहे हैं.
करीब 11 साल पहले ही सागर ने एक विस्तृत आरटीआई आवेदन दायर कर इस प्रोजेक्ट को लागू कर रही जल शक्ति मंत्रालय की एजेंसी राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (एनडब्ल्यूडीए) से प्रभावित लोगों के विस्थापन के बारे में जानकारी मांगी थी.
जो जवाब मिला वो बेहद चौंकाने वाले थे. एनडब्ल्यूडीए ने एक जुलाई 2010 को भेजे अपने जवाब में कहा था कि ‘10 में से चार गांवों (मैनारी, खरयानी, पलकोहा और दौधन) को पूर्व में ही विस्थापित कराया जा चुका है.’
गांव वाले इस सरकारी कागज को लेकर एकदम अचंभित हैं, उन्हें किसी अनहोनी का डर सताने लगता है. वे कहते हैं, ‘हमें तो इसकी हवा तक नहीं लगी. हम चाहते हैं कि इसकी जांच हो. सुप्रीम कोर्ट को ये पता होना चाहिए कि हमारा गांव पूरी तरह आबाद है, हमें एक पैसा भी नहीं मिला है.’
वहीं सागर कहते हैं कि मुआवजा देने का वादा नर्मदा घाटी में भी किया गया था, लेकिन कुछ हुआ क्या. जब सरकार इन्हें कागज में विस्थापित दिखा सकती है, तो वे ये सपना कैसे देखें कि उन्हें मुआवजा मिलेगा.
उन्होंने कहा, ‘सवाल ये है कि आप डैम बनाकर पानी देने वादा कर रहे हैं, लेकिन ललितपुर में तो पहले से करीब एक दर्जन बांध हैं, वहां सूखा क्यों पड़ता है, हमीरपुर में क्यों पड़ता है, महोबा में क्यों सूखा होता है जहां अर्जुन सहायक परियोजना लागू की जा रही है. ये बांध सरकार की नाकामियों एवं तबाही के गवाह हैं, उसके बाद भी फिर से वही सब दोहराया जा रहा है.
दोनों तरफ पहाड़ों घिरी हुई बीच में बह रही केन नदी के स्वच्छ पानी में स्थित घड़ियाल अभ्यारण्य को दिखाते हुए वे कहते हैं, ‘रिवर लिंक से ये नेस्तनाबूत हो जाएगा. इसकी वजह ये है कि जब दौधन बांध बनेगा तो पानी को रोका जाएगा और यहां पानी कम हो जाएगा और घड़ियाल और मगरमच्छ का पर्यावास नहीं हो पाएगा. इन खूबसूरत इलाकों से हटाकर बाघ को घोर जल संकट वाले क्षेत्र रानीपुर अभ्यारण्य में ले जाने की योजना है. ये तबाही की एक प्रयोगशाला है.’
कहते हैं कि केन का पुराना नाम कर्णवति था, इसे पांडवों के वनवास काल का क्षेत्र माना जाता है. बांदा से लगा हुआ एक गांव पड़ुई है, पहले इसका नाम पांडवी था, जहां पांडव रहे थे.
अगर बालू खनन को छोड़ दें, तो केन पर औद्योगिक प्लांट नहीं हैं, जिससे इसका पानी काफी साफ रहता है. केन में ऐसे कई जलचर पाए जाते हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर है.
केंद्र सरकार ने कहा है कि साल 2013 के कानून के तहत प्रभावित परिवारों को विस्थापित किया जाएगा, जो राज्य सरकार को करना है.
केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट के सहमति ज्ञापन में कहा गया है, ‘संबंधित राज्य सरकारें अपने प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत परियोजना से प्रभावित परिवारों के पुनर्वास एवं पुन: स्थापना (आए एंड आर) तथा परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण का कार्य, पुनर्वास एवं पुन: स्थापना अधिनियम, 2013 या संबंधित राज्य नीति के अनुसार या अनुमोदित पर्यावरणीय प्रबंधन योजना के अनुसार समयबद्ध और पारदर्शी ढंग से करेंगी.’
दस्तावेज दर्शाते हैं कि 10 गांवों के कुल 1913 परिवारों के 8339 लोगों को विस्थापित किया जाना है. हालांकि ग्रामीणों का मानना है कि ये आंकड़ा सही नहीं है, क्योंकि जब ये आकलन कराया गया होगा, तब से लेकर अब तक परिवारों एवं लोगों की संख्या में काफी वृद्धि हो चुकी है.
सरकार का ये आकलन साल 2011 की जनगणना पर आधारित है. जाहिर है कि इसी साल 2021 में होने वाली जनगणना में यहां के लोगों की संख्या में बढ़ोतरी होगी.
केन-बेतवा परियोजना पर तैयार की गई व्यापक रिपोर्ट, जो अक्टूबर 2018 में आई थी, के मुताबिक साल 2013 के कानून के तहत पुनर्वास एवं पुन: स्थापना में 248.84 करोड़ रुपये का खर्चा आएगा.
यदि विस्थापित होने वालों के सरकारी आंकड़े को मानते हैं, तब भी इस हिसाब से प्रति व्यक्ति को विस्थापित करने में महज 2.98 लाख रुपये खर्च किए जाएंगे. यह गांव वालों की उम्मीद से काफी कम है.
