श्मशान पुरातत्व के जानकारों और मानवशास्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण जगह रहे हैं. इसके अध्ययन के द्वारा वे अतीत के मनुष्यों की संस्कृति, धर्म और जीवन के अन्य पक्षों के बारे में अपनी समझ बनाते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में एक दीर्घकालीन राजनीतिक लाभ लेने की जुगत खोजते रहते हैं. अपने एक राजनीतिक भाषण में श्मशान का उल्लेख कर वे एक बड़ा लाभ लेना चाहते हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार से कोई नेता कहे कि उसकी सरकार आई तो वह हर गांव में कुएं खुदवा देगी, पशुओं और मनुष्यों के लिए अस्पताल बनवा देगी.
भारत के इतिहास में सबसे आदरणीय और महान कहे जाने वाले सम्राट अशोक ने तो पशुओं और मनुष्यों के लिए अस्पताल बनवाने के अपने काम को पत्थर के अभिलेखों में खुदवा दिया था.
न केवल अशोक के अभिलेख बल्कि श्मशान भी पुरातत्व के जानकारों, इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण जगह रहे हैं. इसके अध्ययन के द्वारा वे अतीत के मनुष्यों की संस्कृति, धर्म और जीवन के अन्य पक्षों के बारे में अपनी समझ बनाते हैं.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में अखिलेश यादव की उत्तर प्रदेश सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाया और कहा कि अगर उत्तर प्रदेश सरकार मुस्लिमों के लिए कब्रिस्तान बनाती है तो हिंदुओं के लिए श्मशान भी बनना चाहिए.
अब इसके बाद चुनाव विश्लेषक और राजनीति के जानकार श्मशान पर बात करेंगे. माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान उनकी हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की एक कोशिश है जबकि तीन चरणों के मतदान हो चुके हैं.
वास्तव में भारत की सांस्कृतिक कल्पना में श्मशान सदैव शामिल रहे हैं. राजा हरिश्चंद्र की दानवीरता की कहानी एक श्मशान के इर्द-गिर्द बुनी गयी है जिसमें उन्हें अपना राजपाट छोड़कर एक डोम का काम करना पड़ा था.
डोम का काम श्मशान में शवों को जलाना था. इसके कारण डोमों को आरंभिक भारत की सामाजिक संरचना में बहिष्करण का शिकार होना पड़ा. उनके पेशे को हीन पेशा कहा गया था.
इसी प्रकार धर्मसूत्रों में स्नातकों के प्रतिदिन के जीवन को निर्धारित करने का प्रयास किया गया था. स्नातकों या द्विजों से अपेक्षा की गई थी वैदिक मंत्रों के पाठ को पवित्र मानते हुए उसका यहां-वहां वाचन न करें. न बाजार में, न श्मशान में वेद का पाठ करना चाहिए.
उस गांव में भी वेद पाठ स्थगित कर देना चाहिए जहां कोई शव पड़ा हो या चाण्डाल का घर हो. यदि आप आरंभिक भारत के धर्मशास्त्रों को पढे़ंगे तो पाएंगे कि श्मशान एक ऐसा स्पेस था जो लोगों के जीवन में शामिल होते हुए बहिष्कृत था.
श्मशान के इर्द-गिर्द एक कर्मकांडीय अर्थव्यस्था विकसित हुई जिसमें पुरोहित समाज के अंदर था तो शवों को जलाने वाला डोम समाज से बहिष्कृत था.
अंग्रेजों के आगमन के बाद भारत की रियासतों और ब्रिटिश भारत में जो चकबंदी हुई उसमें यदि किसी गांव के बाहर कोई श्मशान था तो उसे राजस्व के नक़्शे में स्पष्ट रूप से दिखाया जाता था. लेकिन भारत के ज्ञात इतिहास में किसी शासक या सरकार ने हिंदुओं के लिए श्मशान बनाने की बात नहीं की.
शायद उन्हें लगता था कि इससे लोग नाराज हो जाएंगे क्योंकि गांवों की सांस्कृतिक-धार्मिक पारिस्थितिकी में मृतक के अंतिम संस्कार शामिल रहने के बावजूद कोई व्यक्ति मरना नहीं चाहता है. हां, यह बात अवश्य रही कि अलग अलग सरकारों द्वारा तीर्थस्थलों पर बिजली के शवदाह गृह बनाए गए. घाट बनाए गए. अयोध्या और इलाहाबाद में इस प्रकार के निर्माण कार्य विभिन्न सरकारों ने किए हैं.
2012 से 2017 के बीच की अखिलेश यादव की सरकार ने मुस्लिम कब्रिस्तानों की चहारदीवारी के लिए बजट आवंटित किया तो इसे मुस्लिम तुष्टीकरण माना गया.
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने सीधे-सीधे यह नहीं कहा कि यदि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आएगी तो वह हिंदुओं के लिए प्रत्येक गांव के बाहर श्मशान बनावाएगी लेकिन उनके जोशो-ख़रोश से भरे भाषण से और सोशल मीडिया पर हुई प्रतिक्रियाओं से यही अर्थ निकलता है कि भारत की राजनीति की परिधि में श्मशान आ चुके हैं.
सवाल यह है कि उस डोम का क्या होगा जो श्मशान के कारण बहिष्कृत रहा है. क्या उसे हर गांव के बाहर बने श्मशान में नौकरी मिल जाएगी? या इससे जाति प्रथा की बनावट में निहित कलंकीकरण को बढ़ावा मिलेगा जिससे डोम जैसी जातियों को ग्रसित कर दिया गया.
(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में शोधार्थी हैं)