गौरी का अख़बार उनके तेज़तर्रार और तर्कवादी पिता की ही तरह धर्मनिरपेक्षता, दलितों, महिलाओं और समाज में पिछड़े लोगों के अधिकारों के प्रति मुखर रहता था.
‘तुम सोशल मीडिया पर जो भी पोस्ट करती हो, उस बारे में सावधान रहा करो. हम बहुत ख़तरनाक वक़्त में रह रहे हैं.’ मैंने पिछले हफ्ते ही ये गौरी से कहा था, जिस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘हम इतने मुर्दा नहीं हो सकते. खुद को ज़ाहिर करना और प्रतिक्रिया देना मानवीय है. हम आवेश में जो भी कहते हैं, वो अक्सर हमारी सबसे ईमानदार प्रतिक्रिया होती है.’
5 सितंबर को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई. पर ये हत्या किसी आवेश में आकर नहीं की गई थी. ये बहुत सोच-समझ के योजनाबद्ध तरीके से की गई थी, जैसे महाराष्ट्र और कर्नाटक में तर्कवादी और विचारक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या हुई थी, जिसके ख़िलाफ़ गौरी खुद खड़ी हुई थीं.
हम आस-पास रहा करते थे. मेरी मां अक्सर मुझे लंकेश परिवार की देखरेख में छोड़ जाया करती थीं. जब भी मैं गौरी से बहस करता, वो मज़ाक में कहती, ‘बेटा, जब तुमने बोलना भी नहीं सीखा था, मैं तब तुम्हारी देखभाल किया करती थी.’
गौरी में सबसे अच्छी बात यही थी कि कोई उनके साथ हमेशा बहस या विमर्श कर सकता था, झगड़ सकता था और कह सकता था कि वे ग़लत हैं. और भले ही ये बहस कितनी ही तीखी क्यों न हो जाए, वो हमारे बोलने के हक़ का सम्मान करती थीं. हम इसीलिए अच्छे दोस्त थे कि हम एक-दूसरे से असहमत हो सकते थे. ये गुण उन्हें अपने पिता से मिला था.
गौरी के पिता एक तेज़तर्रार लेखक और विचारक थे. 1980 में उन्होंने लंकेश पत्रिके के नाम से अपना एक ब्लैक एंड वाइट टैबलॉयड अख़बार शुरू किया था. इसमें कोई विज्ञापन नहीं हुआ करते थे. लंकेश का मानना था कि अमीर कॉरपोरेट और ताकतवर सरकारी अधिकारियों और नेताओं का पक्ष लेने से प्रकाशन उनके अधीन हो जाते हैं क्योंकि उनके द्वारा दिए जाने वाले विज्ञापन किसी भी अख़बार को चलाने के लिए ज़रूरी होते हैं.
उनके मुताबिक इससे पत्रकारिता की ईमानदारी ख़त्म हो जाती है. ये उन्हीं का फैसला था कि ये अख़बार केवल सर्कुलेशन (प्रसार) के आधार पर चलेगा.
देश की मीडिया के लिए ये बिल्कुल अलग समय था. प्रिंट मीडिया बहुत मज़बूत था. दूरदर्शन और प्रसार भारती सरकार के अधीन थे और सरकार के नज़रिए से खबर प्रसारित हुआ करती थीं. प्रिंट ही एकमात्र स्वतंत्र माध्यम था.
सामाजिक और तर्कशील विचारक लंकेश उदारवादी विचारधारा के वाहक बने. उन्होंने जहां भी जातिवाद और सांप्रदायिकता दिखते, वे उसे बेनकाब किया करते. उन्होंने कन्नड़ साहित्य की महत्वपूर्ण आवाज़ें बने डीआर नागराज जैसे बागी और मुखर युवा विचारक और कवि सिद्धालिंगइया को न केवल तलाशा बल्कि संरक्षित भी किया. लेकिन उन्होंने कभी अपने बच्चों को अपने नक़्शेकदम पर चलने के लिए तैयार नहीं किया.
गौरी ने एक बार बताया था कि वो डॉक्टर बनना चाहती थीं. जब ऐसा नहीं हुआ, तब उन्होंने पत्रकारिता की राह चुनी. उन्होंने अंग्रेज़ी प्रेस से शुरुआत की. ईनाडु टीवी के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कदम रखने से पहले वो टाइम्स ऑफ इंडिया, संडे और इंडिया टुडे जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़ी रही थीं.