वहीं दस्तावेजों के मुताबिक, परियोजना के तहत दौधन बांध बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण करने में करीब 324 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे.
साल 2017-18 के मूल्य स्तर के आधार पर पूरे केन बेतवा लिंक प्रोजेक्ट में 35,111 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, जिसमें से 27,018 करोड़ रुपये पहले फेज में खर्च किया जाएगा, जिसके तहत दौधन बांध, लिंक नहर, पावरहाउस इत्यादि का निर्माण होगा.
इसके दूसरे चरण में लोवर ओर प्रोजेक्ट, कोठा बैराज और बिना कॉम्प्लेक्स मल्टीपर्पज प्रोजेक्ट को लागू किया जाएगा.
सरकार का दावा है कि इसके जरिये 9.04 लाख हेक्टेयर की भूमि सिंचित होगी, जिसमें से मध्य प्रदेश में 6.53 लाख हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश में 2.51 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकेगी. साथ ही 62 लाख लोगों को पेयजल भी मिलेगा.
हालांकि बुंदेलखंड के विकास के नाम पर प्रचारित की जा रही इस परियोजना के तहत जहां एक तरफ क्षेत्र के 13 जिलों में से आठ जिले (पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर , सागर, दामोह, दतिया, बांदा, महोबा, झांसी और ललिपुर) को ही लाभ मिलने की संभावना है, वहीं दूसरी तरफ ऐसे क्षेत्रों को भी लाभ देने का प्रावधान किया गया है, जो बुंदेलखंड से बाहर हैं.
केन-बेतवा लिंक प्रोजेक्ट फ़ेज़-2 में जिन संरचनाओं का निर्माण किया जाएगा, वे बुंदेलखंड के बाहर स्थित शिवपुरी, विदिशा, रायसेन और सागर जिले को लाभ पहुंचाएंगे.
जानकारों का कहना है कि हक़ीक़त में ये परियोजना बुंदेलखंड के लिए है ही नहीं. इसके तहत क्षेत्र के जिन इलाक़ों को सींचने का दावा किया ज़ा रहा है, वो पहले से ही पूर्व की परियोजनाओं के तहत सिंचित क्षेत्र के दायरे में हैं.
इस प्रोजेक्ट को मिली वन्यजीव मंज़ूरी को सप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले यमुना जिये अभियान के मनोज मिसरा कहते हैं कि इस परियोजना का असली मक़सद बेतवा नदी के ऊपरी क्षेत्रों में पानी पहुंचाना है, जो बुंदेलखंड से बाहर है.
उन्होंने कहा, ‘जब बेतवा नदी पर ऊपर में जलाशय बना दिया जाएगा, ऐसे में नीचे के क्षेत्रों में पानी कि ज़रूरतें प्रभावित होने लगेगी. इसकी भरपाई के लिए सरकार केन को बेतवा से जोड़ रही है, ऊपर में बांध बनाने से बेतवा बेसिन में पानी की जो कमी हुई है उसको पूरी किया जा सके. यह बिलकुल अवैज्ञानिक है.’
मिसरा की याचिका पर ही सरकारी दावों की पड़ताल के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित सेंट्रल इम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) ने 30 अगस्त 2019 को सौंपे अपने रिपोर्ट में कहा था केन बेसिन में पहले से ही 11 बड़े और मध्यम परियोजनाएं तथा 171 छोटी सिंचाई परियोजनाएं चल रही हैं, इन्हीं का क्षमता विस्तार कर इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है.
समिति ने कहा था कि केन नदी पर बने बरियापुर बांध से पहले ही उत्तर प्रदेश में 2.14 लाख हेक्टेयर की सिंचाई का प्रावधान किया गया है. इस तरह केन-बेतवा प्रोजेक्ट से प्रदेश को महज 0.37 (2.51 – 2.14) लाख हेक्टेयर का लाभ होगा. जबकि मध्य प्रदेश ने बांध से खुद के लिए मिली सिंचाई क्षमता का अभी तक पूरी तरह उपयोग ही नहीं किया है.
इसी तरह केन नदी पर एक रनगवां बांध बनाया गया है. रबी सीजन में इसमें से 1,019 एमसीएम (36 टीएमसी) पानी यूपी को देने का करार किया गया है.
लेकिन आलम ये है कि दस्तावेजों के मुताबिक पिछले 10 सालों में उत्तर प्रदेश इसमें से औसतन महज 39 एमसीएम पानी ही इस्तेमाल कर पाया है.
ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जहां ये देखा है कि इन क्षेत्रों में पहले से ही बनीं परियोजनाओं की क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया है, यानी कि सिंचाई का ख़्वाब दिखाने के बाद प्रोजेक्ट से उतनी सिंचाई नहीं हो पा रही है, जितने का लक्ष्य रखा गया था.
इन्हीं आधार पर सीईसी ने सिफारिश की थी कि नए बांध और इकोलॉजी को नुकसान पहुंचाए बिना पूर्ववर्ती योजनाओं का क्षमता विस्तार कर पानी की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है.
हालांकि इन सब तथ्यों को सिरे से खारिज करते हुए मोदी सरकार ने केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना की डील साइन कर दी है.