सुप्रीम कोर्ट के चार पूर्व न्यायाधीशों ने कहा है कि आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी की मौत एक उदाहरण है कि देश में आतंकवाद रोधी क़ानून का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है. यूएपीए की असंवैधानिक व्याख्या संविधान के तहत दिए गए जीवन के मौलिक अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और त्वरित सुनवाई के अधिकार को ख़त्म करता है.
नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट के चार पूर्व न्यायाधीशों जस्टिस आफताब आलम, जस्टिस मदन बी. लोकुर, जस्टिस गोपाल गौड़ा और जस्टिस दीपक गुप्ता ने शनिवार को देश में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए कहा कि अब इन्हें खत्म करने का समय आ गया है.
इन पूर्व जजों का यह बयान पिछले साल एल्गार परिषद मामले में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ता स्टेन स्वामी के हिरासत में हुए निधन के बाद आया है.
मेडिकल आधार पर जमानत का इंतजार करते हुए बीते पांच जुलाई को न्यायिक हिरासत में स्टेन स्वामी का निधन हो गया था.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, दरअसल एक एनजीओ ‘कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स’ (सीजेएआर) द्वारा आयोजित ऑनलाइन सार्वजनिक चर्चा कार्यक्रम को संबोधित करते हुए पूर्व जजों ने सर्वसम्मति से कहा कि आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी की मौत एक उदाहरण है कि देश में आतंकवाद रोधी कानून का किस तरह दुरुपयोग किया जा रहा है.
बता दें कि स्वामी पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया था. एनआईए ने एल्गार परिषद मामले में स्टेन स्वामी की कथित भूमिका के आरोप में उन्हें आठ अक्टूबर 2020 को गिरफ्तार किया था.
जस्टिस लोकुर ने कहा कि स्वामी की मौत हल्की यातना (Soft Torture) का नतीजा है.
उन्होंने कहा, ‘हर किसी ने स्टेन स्वामी के बारे में बात की. उन्हें पहले मेडिकल इलाज क्यों नहीं दिया गया? क्या यह यातना नहीं है? क्या यह हल्की यातना नहीं है? यह शारीरिक उत्पीड़न नहीं है, जहां आप किसी शख्स की पिटाई करते हैं लेकिन यह यातना का ही एक प्रारूप है.’
जस्टिस आलम ने कहा, ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह कानून हमें कहां ले आया है. इसके नतीजे हम देख सकते हैं. बिना किसी सुनवाई के स्टेन स्वामी की हिरासत में हुई मौत हमारे सामने है.’
इस मुद्दे पर जस्टिस गुप्ता ने कहा, ‘फादर स्टेन स्वामी (84 वर्ष) पार्किंसंस बीमारी से जूझ रहे थे. मेरा मतलब है कि क्या हम इंसान नहीं है? क्या हमने मानवता खो दी है, इस शख्स को जमानत की जरूरत थी, फिर भले ही उस पर यूएपीए की धारा 43डी या 43ई ही क्यों ना लगी हो.’
उन्होंने कहा, ‘जमानत का क्या उद्देश्य है? उद्देश्य यह है कि उन्हें जांच को प्रभावित नहीं करना चाहिए. अगर स्टेन स्वामी को जमानत दी जाती तो अदालत के पास इस तरह के प्रतिबंध लगाने के पर्याप्त साधन होते, लेकिन रास्ते में बाधा थी यूएपीए की धारा 43डी.’
यूएपीए की धारा 43डी (5) जमानत देने को बहुत पेचीदा बना देती है. अगर अदालत को लगता है कि इस तरह के किसी शख्स के खिलाफ प्रथमदृष्टया आरोप सच हैं तो यूएपीए के तहत उसे जमानत नहीं दिए जाने का प्रावधान है.
असम के नेता अखिल गोगोई पर विवादित नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदर्शन को लेकर उनके खिलाफ यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया था और वह कुछ हफ्ते पहले ही 17 महीने जेल में गुजारने के बाद जेल से बाहर आए हैं.
पूर्व जजों का कहना है कि यूएपीए की धारा 43 (डी)(5) में या तो संशोधन या फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसकी पूरी तरह से अलग व्याख्या करने की जरूरत है, क्योंकि यह कानून बिना किसी सुनवाई के लोगों को जेल में प्रताड़ित करने का औजार बन गया है.
जस्टिस गौड़ा ने कहा, ‘सुनवाई के अंत तक जमानत देना लगभग असंभव सा है. इसमें पीढ़ियों तक का समय लग सकता है, क्योंकि यूएपीए की यह असंवैधानिक व्याख्या संविधान के तहत दिए गए जीवन के मौलिक अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और त्वरित सुनवाई के अधिकार को खत्म करता है. वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है.’
जस्टिस गौड़ा और जस्टिस गुप्ता ने कहा कि आतंकी गतिविधियों से निपटने के लिए कानून होना चाहिए, लेकिन यूएपीए के तहत आतंकवादी गतिविधि की अस्पष्ट परिभाषा को खत्म किया जाना जरूरी है और सुप्रीम कोर्ट को आवश्यक सुरक्षा उपाय करने चाहिए.
इसी तरह सेवानिवृत्त जजों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत राजद्रोह की धारा पर कहा कि भारत में राजद्रोह कानून की कोई जगह नहीं है, क्योंकि विभिन्न कानूनों के तहत पहले से ही दंडनीय प्रावधान हैं.
जस्टिस गुप्ता ने कहा, ‘राजद्रोह की धारा को अस्तित्व में रखने का कोई लाभ नहीं है. इस कानून को जल्द से जल्द खत्म करना चाहिए.’
उन्होंने कहा कि चीफ जस्टिस एनवी रमना द्वारा हाल ही में इसे खत्म करने के लिए की गई टिप्पणियों से यह उम्मीद जगी है कि राजद्रोह कानून को अब खत्म किया जाएगा.
आईपीसी की धारा 124ए को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र से जवाब मांगते हुए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह औपनिवेशिक काल का कानून है, जिसे ब्रिटिशों ने स्वतंत्रता संग्राम को दबाने और महात्मा गांधी, गोपाल कृष्ण गोखले आदि को चुप कराने के लिए इस्तेमाल किया था. क्या आज़ादी के इतने समय बाद भी इसे बनाए रखना जरूरी है?