उनके भाई इंद्रजीत और बहन कविता ने सिनेमा का रास्ता चुना. 24 जनवरी 2000 को पी लंकेश ने अपने अख़बार के लिए उस हफ्ते का कॉलम लिखकर सोये और फिर नहीं उठे. ये अचानक हुआ था, किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी. वो चले गए और उनका बनाया पत्रकारिता का सम्मानित नाम उनके अख़बार के रूप में पीछे रह गया.
लंकेश के गुजरने के बाद ये भाई-बहन अख़बार के प्रकाशक मणि के पास पहुंचे और कहा कि वे अपने पिता का अख़बार बंद करना चाहते हैं. गौरी को लगता था कि उनके पिता ने अपने बच्चों को इस अख़बार को संभालने के लिए तैयार नहीं किया है. वो सोचती थीं कि वे इसके ‘असली’ उत्तराधिकारी नहीं हैं. वे अपने करीबियों से कहा करती थीं, ‘हम उन जैसे नहीं हो सकते.’
ऐसा बताया जाता है कि मणि ने उन्हें समझाते हुए अख़बार को एक मौका देने को कहा.
इसके बाद इंद्रजीत ने अपने पिता के इस अख़बार को चलाने का फैसला किया. वहीं गौरी ने गौरी लंकेश पत्रिके के नाम से अपना एक टैबलॉयड शुरू किया. जिस वक़्त उन्होंने इसे शुरू किया, तब उन्हें पत्रकारिता का 16 साल का अनुभव हो चुका था. उस समय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने उभार पर था. ज़्यादातर कन्नड़ टैबलॉयड के सर्कुलेशन में गिरावट आ रही थी. उन्होंने एक ऐसे सफर की शुरुआत की थी, जहां पहले दिन से ही आर्थिक उतार-चढ़ाव उनके सामने थे.
गौरी अपने पिता के उसूलों पर अडिग रहीं. उनका अख़बार धर्मनिरपेक्षता, दलितों, महिलाओं और समाज में पिछड़े लोगों के अधिकारों पर मुखर रहा. उनके पिता का तेज़तर्रार स्वरूप उनके लेखन में भी दिखाई देता था. वे दक्षिणपंथ और जातिवादी राजनीति की आलोचना में लिखते वक़्त कोई रियायत नहीं बरतती थीं.
जब सोशल मीडिया चलन में आया, तो वे यहां भी सक्रिय हुईं. उनकी फेसबुक और ट्विटर टाइमलाइन पर विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर उनकी निडर और बेबाक राय को देखा जा सकता है. वे लोगों या अपनी राय से जुड़ी अपनी भावुकता को लेकर कभी कोई शर्म महसूस नहीं करती थीं.
पिछले साल छात्रनेता कन्हैया कुमार का भाषण सुनने के बाद उन्होंने कन्हैया को बेंगलुरु बुलाया. उन्होंने सोशल मीडिया पर उसे अपना ‘बेटा’ भी बताया.
गौरी को काफी ट्रोलिंग का भी सामना करना पड़ा, उन्होंने अनाप-शनाप कहा गया. बहुत से लोग उन्हें ये कहकर नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि वे अपने पिता की प्रसिद्धि का फायदा उठा रही हैं. उन्हें नक्सलियों का हमदर्द, देश-विरोधी, हिंदू-विरोधी और पता नहीं क्या-क्या कहा गया. लेकिन इनमें से कोई भी उन्हें प्रभावित नहीं कर सका.
पिछले हफ्ते मैंने मज़ाक में उनसे कहा कि वे सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी को नहीं समझतीं. इस पर उन्होंने कहा, ‘जो टेक्नोलॉजी को समझते हैं, वो ख़ामोश हैं. मैं वो करुंगी जो मैं कर सकती हूं, वो कहूंगी, जो मुझे कहना चाहिए. इन असहिष्णु आवाज़ों को हमारी ख़ामोशी से ही ताकत मिलती है. उन्हें धमकियों के बजाय शब्दों से बहस करना सीखने दो.’
(चैतन्य केएम फिल्मकार हैं और थिएटर से जुड़े हैं.)
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